Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारRam Narayan shrivastava ‘Shyam’ राम नारायण श्रीवास्तव ‘श्याम’

Ram Narayan shrivastava ‘Shyam’ राम नारायण श्रीवास्तव ‘श्याम’

Ram Narayan shrivastava ‘Shyam’ का जन्म ललितपुर जिले की तहसील महरौनी के ग्राम बछरई में 1 जुलाई सन् 1925 को हुआ था। इनके पिता जी का नाम श्री भगवान दास श्रीवास्तव माता जी का नाम श्रीमती नन्नी दुलैया था। श्री रामनारायण श्रीवास्तव ‘श्याम’ ने हिन्दी-उर्दू मिडिल पास करके बाद में हाई स्कूल उत्तीर्ण किया।

इसके बाद साहित्य मार्तण्ड की उपाधि अर्जित की। इनकी रुचि बाल्यावस्था से ही साहित्य व धर्म के प्रति रही। इन्होंने श्याम मुक्तावली’, ‘बुन्देली शब्द-संग्रह’, ‘गीता गायन’, ‘मानस मर्म टीका’, ‘गीता गरिमा’, ‘गुन्चये गजल’ तथा श्याम सुधारस’ ग्रंथों का प्रकाशन किया है। जिसमें अन्तिम दो प्रकाशित हैं। शेष अप्रकाशित हैं।

बैठीं सुगर सिंगार सज रई, बाँकी बनक बनै रईं।

सिरके बार समार सलौने, इतर फुलेल लगै रईं।
माथें बीज मांग में सेंदुर, टिकली डोर बँधै रईं।

दै आड़िया लाल बिन्दी सँग दोउ भोंह मिलै लइंर्।
नजर नें लगै लगायँ डठूला कौड़ीलै सरमैं रई।

सुघड़ नायिका श्रृँगार करके अपने आपको सजा रही है। सुगंधित तेल-लगाकर के सिर बालों की सज्जा कर रही है। माथे पर बिंदी तथा माँग (बालों के बीच) में सिन्दूर लगा लिया है। माथे पर बिंदी के नीचे एक आड़ी बिंदी लगा ली है जिससे दोनों भौंहें मिल गई है। कुदृष्टि से बचाने हेतु काजल का डिठूला (वक्राकार चिन्ह) लगाकर स्वयं अपना सौन्दर्य देखकर शरमा (लज्जित) गई है।

सपरत सुरत होत पठला की, मंदिर सड़क सुहावै।

पले पुसे खेले जी घर में, कारे कोस लखाबै।
सुध आ जात हरे खेतन की, हिलकी भर रो आवै।

छूटे गांव ठाँव पुरवारे, कोउ नें आन बुलावै।
रै वै कितउँश्याम’ मन नित्तउँ जा जा मई मड़रावै।

कवि को स्नान करते हुए अपने बाल्यावस्था की स्मृति हो आती है। वह कहता है कि बचपन में पठला (पत्थर पर प्रवाहित नीर का झरना) पर नहाते थे। वहाँ से जो सुंदर सड़क मंदिर जाती थी उसकी याद आती है। उस घर की याद आती है जहाँ हमारा पालन पोषण हुआ। घर से दूर तक की प्राकृतिक सुषमा हम देख सकते थे। हरे-भरे खेतों की याद आने पर रोना आ जाता है। वे ग्रामवासी छूट गए हैं। अब यहाँ कोई बुलाने वाला नहीं है। श्याम कहते हैं कि मैं कहीं भी रहूँ किन्तु मेरा मन बार-बार वहीं पहुँचता है।

झूठे जग की झूठी बातें, इनमें ने भरमा तें।
जे सब सम्बन्धी स्वारथ के, नातौ अमर बनातें।

मनसा देई पाई जतनन सें, विरथां रऔ गमातें।
बिगरीश्याम’ बनत है जिनसें, उनसें लगन लगातें।

