ये ऐसा समय था जब बुन्देलखण्ड ही नही अपितु सम्पूर्ण भारत के राजा छोटे- छोटे राज्यों मे बंटे हुये थे और ये आपस मे ही लडते रहते थे यही कारण था कि इनकी शक्ति भी बटगई थी जिसके परिणामस्वरूप कोई भी विदेशी इन्हे गुलाम बना लेता था। इस लिये सबसे पहले Chhatrasal Ka Bundelo Ko Sangathit Karna और उन्हे मुसलमानो से बुन्देलखण्ड को स्वतंत्र कराना उचित समझा।
बुंदेलों को संगठित करने मे महाराज छत्रसाल की भूमिका
इस समय ओरछा का राज्य राजा जसवंतसिंह के हाथ में था। राजा जसव॑तसिंह ओरछा के पहले राजा पहाडसिंह के पौत्र थे। इन्होंने मुगलों के अधिकार में रहना स्वीकार कर लिया था और ओरछा के राज्य मे छत्रसाल के पिता चंपतराय के विरुद्ध मुसलमानों को सहायता भी दी थी। बुंदेलखंड के अन्य स्थानों की देख रेख के लिये शुभकरण नाम का बुंदेला सरदार था। इस शुभकरण ने चंपतराय के साथ युद्ध भी किया था।
ऐसी स्थिति में महाराज छत्रसाल ने पहले इन लोगों से मिलकर और इन्हें समझाकर अपनी ओर कर लेने का विचार किया। छत्रसाल ने शुभकरण से मिलने का उद्देश्य बतलाया। इस समय छत्रसाल मुगलों के दुश्मन नही थे क्योंकि छत्रसाल ने मुगलों को देवगढ़ के युद्ध में सहायता दी थी। इसी कारण मुगलों के खास शुभकरण ने छत्रसाल से मिलने में कोई आपत्ति नही की और जब छत्रसाल शुभकरण के पास पहुँचे तब शुभकरण ने उनका स्वागत किया।
शुभकरण नाते में छत्रसाल के काका लगते थे। इसी कारण शुभकरण ने चाहा कि छत्रसाल भी औरंगजेब के अधीन हो जायें और शुभकरण ने औरंगजेब के दरबार में नौकरी स्वीकार करने के लिये उन्हें सलाह दी, परंतु छत्तसाल ने इसके बिल्कुल ही विरुद्ध थे। उन्होंने शुभकरण से मुगलों की अधीनता छोड़कर बुंदेलों को स्वतंत्र करने के कार्य में सहायता माँगी। देवगढ़ की विजय के पश्चात मुगलों ने इनसे जो व्यवहार किया था उसका वर्णन करके छत्रसाल ने शुभकरण को समझाया कि मुसलमान लोग हिंदू लोगों की भलाई कभी न करेंगे, परंतु शुभकरण को छत्रसाल की बात अच्छी नही लगी और उन्होंने छत्नसाल को राजविद्रोही समझ तुरंत ही अपने घर से बिदा कर दिया ।
छत्रसाल को शुभकरण की बातों पर बढ़ा दुःख हुआ परंतु इन्होंने अपना काम जारी रखा। छत्रसाल इसके पश्चात औरंगाबाद गए जहाँ पर छत्रसाल के चचेरे भाई बलदिवान रहते थे । बलदिवान ने छत्रसाल का हृदय से स्वागत किया और तत्कालीन राजनैतिक परिरिथति पर दोनों भाइयों की बहुत देर तक बातें हुई । वहीं पर छत्रसाल ने अपना विचार बुंदेलखंड में स्वतंत्र बुंदेलराज्य स्थापित कर मुसलमानों को मार भगाने का बताया।
बलदिवान का हृदय मुसलमानों के अत्याचार से पहले ही खिन्न हो रहा था । उन्होंने छत्रसाल की सहायता करने का वचन दिया और छत्रसाल के वीर उद्देश्य की बहुत बढ़ाई की। बलदिवान ने छत्रसाल से यह भी कहा कि जब तुम जहाँ सुझे बुलाओगे वहीं पर में तुम से मिलकर जो सहायता बन सकेगी करूँगा ।
छत्रसाल ने फिर विक्रम संवत् 1728 में मोर पहाड़ी पर सेना एकत्र करना आरंभ किया । छत्रसाल के इन सब कामों की खबर औरंगजेब तक पहुँची। उसने वुंदेलों को दबाने के लिये ग्वालियर के सूबेदार फिदाईखां को हुक्म दिया । उस समय ओरछा की रियासत ग्वालियर के सूबेदार के अधिकार में थी।
