आचार्य पं. श्री दुर्गाचरण शुक्ल Durgacharan Shukla का जन्म बुन्देलखण्ड की पावन धरा पर स्थित ग्राम विरगुआ (बुजुर्ग) जिला जालौन (उ.प्र.) में सन् 6 नवम्बर 1929 (सम्वत् 1986) में करवाचौथ को ग्राम बिरगुवॉं बुजुर्ग, तहसील-कोच, जिला-जालौन (उत्तर प्रदेश ) में हुआ। चार वर्ष की बाल्यावस्था मे पितृछाया से वंचित होने के बाद अपनी ताई एवं मॉं के कठोर अनुशासन में अपने अग्रज पं कृष्णलाल शास्त्री के निर्देशन में सर्वांगीण विकास किया।
आपके पिता पं. श्री मन्नूलाल संस्कृत के महान ज्ञाता, श्रीमद् भागवत कथाकार थे। आपकी माता श्रीमती पार्वती देवी माँ शक्ति की उपासक भगवती शारदा की अनन्य भक्त थी। देव तुल्य माता-पिता के आप द्वितीय पुत्र रत्न है। आपके अग्रज पं. कृष्णा लाल शास्त्री है आपकी धर्मपत्नि श्रीमती क्रांति शुक्ला ममतामयी एवं उदार हृदय वात्सल्य प्रेम की प्रतिमा थी।
शिक्षा-दीक्षा – बहुमुखी प्रतिभा के धनी और भाषा पर सबल अधिकार के कारण आचार्य शुक्ल जी साहित्य, धर्म, दर्शन, गणित, विज्ञान, बाल मनोविज्ञान, यंत्र-तंत्र एवं वास्तु शास्त्र साथ भारतीय वाडमय के अधिकांश क्षेत्रों में अध्ययन किया है। आचार्य जी ने विद्यालयीन शिक्षा प्राप्त कर उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु शा. डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर आ गये और शा. डी.ए.वी. कॉलेज से बी.एस.सी. की उपाधि प्राप्त की आपने स्नातकोत्तर संस्कृत, साहित्य में किया आपने एम.एड. साहित्य रत्न साहित्य आचार्य की उपाधि प्राप्त की आपके गुरू पीताम्बर पीठाधीश्वर राष्ट्र गुरू परमपूज्य स्वामी जी से आपने भारतीय साहित्य, संस्कृति, अध्यात्म एवं दर्शन तथा जीवन के परम ज्ञान एवं परम सत्य की शिक्षा प्राप्त की ।
जीवन-दर्शन- आपने आजीविका के साधन के रूप में मानव जीवन का सर्वोच्च पद एवं समाज सुधार, जन हितेशी, परोपकार का पद चयन किया। शिक्षक पद पर आपकी प्रथम नियुक्ति सन् 1955 में विन्ध्यप्रदेश शासन के शा. उच्चतर माध्यमिक उन्नाव (वालाजी) दतिया में हुई ।
शिक्षा में गुणात्मक सुधार करते हुये आप 6 नबम्बर 1990 को आप प्राचार्य स्कूल शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त हुये । आप शासकीय सेवानिवृत्त हुए परन्तु साहित्य सृजन, ज्ञान का दान, वेद-वेदान्त का अध्ययन, अध्यापन पत्रिकाओं का प्रकाशन, पुस्तको का लेखन, शोधार्थी छात्रों का मार्गदर्शन, लोक भाषा के ज्ञान का प्रकाश चारो ओर आज भी विकण कर समाज को नई दिशा प्रदान कर रहे है।
आचार्य पं. दुर्गाचरण शुक्ल रचित पुस्तकें
महर्षि अगस्त दृष्ट मंत्र भाष्य
बुन्देली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश
ऋषि हयग्रीव कृत शाक्त दर्शनम्
अगस्त कृत शक्ति सूत्रम्
बुन्देली भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन
ललित निबंध संग्रह
महर्षि अगस्त कुल के ऋषियों के मंत्रो का भाष्य ब्रहावादिनी
महादेव
चतुर्दश विद्यायें और चौसठ कलायें: अन्तर्सम्बन्ध पत्र-पत्रिकायें-
ओरछा टाइम्स साप्ताहिक पत्रिका में लेख प्रकाशित हुये
कल्याण
पंचेष्वर
तृणगन्धा
समाचार पत्र
जागरण दैनिक समाचार में प्रकाशित
अनुरूपी लेखक / संयुक्त लेखक
मध्य प्रदेश संदेश में प्रकाशित
आकाशवाणी केन्द्रो के माध्यम से विभिन्न विषयों पर विचारो को प्रक्षेपित करते रहे।
वेद अध्ययन, वैदिक शोध तथा उत्तर भारत के प्रमुख शहरों में वैदिक गणित के प्रोफेसर के. नरेन्द्रपुरी के साथ व्याख्यान और प्रशीक्षण कार्य
पुरूस्कार एवं सम्मान-
महर्षि अगस्त्य अलंकरण 2014
संस्कृतज्ञ सम्मान 2015
स्वामी विष्णुतीर्थ आध्यात्मिक ग्रंथ सम्मान 2016
तुलसी मानस प्रतिष्ठान भोपाल 2019 से सम्मानित
साहित्य अकादमी भाषा सम्मान (भारत सरकार )
आचार्य शुक्ल जी के साहित्य में लोक और वेद
लोक साहित्य- लोक अर्थात् जन सामान्य और साहित्य अर्थात् उस जन सामान्य के भावनाओं की अभिव्यक्ति । लोक साहित्य किसी भी समाज वर्ग या समूह के सामूहिक जीवन का दर्पण होता है। इसमें सामूहिक चेतना, अनुभवों, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति रहती है।
किसी भी समाज का इतिहास और संस्कृति लोक साहित्य में उपलब्ध होती है। लोक साहित्य का अभिप्राय उस साहित्य से है जिसकी रचना लोक कर्ता है लोक साहित्य उतना ही प्राचीन है जितना की मानव, इसलिए उसमें सम्पूर्ण जन-जीवन अवस्था, प्रत्येक समय प्रकृति सभी समाहित है।
बुन्देली शब्दो का व्युत्पत्ति कोश आचार्य पं. दुर्गाचरण शुक्ल द्वारा प्रणीत बुन्देली शब्दो का व्युत्पत्ति कोश वृहदाकार ग्रंथ है। जिसके 485 पृष्टो में 1500 बुन्देली शब्दो को संजोया गया है।
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