इस मिथ्या संसार की मिथ्या बातों में तू मत भ्रमित हो। ये सभी सगे सम्बन्धी स्वार्थ हेतु सम्बन्ध बनाते हैं। तूने मनुष्य का शरीर बड़े प्रयत्नों से प्राप्त किया है, इसे तू व्यर्थ में मत खो दे। कवि श्याम कहते हैं कि जो बिगड़ी हुई बात को बनाते हैं, उनसे तू नेह जोड़।

सबसें नै कें चलवौ नोनों, लख हौनों अन हौनों।
पर धन-हरत करत पर पीरा, कर रऔ ठगा ठगौनों।

लोक और परलोक बिगर जैय, फिर रै जानें रौनों।
भज हरिश्याम’ काम कर जग में, सौ नौनें कौ नौनों।

सबसे अच्छा झुककर चलना होता है अर्थात् लाभ-हानि को देखते हुए तू विनम्रता से जीवन जी। तू दूसरे के धन का अपहरण करके ठगी करता है जिससे लोगों को पीड़ा पहुँचती है। इससे लोक और परलोक दोनों में गति बिगड़ जाएगी और तू अलोना (स्वादहीन) रह जाएगा। कवि श्याम कहते हैं कि इस संसार में सर्वाधिक सुन्दर हरि का नाम है जिसे तू ले।

काये ई जग में भरमानों, जानत बनों अजानों।
छीजत वैस सूख रऔ विरछा, बिन दिन सार सुकानों।

झोंका लगत गिरै धरनी पै, छूटै ठिया ठिकानों।
कोरऔ अमर आन धरती पै, बिरथाँ गरब गुमानों।

तू क्यों इस संसार में जानते हुए अनजाना बनकर भ्रमित हो रहा है। उम्र के घटने से जीवन वृक्ष सूख रहा है जिसका सार निरन्तर शुष्क हो रहा है। जिससे काल रूपी हवा का झोंका लगते ही यह धरती पर गिरकर नष्ट हो जाएगा तथा उसका स्थल छूट जाएगा। इस धरा पर किसे अमरता मिली है? तू व्यर्थ में क्यों घमण्ड करता है?

ई माटी कौ मोल नें जानें, माटी मोल बिकाने।
माटी करत ऊजरौ वासन, ऊ विन मैले रानें।

माटी सें माटी कड़ जैऐ, माटी डरी दिखानें।
जब जब होत व्याव हम देखे, पैलऊँ भए मटयानें।

मिट्टी की उपयोगिता बताते हुए कवि कहता है कि यह मिट्टी अनमोल है, इसका मूल्य तू नहीं जानता है। मिट्टी ही बर्तनों को उज्जवलता प्रदान करती है उसके बिना गंदगी दूर नहीं हो सकती। यदि मिट्टी से मिट्टी निकल जाएगी तो इस शरीर को भी मिट्टी में पड़ा दिखना है। जब कभी भी विवाह जैसा शुभ संस्कार भी होता है तो उसमें भी पहले मटयाना (मिट्टी खोदकर लाना) का संस्कार सम्पन्न होता है।

दिन बीत गऔ, रै गऔ थोरौ, नातौ प्रीतम सें जोरौ।

तीन प्रहर दिन बातन बीते, छरछरात चौथौ छोरौ।
साँझें आयें लिवउवा पिउके, करलै जैएँ बरजोरौ।

धर लौ ध्यान अमर चरनन कौ, ई घर की ममता टोरौ।
रँग लौ ‘‘श्याम’’ रामरँग चोखौ, जीरन बसन चलो कोरौ।