ग्वालियर के सूबेदार फिदाईखाँ को जो हुक्म औरंगजेब ने दिया उसमे यह भी लिखा था कि मुसलमान लोग बुंदेलखंड के लोगों का जबर- दस्ती मुसलमान बनायें, जो न बनें उन्हें जान से मारे, मंदिरों को तोड़ें और मूर्तियों का फोडें । औरंगजेब की फौज जब कोई देश जीतने जाती थी तब उसे यही हुक्म दिया जाता था और जो देश औरंगजेब के राज्य में थे वहाँ भी हिंदुओं की अच्छी दशा नही थी ।
ग्वालियर के सूबेदार फिदाईखां ने बादशाह औरंगजेब का यह हुक्म पाकर ओरछा के राजा सुजानसिंह को एक पत्न लिखा । उस पत्र में फिदाईखाँ के पास से ओरछा के राजा को फौज, का प्रबंध करने और मंदिर और मूर्तियाँ तोड़ने में सहायता देने का हुक्म था। राजा मुसलमानों के अधीन थे ही। यह पत्र पाते ही वे सोच में डूब गए। मुसलमानों के अधिकार मे वे अवश्य थे परंतु उन्होंने हिंदू धर्म नही छोडा था।
उन्हें बादशाह का हुक्म भानना धर्म के प्रतिकूल मालूम हुआ परंतु हुक्म न मानने से उनके राज्य का भी निकल जाना निश्चित था। इस समय ओरछा राज्य के पुराने दुशमन चंपतराय के पुत्र छत्रसाल का समाचार ओरछा के राजा सुजानसिंह को मिला। छत्रसाल अपनी सेना लिए मोर पहाड़ी के जंगल में ठहरे थे । दिन प्रति दिन मोर पहाड़ी में छत्रसाल के सैनिकों का जमाव अधिक होता जाता था।
राजा सुजानसिह के मंत्रियों ने छ्त्रसाल से सहायता लेने की सलाह दी । यद्यपि छत्रसाल ओरछा के दुशमन चंपतराय के पुत्र थे इस लिये प्रत्येक बुंदेला इस बात को जानता था कि धर्म की रक्षा और यवनों से युद्ध के लिये छत्नसाल सदा ही तत्पर रहेंगे। ओरछा के राजा ने छत्रसाल को बुलाने का निश्चय कर लिया और रतिराम नामक एक सभासद छत्रसाल के पास ओरछा का पत्र लेकर पहुँचा । पत्र पाते ही छत्रसाल अपना आपसी बैर भूल गए और उन्होंने ओरछा की सहायता ऐसे घर्म-संकट पर करने का निश्चय कर लिया ।
पत्र पाने के दूसरे ही दिन छत्रसाल, अंगदराय और बलदिवान ओरछा के लिये चल दिये। ओरछा पहुँचने पर सुजानसिंह की ओर से छत्नसाल का यथोचित सम्मान हुआ । सुजानसिंह और च्त्रसाल की बहुत देर तक सलाह होती रही । अंत में छत्रसाल और राजा सुजानसिंह दोनों ओरछा के राम राजा जी के मंदिर में गए और यहाँ पर दोनों ने अपना पुराना आपसी वैर भूलकर सदा के लिये एक दूसरे को सहायता देने का बचन दिया । यवनों के दुराचार से बचने का दोनों ने एक उपाय यही सोचा कि बुंदेखण्ड को स्वतंत्र कर लें। छत्रसाल ने इस काम के करने का बादा किया और ओरछा के राजा सुजानसिंह ने हर प्रकार छत्रसाल को सहायता देने का वचन दिया। इसके पश्चात् छत्रसाज्ञ और सेना एकत्र करने और बुंदेलखंड के बीरों को सहायक बनाने के उद्देश्य से ओरछा से लौट गए ।
छत्रसाल को उनके पिता के संगी साथी और उनके पुराने मित्रों ने बड़ी सहायता दी। जिन लोगों ने उन्हें विशेष सहायता दी उनमें से गोविंदराय जैतपुरवाले, कुंवर नारायणदास, सुंदरभान परमार, राममन दौआ, मेघराजपरिहार, धुरमांगद बख्शी कायस्थ, किशोरीलाल, लच्छे रावत, मानशाह, हरवंश, भानु भाट, बंबल कहार, फत्ते वैश्य । इन सबने सेना तैयार करने मे विशेष सहायता दी परंतु इस समय छत्रसाल की सेना बहुत नही थी ।
