जिस समय बुंदेलखंड में अंगरेजों ने अपना राज्य जमाया उस समय सारे भारत में गड़बड़ मची हुई थी। विक्रम-संवत् 1864 में लार्ड मिटो कंपनी की सरकार के गवर्नर हुए। उस समय Peshwai Ka Ant Aur Angrejo Ka Rajya आरंभ हो रहा था। इस समय राजपूताने के राजा लोग भी आपस में लड़ रहे थे।
उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के कारण जयपुर और जोधपुर के राजाओं मे युद्ध हो गया। जब उदयपुर की राजकुमारी ने विष खाकर आत्महत्या कर ली तब वह युद्ध बंद हुआ। पिंडारे लोग मालवा, बुंदेलखंड और राजपूताने मे अपने दौरे कर रहे थे। सिर्फ पंजाब मे ही इस समय महाराज रणजीतसिंह के कारण शांति थी। अँगरेज लोगों ने भी रणजीतसिंह से सुलह कर ली थी।
इसी समय मराठों और अंग्रेजों से युद्ध हुआ। |बाजीराव पेशवा, सिंधिया और होल्कर अंग्रेजों को रोकने का प्रयन्न कर रहे थे। अंग्रेजों के गवर्नर लार्ड मिंटो के चले जाने पर लार्ड हेस्टिग्ज गवर्नर हुए । इन्होंने मराठों से विक्रम-संवत् 1874 मे दूसरी संधि की। इस संधि के अनुसार बुन्देलखण्ड के मराठे अंग्रेजों के अधीन हो गए और उनका संबंध पेशवा दरबार से जाता रहा। यह संधि मराठों की ओर से नाना गोविंदराव ने की ।
इस संधि के थोड़े ही दिनों के पश्चात् मराठों और अंग्रेजों में फिर लड़ाई हो गई। उपयुक्त संधि के अनुसार पूना के पेशवा अंग्रेजों के अधीन हो गए और बुंदेलखंड पर पेशवा दरबार का कोई अधिकार न रहा। इसलिये पेशवा बाजीराव ने फिर अंग्रेजों से स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया।
पूना में जो अंग्रेजों का रेजिडेंट रहता था उसे बाजीराव के इरादों का पता चल गया और वह पूना से भागकर किरकी पहुँचा। वहाँ पर भी पेशवा ने उस पर आक्रमण किया परंतु रेजिडेंट को अंग्रेजों से सहायता मिल जाने के कारण उसने पेशवा को हरा दिया। पेशवा को भागना पड़ा और अंग्रेजी सेना ने पेशवा का पीछा किया।
पेशवा फिर बंदी कर लिया गया। नागपुर के भोंसले ने भी सीताबर्डी में अंग्रेजों पर आक्रमण किया परंतु भोंसले भी हार गए। होल्कर ने भी इसी प्रकार प्रयन्न किया परंतु होल्कर भी हार गए। इस युद्ध के पश्चात बाजीराव पेशवा के सब प्रदेश विक्रम-संवत् 1875 में अंग्रेजों ने अपने अधिकार में कर लिए।
बाजीराव कानपुर के पास बिठूर में रहने लगे और उन्हें अंग्रेज सरकार की ओर से 8 लाख रुपए वार्षिक पेंशन मिलने लगी। मराठों को हराकर इस प्रकार अंग्रेज सारे भारत मे सबसे अधिक बलशाली हो गए। बुंदेलखण्ड का बॉदे (बांदा ) के समीप उत्तरीय भाग के उनके राज्य में आ गया था और शेष भाग के राजाओं ने अंग्रेजों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था पर जिन राजाओं से पहले संधियाँ नही हुई थीं उनसे भी अरब संधियाँ कर ली गई और, इन संधियों के अनुसार, उन सब राजाओं ने अँगरेजों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
जालौन में नाना साहब के साथ जब अंग्रेजों ने संधि की उसी समय पेशवा का सब राज्य अंग्रेजों ने ले लिया और पेशवा बिठूर में रहे। इस समय सागर विनायकराव चाँदोरकर के अधिकार में था। विनायकराव अपना राज्य स्वतंत्र रीति से चलाते थे और जालौन के नाना साहब से कोई संबंध नही रखते थे।
इस करण जलौन की संधि का सागर से कोई संबंध न था । विनायक राव ने भूँसले को सहायता दी थी और कुछ पिंडारे लोगों को भी सहायता दी थी। इस कारण अंग्रेज सरकार ने विनायकराव का सब प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। इससे विनायकराव सूबेदार को अंग्रेज सरकार की ओर से 2 लाख रुपए वार्षिक पेंशन के मिलने लगे।
रुकमाबाई ने बलवंत राव उफ बाबा साहब के गोद तो ले लिया था । इस कारण रुकमाबाई के पश्चात् ये बलवंतराव ही राज्य के अधिकारी होते। परंतु यह प्रांत अंग्रेजों के अधिकार में आ जाने के कारण बलवंतराव को पाँच हजार रुपए साल की पेंशन दी गईं। झांसी में रघुनाथ हरी के मर जाने पर उनके भाई शिवराव भाऊ सूबेदार हुए थे।
शिवराव भाऊ के मरने पर उनके अल्पवयस्क पुत्र रामचंद्रराव सूबेदार हुए। रामचंद्रराव के समय उनकी माता सखूबाई राज-काज देखती थीं परंतु उन्होंने एक बार अपने पुत्र को ही मरवा डालने का प्रयत्न किया। इस कारण सखूबाई कैद कर ली गई और रामचंद्रराव स्वतंत्रता पूर्वक सूवेदारी करने लगे।
जब पेशवा का राज्य अंग्रेजों ने ले लिया तब झांसी मे रामचंद्रराव ही सूबेदार थे। अंग्रेजों और झांसी राज्य से सीपरी की छावनी में संधि हुई थी। इस संधि-पत्र के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने झांसी का राज-वंश परंपरा के लिये रामचंद्र राव को दिया। यह संधि विक्रम-संवत् 1874 में हुई थी। विक्रम-संवत् 1875 में पेशवा की दूसरी संधि होने के समय झांसी रामचंद्रराव के अधिकार में था और नाना गोविदराव जालौन तथा गुरसराय के अधिकारी थे।
सागर जिले का धामौनी परगना भोंसलों के अधिकार में था। यह परगना अंग्रेजों ने भोंसलों से विक्रम-संवत् 1875 ( सन् 1818 ) की संधि के समय ले लिया। गढ़ाकोटा , मालथोंन , देवरी, गौर, झामर और नाहरमऊ सिंधिया को अर्जुन सिंह ने दिए थे। विक्रम-संवत् 1875 में ये सिंधिया के अधिकार में ही थे पर संवत् 1878 में ये परगने सिंधिया ने अंग्रेजों को प्रबंध के लिये सौंप दिए थे। दमोह अंग्रेजों के अधिकार में सागर के साथ ही आ गया था।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)