छऊ नृत्य बंगाल, झारखंड, और ओडिशा में प्रचलित एक लोक नृत्य है। यह एक अर्ध-शास्त्रीय भारतीय नृत्य है। छऊ नृत्य Chhau Dance को छौ नाच भी कहा जाता है। यह नृत्य, मार्शल और लोक परंपराओं पर आधारित है। छऊ नृत्य तीन शैलियों में पाया जाता है: पुरुलिया छऊ, मयूरभंज छऊ, सरायकेला छऊ ।
दक्षिण के साहित्यिक नाटक,बंगाल और ओड़िसा के यात्रा नाटक, मणिपुर और असम के वैष्णव नृत्य नाटक तथा रामलीला और रासलीला के श्रृंखला नाटकों की तुलना में छऊ एकदम भिन्न कलारूप प्रतीत होगा। प्रथम दृष्टि में छऊ के विभिन्न रूप असामान्य नाट्य संरचना और प्रदर्शन विधियों के उदाहरण दिखाई देंगे।
जब सेराएकला के छऊ नर्तकों ने सन् 1938 में यूरोप की यात्रा की थी तो उन्हें ऐसे प्राचीन कलारूप का प्रतिनिधि मानकर स्वागत किया गया था जिसका अन्य भारतीय परंपराओं से मानो कोई संबंध ही न हो गत 25 वर्षों में हमें अधिक जानकारी प्राप्त हुई है न केवल इन कलारूपों की शिल्प विधियों के विषय में अपितु उस परिस्थितिगत और सामाजिक वातावरण के विषय में भी जिसमें इन रूपों का उद्भव और विकास हुआ।
छऊ के विधागत नाम से जाने जानेवाले तीनों रूपों का पूर्वी भारत संबंध है, विशेषकर मयूरभंज, पुरुलिया और सिंहभूम जिलों से कुछ समय पहले तक सिंहभूम जिले के मयूरभंज और सेराएकला के क्षेत्र ओड़िसा के ही भाग थे। पांचवें दशक में ही सेराएकला बिहार का एक जिला बना है। इसी प्रकार पुरुलिया पहले बिहार का भाग था और अब वह बंगाल का एक भाग है । इस देशगत फैलाव और पारस्परिक समीपता में ही उन समानताओं और भिन्नताओं के सूत्र निहित हैं जो इन रूपों की विशेषता है ।
इस क्षेत्र में परिस्थितिगत, भौगोलिक और सामाजिक परिवेश तथा मानवजातीय रूप- बहुलता सुविदित है । वनस्पति क्षेत्र मयूरभंज और पुरुलिया के बीच दलदली भूमि से लेकर बंजर पर्वतमाला तक फैला हुआ है। प्रदेश को बीच से काटने वाले नदी तलों और पहाड़ों के कारण सभ्यता के छोटे छोटे विविक्त केंद्र बन गये हैं । यह प्रदेश आज भी मानव जातीय रूप-बहुलता के लिए प्रसिद्ध है।
इनमें हो, मुंडा, उरांव, सौरा, जुआंगा तथा अनेक अन्य जनजातियां सम्मिलित हैं। इस प्रदेश की अपनी एक समृद्ध जनजातीय संस्कृति है जिसने ओड़िसा की कलाओं के विभिन्न प्रतिमानों के अध्ययन के लिए अच्छी सामग्री सुलभ करा दी है। जनजातीय वर्गों के अतिरिक्त इनमें आहार एकत्र करने वाले, यायावर, मछुआरे, स्थान बदलकर खेती करने वाले सम्मिलित हैं, कुछ अन्य प्रकार के वर्ग भी हैं जिन्हें सामान्यतया सवर्ण हिंदू कहा जाता है।
अब छऊ रूपों और उनके कलाकारों पर विचार करें। यह प्रकट होगा कि इनमें सबसे अधिक निर्धन वर्ग पुरुलिया छऊ के कलाकारों का है । इन सबका ही संबंध अनूसूचित जातियों से है। दूसरा बड़ा वर्ग मयूरभंज समुदाय का है। सामाजिक दृष्टि से इन्हें निम्न स्तर का नहीं समझा जाता। इनका संबंध पाइक जाति से है और ये संभवतया मयूरभंज की राजसेना में थे।
दूसरी ओर, सरायकेला के नर्तक क्षत्रिय जाति के हैं और यहां इस कलारूप को न केवल राजवंश का प्रश्रय प्राप्त था अपितु राजवंश के सदस्य स्वयं इस कलारूप के शिक्षक, कलाकार और मुखावरण के निर्माता भी रहे हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि समान प्रकृति की कलात्मक अभिव्यक्ति समाज के सभी वर्गों में समान रूप से प्राह्य रही है और वह किसी विशेष सामाजिक या आर्थिक वर्ग तक सीमित नहीं है ।
सरायकेला छऊ और मयूरभंज छऊ में अनेक पारस्परिक संपर्क बिंदु मिलेंगे, विशेषकर शिल्प संगीत और वेशभूषा के क्षेत्रों में । परंतु मयूरभंज छऊ में मुखौटे का उपयोग नहीं होता जब कि पुरुलिया और सरायकेला में समान रूप से उनका व्यवहार होता है । पुरुलिया और मयूरभंज छऊ में महाकाव्यात्मक वर्णन पद्धति मिलती है, किंतु सरायकेला छऊ में यह नहीं है । सरायकेला छऊ में एक रचना आठ-दस मिनट से अधिक नहीं होती । वेशभूषा भी इसी प्रकार समय के अनेक अंगों का एक आश्चर्यजनक और मोहक चित्र प्रस्तुत करती है।