छत्रसाल के भाई रतनशाह बिजौरी में रहते थे। छत्रसाल ने उनसे भी सहायता लेने का निश्चय किया । इसलिये छत्रसाल उनके पास गए रतनशाह ने छत्रसाल का स्वागत किया। फिर छत्रसाल ने अपने आने का कारण रतनशाह से कहा। रतनशाह ने छत्रसाल से बहुत वाद-विवाद किया । अंत में छत्रसाल को अपने काम मे रतनशाह से अधिक सहायता मिलने की आशा नही हुई । छत्रसाल रतनशाह के पास अठारह दिन रहे ।
रतनशाह के पास से लौट कर राजा छत्रसाल औंडेरा नामक गांव में आए । यहाँ पर राजा छत्रसाल के सब साथियों ने मिलकर अपना मुखिया बनाया और बलदिवान को उनका मंत्री बनाया । युद्ध मे और लूट में जो माल मिले उसमें छत्रसाल का हिस्सा 55/100 और बलदिवान का हिस्सा 45/100 तय हो गया । सब वीर बुंदेलों ने यहाँ पर स्वाधीनता प्राप्त करने का प्रण किया और अपने प्रण के नियम इस प्रकार निश्चित किए… ।
1 – क्षत्रियों का धर्म पालना ।
2 – देश और जाति की रक्षा का यत्न करते रहना ।
3 – धर्म के विरुद्ध आचरण करने वाले, और प्रजा को कष्ट देने वाले यवनों का नाश करना ।
4 – उन राजाओं या सूवेदारों को यथोचित दंड देना जो विजातीय यवनों से मेल करके हिंदुओं पर अत्याचार करें ।
इस प्रकार निश्चय करके और युद्ध की तैयारी करके छत्रसाल ने अपनी लडाई आरंभ कर दी । जहाँ जहाँ छत्रसाल ने विजय की उसका वर्णन छत्न-प्रकाश नामक ग्रंथ में किया गया है । उस समय छत्नसाल के पास केबल 347 पैदल सिपाही और 30 सवार थे। इस थोड़ी सी सेना को लेकर छत्रसाल पहले धंधेरखंड की ओर चले । यहाँ पर कुंवरसेन धंधेरा राज्य करता था और बह मुसलमानों के अधीन था।
कुंवरसेन ने छत्रसाल का सामना किया परंतु छत्रसाल के सिपाहियों ने उसे हरा दिया । कुंवरसेन फिर सकरहटी के किले में जा छिपा पर छत्रसाल ने उसका वहाँ भी पीछा किया और उसे कैद कर लिया। तब उससे वीर छत्रसाल की अधीनता स्वीकार की और अपने भाई हिरदेशाह की लड़की दानकुंवरि का ब्याह छत्रसाल के साथ कर दिया। इतना दी नहीं, वरन् केसरीसिंह नाम का अपना एक सरदार छत्रसाल की सहायता के लिये दिया और 25 पैदल सिपाही भी छत्रसाल को दिए।
इसका समाचार मुगल बादशाह को मिला । उस समय छत्रसाल से लड़ने के लिये कोई बड़ी सेना नहीं आई परंतु इन लोगों को डाकू समझ एक थानेदार इन्हें पकड़ने आया । सिरोंज मुगल बादशाह के बड़े नगरों में से था और यहाँ पर एक थानेदार भी रहता था । इस थानेदार का नाम मुहम्मद हाशिमखां था । यह अपने तीन सौ सिपाही लेकर छत्रसाल को पकड़ने के लिये आया । छत्रसाल ने इन तीन सौ आदमियों को शीघ्र ही मारकर भगा दिया। सिरौंज के समीप ही तिवरो नाम का गांव था । यह
गांव भी उसी थानेदार के अधीन था। उस गाँव को भी छत्रसाल ने लूट लिया। इन लूटों से उन्हें खूब धन मिला जो उदारता से सिपाहियों मे बॉटा गया । इससे छत्रसाल के अनुयायी उनसे बहुत प्रसन्न हुए और प्रतिदिन छत्रसाल के सैनिकों की संख्या बढ़ने लगी। स्वतंत्रता प्राप्त करने के पवित्र कार्य में सहायता देने के लिये दूर दूर से बुंदेले आकर छत्रसाल की सेना मे भरती होने लगे। बुंदेलखंड में क्या सारे भारत में छत्रसाल की वीरता प्रसिद्ध दो गई ।