दिवस व्यतीत हो चुका है थोड़ा सा शेष रह गया है। अब प्रीतम (ईश्वर) से तू रिश्ता जोड़ ले। दिन के तीन प्रहर (जीवन की तीन अवस्थायें – बालपन, जवानी तथा प्रौढ़) बीत गये हैं और चौथा क्रमशः जल्दी बीतने वाला है। संध्या होते ही प्रियतम के लिवाने वाले आ जाएंगे और तुझे जबरदस्ती ले भी जाएंगे। अतः इस गृह से ममत्व समाप्त करके अमर चरणों का ध्यान कर। कवि श्याम कहते हैं कि रामरंग ही खरा है उसमें ही अपना कोरा वस्त्र रंग ले।

चेतावनी (गारी)

अपनों अपनों तौलों जू, नई भऔ जौलों गौनों जू।
जौ दिन जौ पंछी उड़ जैयै, धरनी ढाँचौ डरौ दिखैयै।

बांस कांस पै सो उत जैये, छूट जैये जे अटा अटारी।
बीच मसानें सौनों जू नई भओ जौलों गौनों जू।।

नारी देरी लौ पौचै यै, बेटा अगिनि दानकर दैय
पुरजन पंचलकड़ी दै दैये, नोनें बुरये करम सब जानें।

लेखौ जोखौ होनौं जू, नई भओ जौलौ गौनों जू।।
पाप कपट कर माया जोरी, धन पराये से भरी तिजोरी।

दया धरम तज बनों करोरी, एक टका सिरहाने जानें।
छूटै चाँदी सोनों जू नई भओ जोलों गौनों जू।।

लख चौरा सी भरमत आऔ जौ नरतन जतनन सें पाऔ।
नौनौ औसर श्याम गमाऔ, तीन छोर बातन में बीते।

बीतत चौथौ कोनो जू नई भऔ जौलों गौनों जू।।
अबलों माया मोह ने टोरौ, झूठे जग सें नातौ जोरौ।

जान जान कें बनरऔ भोरौ, अजहू चेत बनालै।
बिगरी, सूकौ जात सुकौनों जू, नई भऔ जौलों गौनों जू।।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी)

हमारा-तुम्हारा रिश्ता तभी तक है जब तक गौना (ससुराल गमन) नहीं हुआ है। जिस दिन भी यह जीव रूपी पंछी शरीर रूपी घर से उड़ जाएगा उसी दिन यह ढाँचा गिर जाएगा। इसको बाँस और काँस से निर्मित ठटरी (शव को ढोने हेतु बनाये जाने वाला ढाँचा) पर रख दिया जाएगा और ये अटा, अटारी छूट जाएंगे। इसके बाद श्मशान में जाकर ही शयन करना है।

पत्नी मात्र दरवाजे की देहरी तक जाकर विदा कर देगी तथा पुत्र अग्नि को दान कर देगा। नगरवासी पंच लकड़ियों के माध्यम से उसे जला देंगे। अच्छे और बुरे सभी कर्म चले जाएंगे। इनका लेखा-जोखा (हिसाब) भी वहीं होगा। छल, प्रपंच तथा पाप से दूसरों के हिस्से का धन एकत्र कर उसे तिजोरी में भर लिया। दया तथा धर्म को त्यागकर तू करोड़पति बन गया किन्तु साथ में सिरहाने एक टका (मुद्रा की लघुत्तम इकाई) ही रखा जाएगा। सभी चाँदी व सोना यहीं छूट जाएगा। चौरासी यौनियों में भ्रमण के उपरान्त तूने यह नर तन प्राप्त किया है।

यह सुअवसर तूने गँवा दिया है और तीन अवस्थायें व्यर्थ की बातों में खो दी हैं। अब चौथी व अंतिम अवस्था भी बीती जा रही है। तूने अभी तक माया से मोह नहीं तोड़ा है और इस मिथ्या जगत् से रिश्ता जोड़कर बैठा है। तू जानते हुए भी अनजान बन रहा है, अभी भी समय है तू चेत जा। बिगड़ी हुई बात बन जाएगी अन्यथा तेरे सुकर्मों सूखे जाते हैं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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