साहित्य के इस मौन साधक Ramnath Gupt ‘Haridev’ का जन्म हरपालपुर निवासी श्री गजाधर लाल गुप्त के घर 3 जनवरी 1909 को हुआ था। यद्यपि पिता व्यापारी थे किन्तु काव्य-सृजन का गुण वंशानुक्रम से इनके यहाँ चला आ रहा था, फलतः हरिदेव जी को भी बीज रूप में प्राप्त हुआ। आपने काव्य-दीक्षा भगवद्भक्त भी बिन्दु जी से ली थी। छतरपुर में आपका विवाह तुलसी बाई से हुआ जिनसे आपके घर एक पुत्र और दो पुत्रियों ने जन्म लिया।
‘काव्य भूषण’ श्री रामनाथ गुप्प्त ‘हरिदेव’
श्री रामनाथ गुप्प्त ‘हरिदेव’ ने हाई स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद आपने शासकीय सेवा में पदार्पण किया। सन् 1944 से 1948 तक आप मजिस्ट्रेट के रीडर रहे किन्तु, स्वतंत्र प्रकृति का व्यक्तित्व भला समय-सीमाओं में बंधकर कहाँ रह सकता है ? अतः उन्हें राज्य सेवा त्यागनी पड़ी। तत्पश्चात् व्यवसाय की ओर उन्मुख हुए किन्तु काव्य-सृजन की लगन ने उन्हें और कहीं उलझने नहीं दिया। बस, काव्य ही उनका जीवन था।
युवावस्था में तो उनकी सक्रियता देखते ही बनती थी; काव्य-गोष्ठियों की सूची खुद ही घुमाना और फर्स बिछवाने से लेकर सारी व्यवस्था अपने हाथ में लिये रहना- इन कार्यक्रमों की जैसे वे धुरी थे। सारा जीवन काव्य के लिए समर्पित कर दिया था हरिदेव जी को म.प्र. शासन ने इस वयोवृद्ध साहित्यकार को सम्मानार्थ सौ रुपये प्रतिमाह आर्थिक सहायता प्रदान की थी। यह सहायता रुपये 200/- में परिणित होकर उनके जीवन की अंतिम घड़ियों तक चलती रहीं।
मंचीय हलचल से दूर एकान्त में बैठकर हरिदेव जी ने साहित्य-सृजन किया। पारिवारिक कारणवश जब वह हरपालपुर छोड़कर छतरपुर आ गये तो उन्हें यहाँ अच्छा साहित्यिक वातावरण मिला। बुन्देलखण्ड में उन दिनों प्रचलित फड़बाजी अर्थात् साहित्यिक प्रतिद्वन्द्विताओं का छतरपुर में भी पर्याप्त प्रभाव था। साहित्यिक दृष्टि से छतरपुर में दो दल प्रमुख थे – पं. गंगाधर व्यास दल और पंरमानन्द पाण्डे दल। हरिदेव जी व्यास दल से सम्बद्ध हो गये और इस दल के प्रमुख पं. राजाराम शुक्ल ‘रत्नेश’, रामदास दर्जी और नत्थू रंगरेज की प्रेरणा से ‘सैर’ रचना करने लगे।
अतः साहित्यिक प्रतिस्पर्धा के कारण भी बहुत कुछ लिखा। वृद्धावस्था के दिनों में भी लिखने और सुनाने-सुनने का शौक बराबर बना रहा। हरिदेव जी ने खड़ी बोली और बुन्देली में रचनायें लिखीं है। साहित्य में प्रचलित बृजभाषा में भी उनकी रचनायें हैं किन्तु वे स्वयं भी उसे बुन्देली कहा करते थे। उनकी रचनायें इस प्रकार हैं।
1 – प्रबन्ध काव्य – दुर्गावती
2 – मुक्तक काव्य – करवाल किरण, बुन्देलखण्ड बावनी, रस बिन्दु, राष्ट्र पताका
3 – काव्य संग्रह – मन के मीत, सैर-सौरभ
इसके अतिरिक्त बहुत सी स्फुट रचनायें हैं जिनमें कुछ सुकवि, राष्ट्रधर्म, तुलसीदल आदि में प्रकाशित हुई हैं। ‘करवाल किरण’ विन्ध्य प्रदेश शासन द्वारा सन् 1953 में पुरस्कृत की गई थी। अनूठी काव्य प्रतिभा के लिए आपको उपाधि तथा पुरस्कारों से अनेक बार सम्मानित किया गया।