धामौनी का जागीरदार मुगलों के अधीन था और इसने चंपतराय पर आक्रमण करते समय मुगलों को सहायता दी थी। छत्रसाल ने अपने पिता के शत्रु को नीचा दिखाने के लिये अपनी सेना लेकर धामौनी पर हमला किया। धामौनी का जागीरदार भी तैयार होकर बैठा था । उसने छत्रसाल से आठ दिन तक युद्ध किया पर अंत मे वह हार गया। उसने छत्रसाल की अधीनता स्वीकार कर बहुत सा धन दिया और हमेशा के लिये छत्रसाल को अपनी जागीर की आमदनी का चौथा भाग अर्थात चौथ देना स्वीकार किया ।
धमौनी के पश्चात् छत्रसाल ने मैहर पर आक्रमण करने का विचार किया। उस समय मैहर का जागीरदार एक बालक था और उसकी माँ उस बालक की तरफ से देख-रेख करती थी । मैहर की सेना का मालिक माधवसिंह गूजर था। छत्रसाल ने मैहर पर चढ़ाई की और बारह दिन के युद्ध के पश्चात् मैहर का किला ले लिया गया और माधवसिंह बंदी कर लिया गया। तब जागीरदार ने 3000 रुपये सालाना कर देने की प्रतिज्ञा की और माधवसिंह छोड़ दिया गया ।
मुसलमानी राज्य के इस विभाग मे अशांति होने से जागीरदार लोग भी सेना रखते थे और उन्हें मुगलों की ओर से इस विषय में आज्ञा थी । छत्रसाल के सैनिक इतनी शीघ्रता से देश के इस छोर से उस छोर को चले जाते थे कि मुगल सेना को उन्हें आकर हराना कठिन होता था ।
बाँसा के जागीरदार के पास भी एक बड़ी सेना थी और वह जागीरदार अपने बल पर बहुत घमंड करता था। उसे छत्रसाल की विजय देखकर बहुत बुरा लगता था। छत्रसाल ने बॉसा के जागीरदार के पास, जिसका नाम केशवराय दुरंगी था, यह संदेश भेजा कि या तो अधीनता स्वीकार करो अथवा युद्ध करो । बाँसा के जागीरदार केशवराय ने अधीनता स्वीकार करना ठीक नही समझा और छत्रसाल को परस्पर युद्ध मे बल की परीक्षा करने के लिये ललकारा ।
छत्रसाल के मंत्रियों ने छ्त्रसाल को बिना सेना के युद्ध करने की सलाह नही दी, क्योंकि छत्रसाल की सारी सेना की विजय छत्नसाल के ऊपर ही आश्रित थी और मंत्रियों ने यह निश्चय किया कि छत्रसाल के प्रधान मंत्री बलदिवान ही अकेले केशवराय से लड़ें। बलदिवान भी बड़े बलवान पुरुष थे पर वे भाला बरछी चलाने से भी निपुण थे। परंतु छत्रसाल ने केशवराय से लड़ना स्वीकार न करना कायरता समझा और उन्होंने स्वयं केशवराय से युद्ध करने का निश्चय कर लिया ।
इस समय केशवराय और छत्रसाल दोनों अपने अपने घोड़ों पर सवार होकर अपने बल की परीक्षा करने आए । दोनों को अपने बल पर विश्वास था । केशवराय ने छत्रसाल से पहले वार करने के लिये कहा। परंतु छत्रसाल ने उत्तर दिया कि केशवराय ही अतिथि का सत्कार अपनी बरछी से पहले करें। केशवराय ने पहले बरछी चलाई जो छत्रसाल की छाती मे लगी पर छत्रसाल ने उसे निकाल अपनी
बरछी केशवराय के हृदय में मारी और जब केशवराय तलवार लेकर मारने को आने लगा तब छत्रसाल ने बरछी मारकर केशवराय को घोड़े पर से गिरा दिया। उस बरछी की चोट बहुत गहरी होने से केशवराय मर गया । इस प्रकार दोनों का धर्म-युद्ध समाप्त हुआ ।