सर्वप्रथम सन् 1946 में अयोध्या से आपको ‘काव्य भूषण’ की उपाधि प्राप्त हुई। सन् 1947 में तुलसी समिति हरपालपुर ने ‘स्वर्ण पदक’ एवं सन् 1949 ई. में नारायण मण्डल, हरपालपुर ने ‘रजत पदक’ से आभूषित कर सम्मानित किया। सन् 1953 ई. में विन्ध्य प्रदेश शासन ने आपके मुक्तक काव्य ‘करवाल किरण’ को पुरस्कृत कर आपको प्रान्तीय सम्मान से विभूषित किया।
चौड़ियाँ
रोजउँ दोरे हो कड़ जातीं, घूँघट में मुस्कातीं।
मुर मुर तकत तिरीछे नैनन सैनन तीर चलातीं।
जानी जात नहीं अन्तस की मुख सें कछू न कातीं।
दुबिधा छोड़ एक रंग राखौ रहौ न सीरीं तातीं।
सुन्दरी नित्य ही घूँघट में मुस्कराते हुए यहाँ से निकल जाती हैं। तिरछे नेत्रों से मुड़-मुड़कर देखती हैं, संकेतों के बाणों से प्रहार भी करती हैं। हृदय की बात तो समझ में आती नहीं है और मुख से कुछ बोलती नहीं है। नायक आग्रह करता है कि चित्त की अस्थिरता छोड़कर एक भाव बना लो, कभी ठंडी कभी गर्म अर्थात् क्रोध से रुष्ट हो जाना, कभी नेह से प्रसन्न हो जाना छोड़ दो।
गोरी की चन्दा सी मुइयां, बनै देखतन गुँइयाँ।
गालन ऊपर मुस्कातन में, पर पर जातीं कुँइयाँ।
मधुर महीन सरस बानी लौं जैसैं बोलै टुँइयाँ।
तकत तिरीछी लगत बान सी, ऊसई भौंह धनुइँयाँ।
कवि ‘हरिदेव’ उरज लड़ुवन पै मानौ धरीं मकुइयाँ।।
सुन्दरी का मुँह चन्द्रमा के समान है इसे देखते ही बनता है अर्थात् इसकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। यह बहुत मन्द रूप में हँसती है तो गालों के ऊपर गोल छोटे कूप की तरह गड्ढे बन जाते जो सौन्दर्य को और बढ़ा देते हैं। माधुर्य और कोमलता से पूर्ण पतली-सी वाणी में उसका बोलना ऐसा लगता है जैसे टुइयां (छोटी जाति का सुग्गा) बोल रही हो। उनका तिरछा देखना (कनखियों से देखना) बाज की तरह प्रभावी होता है। इसमें उनकी भौहें धनुष की तरह सहयोगी बन जाती हैं। कवि हरिदेव कहते हैं कि उनके पुष्ट स्तन ऐसे लगते हैं जैसे लड्डुओं पर मकुइयां का फल रखा हो।
गणेश वंना
जाकौ नाम लेत बैरी विघन बिलाय जात,
आय जात तोष हिय, हरन कलेश कौ।
ऋषि सिद्धि वारौ बुद्धि वारौ त्यों प्रसिद्धि बारौ,
सकल समृद्धि वारौ सहज सुदेश कौ।।
राज मुख वारौ वर अस्त्र-शस्त्र वारौ धीर,
शौर्य चन्द्र वारौ ‘हरिदेव’ वीर वेष कौ।
हम तौ बुन्देलखण्ड विरद बखानो तौऊ,
सब कोउ कहै गौरी सुवन गणेश कौ।।
जिसका नाम स्मरण करते ही विघ्न रूपी शत्रु नष्ट हो जाते हैं। हृदय में संतुष्टि होती है। वे कष्ट को दूर करने वाले हैं उनकी ऐसी ख्याति है कि वे ऋद्धि-सिद्धि और बुद्धि के स्वामी है। वे सभी प्रकार के ऐश्वर्य के स्वामी और उपयुक्त स्थान उन्हें सहज ही में
प्राप्त हैं। हाथी के मुख वाले और अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले हैं। वीरत्व की मूर्ति और शौर्यवान गणेश जी के सिर पर चन्द्रमा सुशोभित है। कवि कहता है कि मैंने तो बुन्देलखण्ड के यश का गान किया है जबकि सभी लोग इसे गौरी पुत्र गणेश जी की वंदना मानते हैं।
विन्ध्य की धना
माथें शीश फूल सोहैं कानन करन फूल
अंबर अतूल सुख मूल रंगना के हैं।
कवि ‘हरिदेव’ कंठ लल्लरी विचौली हरा,
भुजन बजुल्ला बरा कर ककना के हैं।
छीन कटि कर्धनी नितंबन सँवारी छवि,
गति मतवारी कुच कुंभ ऊ घना के हैं।
विन्ध्य की धना के पग परत हनाके पारैं
लोकन सनाके जे झनाके पैजना के हैं।।
बुन्देली नायिका के श्रृँगार वर्णन में आभूषणों का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि नायिका के माथे पर शीशफूल (माथे का आभूषण) और कानों में कर्णफूल (कानों का आभूषण) शोभा पा रहे हैं। वस्त्र अनुपम सुखकारी और नेह में बांधने वाला है। कवि हरिदेव कहते हैं कि गले में लल्लरी और बिचौली, भुजाओं में बजुल्ला और बना तथा हाथों में ककना शोभायमान है।
पतली कमर में करधनी (कमर में पहिनने का लड़ीदार सूत) नितंग के ऊपर सुशोभित है। चाल में उन्मत्तता और स्तन कलश के समान पुष्ट हैं विन्ध्य भूमि की इस नायिका के धीरे से भी यदि धरती पर पग पड़ते हैं तो पैजना की झनझनाहट से खलबली मच जाती है।
मिलि नर नारी सब करकैं बियारी बैठे,
आन के अथारी झांझ ढुलक समारी है।
फाग बिलवारी राई रावला दिवारी सैर,
आला आदि गाबैं औ मनावैं मोद भारी है।।
भूषन बसन साजै घुंघरू पगन बाजै,
शीत कर रैन रागै नाचै नचनारी है।।
कवि ‘हरिदेव’ या बुन्देलखण्ड वैभव पै,
इन्द्रपुरी सारी कोटि कोटि बलिहारी है।।
सभी पुरुष और स्त्रियाँ रात्रि का भोजन करके अथाई पर आकर बैठ जाते हैं फिर झांझें और ढोलक (एक प्रकार के वाद्य) बजाने वाले आकर अपने-अपने वाद्य सम्हाल लेते हैं। यहाँ समय-समय पर फाग, बिलवारी, राई, रावला, दिवारी, सैर और आल्हा आदि गाये जाते हैं। आभूषण और सुन्दर वस्त्र तथा पैरों में ‘घुँघरू’ सजाकर रात्रि की ठंडक में नर्तकी नृत्य करती हैं। कवि हरिदेव कहते हैं कि बुन्देलखण्ड के वैभव को देखकर करोड़ों इन्द्रपुरी निछावर होती है।
युगल चरण वंदना
जौ लों भव्य भूतल पै व्योम कौ वितान रहै,
जौ लों व्योम बीच चारु चन्द्रमा करै विलास।
जौ लों चारु चन्द्रमा में षोड़स कला हैं, जौलें,
षोड़स कला में राजै छवि को ललित हास।।
जौ लों हास मध्य ‘हरिदेव’ शीतलाई शुचि,
जौ लों शीतलाई कल कुमुद करै विकास।
तौ लों भय भंजन श्री राधिका-गुपाल जू के,
चरन सरोजन कौ हिय में रहै निवास।।
(उपर्युक्त छंद सौजन्य से : श्री प्रवीण गुप्त)
विशाल धरती के ऊपर जब तक आकाश का विस्तार रहे, आकाश के बीच जब तक चन्द्रमा सुख-भोग करे, जब चन्द्रमा में सोलह कलायें विद्यमान रहें, इन सोलह कलाओं में जब तक शोभा की मनोहर मुस्कान सुशोभित होती रहे, इस मुस्कान के बीच पवित्र शीतलता बनी रहे और इसी शीतलता के साथ जब तक कोमल कमल विकसित होता रहे तब तक कवि हरिदेव कहते हैं कि भय को समाप्त करने वाले राधा-कृष्ण के चरण कमलों का मेरे हृदय निवास बना रहे।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)