सारी सेना अलग खड़ी चुपचाप देखती रही । केशवराय के मरने के पश्चात् उसके पुत्र विक्रसिंह को छत्रसाल ने आश्वासन दिया और उसे अपनी सैन्य का सेमापति बनाया । विक्रमसिंह ने भी छत्रसाल के अधीन होना स्वीकार कर लिया ।
मुगलों के सेनापति हमेशा छत्रसाल को हराने के प्रयत्न में रहते थे । वे कभी कभी छत्रसाल की बड़ी सेना को देखकर भाग जाते और कभी उन्हें पा ही नही सकते थे। एक समय एक जंगल में अचानक बहादुरखां नामक सेनापति ने छत्रसाल को आ घेरा । यह सेनापति ग्वालियर के सूबेदार के अधीन था । जिस समय बहादुरखॉ ने छन्नसाल को घेरा उस समय छत्रसाल के पास न तो कोई बड़ी सेना थी और न अधिक इथियार ही थे। इस फारण छत्नसाल उससे युद्ध करना ठीक न समझ बुद्धि का सही इस्तेमाल करके एक धाटी के समीप से निकल गए और बहादुरखां को लौटना पड़ा।
जब छत्रसाल अपने डेरे पर आए तब उन्होंने तुरंत ही ग्वालियर के सूबेदार के प्रांत पर धावा किया । पहले छत्रसाल ने पवॉया नामक गांव लूटा और फिर आकर धूमघाट नामक स्थान पर डेरा डाला। ग्वालियर का सूबेदार मुनौवर खाँ यह हाल सुनते ही एक बड़ी सेना लेकर वहां पहुँचा और वहाँ पर छत्रसाल से और ग्वालियर सूबे की सेना से खूब युद्ध हुआ । मुसलमान सेना को हारकर पीछे हटना पड़ा और छत्रसाल ने उसका पीछा किया। सुसलमानी सेना फिर अपने बचाव के लिये ग्वालियर के किले में घुस गई। यह किला लेना बड़ा कठिन कार्य समझ छत्रसाल ग्वालियर लूटकर लगभग सवा करोड़ रुपए और बहुत से रत्न लेकर वापिस आए ।
इस समय सिरौंज का थानेदार मुहम्मद हाशिम भी फौज लेकर ग्वालियर की सहायता को पहुँचा। ग्वालियर से भी कुछ फौज और आई पर दूसरी ओर से मुहम्मद हाशिम की फौज पहुँची । तीसरी ओर से आनंदराय चौधरी नामक एक व्यक्ति भी सेना लेकर मुसलमानों की सहायता को पहुँचा। इस समय छत्रसाल का डेरा कटिया नामक जंगल से था। तीनों सेनाओं ने तीन तरफ से छत्रसाल पर आक्रमण किया परंतु वीर बुंदेले जरा भी नही डरे और उन्होंने अपने रणकौशल के सहारे सारी सेना छिन्न-भिन्न कर दी। वहाँ से विजय-पताका उड़ाते हुए बुंदेले हनूटेक आए और यहां वीर छत्रसाल की तीसरी शादी मोहार के धंघेरे हरिसिंह की बेटी उद्देतकुंवरि से हुई ।
हनूटेक से छत्रसाल मऊ के पास आए और यहाँ उन्होंने एक दूसरा गाँव बसाया। यह गाँव भी महेबा कहलाता है। परंतु यह स्थान सुरक्षित न था, इस कारण रनिवास के लिये पन्ना ही ठीक समझा गया। परंतु सेना अधिकतर मऊ में रही ।
छत्रसाल की बीरता और उनकी विजय का हाल सुनके प्रत्येक बुंदेले के हृदय में प्रसन्नता होती थी । इस कारण वे सब लोग छत्रसाल को सहायता देने के लिये सदा तैयार रहते थे । जो मुसलमानों के भय के मारे छत्रसाल के दल में समलित न होते थे वे भी अब छत्रसाल की शक्ति पर विश्वास कर छत्रसाल की सहायता के लिये तत्पर हो गए। इस प्रकार बुंदेले लोग सब मिलकर मुसलमानों से युद्ध करने के लिये तत्पर हुए ।
आधार – बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी