छतरपुर में व्यास मंडल के प्रमुख कवि पं. श्री राजा राम शुक्ल जी फाग-सैरों के साथ-साथ कवित्त, घनाक्षरी, सवैया आदि की रचनाओं द्वारा साहित्य की प्राचीन परम्परा को जीवित रखने वाले अनूठे कवि के रूप में जाने जाते हैं। Pandit Raja Ram Shukala का जन्म भाद्रपद शुक्ल सप्तमी संवत् 1955 को छतरपुर (म.प्र.) में हुआ था। प्रतिष्ठित सनाढ्य कुल में जन्में राजाराम शुक्ल की शिक्षा घर पर ही हुई।
सहज, सरल और सहृदय कवि पं. श्री राजा राम शुक्ल
लोहे का व्यवसाय पं. श्री राजा राम शुक्ल जी के जीवन-यापन का साधन था। संघर्ष भरे न्यायप्रिय कर्मठ जीवन के द्वारा उन्होंने समाज में प्रतिष्ठा पाई। समाज के पंच अथवा मुखिया के रूप में उन्हें विशेष रूप से जाना गया। सामाजिक समस्याओं अथवा व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने में वे नगर के अग्रगण्य महाजन के रूप में प्रतिष्ठित थे।
Pandit Raja Ram Shukala की चेहरे की गम्भीरता, लम्बा इकहरा शरीर, गेहुँआ रंग और साधारण धोती-कुरता का पहनावा ही उनके व्यक्तित्व की छाप थी। सहजता, सरलता और सहृदयता ही उनकी विशेषता थी।
बुन्देली फड़ साहित्य में सैर सर्जक के रूप में कवि रत्नेश व्यास मण्डली के प्रमुख स्तम्भ रहे। सैर-प्रतियोगिताओं के क्षणों में कवि की आशुकाव्य-प्रतिभा ही आवश्यक होती है। गायन में विषय या संदर्भ मिलते ही कलम से सृजन प्रारंभ हो जाता है। कवि रत्नेश में यह आशु-कवि की प्रतिभा बड़ी विलक्षण थी।
श्री रत्नेश जी ने रीतिबद्ध ब्रजभाषा काव्य और लोकगीतों सहित बुन्देली काव्य को भी अपनी रचनाओं में स्थान दिया। घनाक्षरी, सवैया, पद एवं लोकगीतों को उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। लोकगीतों में सैर नामक छंद उन्हें विशेष प्रिय रहा।
घनाक्षरियों और सवैयों में कृष्ण-लीला ही प्रमुख है। अतः श्रृँगार रस और भक्ति भाव की प्रधानता मिलती है। पदों में उनकी भक्ति भावना के विविध रूप देखने को मिलते हैं। सैरों की रचना उन्होंने अधिक संख्या में की है। संख्या में ही यदि देखा जाय तो दूसरा स्थान, बुन्देली काव्य में विशेष प्रचलित ‘फाग’ छंद को है। इन फागों में रसिक-हृदय का प्रणय निवेदन और विरहानुभूति के भावों की अभिव्यक्ति विशेष रूप से मिलती है।
सैर
दोहा – सब सिंगार वर नार कर बैठी भवन मंझार।
वेसर पहिरत ना बने कवि जन करौ विचार।।
सैर – लेकर सुवाल वारि विमल कमल मृणाली
कर मज्जन ततकाल वाल चाल उताली
केसर कपूर अंबर लै अंगहि डाली
टेक – वेसर न बनै पहरत किहिं कारन आली……….
तर अतर में सुगन्ध केश घूंघर वाली
सज कें सकल सिंगार अंग झलके लाली……
वेसर न बनै पहिरत…………।।
वानल वनाम कही रंग गज गति वाली
शोभा अनूप नारि मनौ सांचे ढाली
वरनन करैं कहाँ लौ का दैय मिसाली………
वेसर न बनै पहिरत …………।।
रतनेश पै प्रसन्न सदा है वनमाली
है स्वर्ण में सुगन्ध चन्द्र छटा निराली
नायका और अलंकार कहना हाली………..
वेसर न बनै पहिरत …………।।
एक उत्तम नायिका सम्पूर्ण श्रृँगार करके भवन के मध्य में बैठी हुई है। उससे नथ पहिनते नहीं बन रहा है। कविजन इस समस्या का समाधान करें। सुन्दर यौवना ने अपने मनोहर कमलनाल के समान हाथों से जल लेकर शीघ्रता से स्नान किया और केसर कपूर तथा अंबर (एक सुगंधित द्रव्य) अपने शरीर पर डाल लिये हैं किन्तु क्या कारण कि उससे नथ पहनते नहीं बन रहा है ?
इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों को लगाये हुए सुंदर घुंघराले बालों वाली नायिका सभी श्रृँगार किये हुए हैं। उसके अंगों से लालिमा झलक रही है किन्तु क्या कारण है कि उससे नथ पहनते नहीं बन रहा है? श्यामा तुलसी के समान आकर्षक रंग वाली और हाथी के समान मंथर गति वाली उस नायिका के साँचे में ढले से अंगों की अनुपम शोभा दर्शनीय है।
कवि कहता है कि मैं उसकी कौन-कौन सी उपमायें देकर वर्णन करूँ किन्तु नथ उससे पहिनते नहीं बन रहा है, क्या कारण है? कवि रत्नेश पर भगवान कृष्ण सदा प्रसन्न रहते हैं। स्वर्ण में सुगंध की तरह उस नायिका की शोभा अनुपम है। नायिका और अलंकार को विवरण सहित बतायें। (अखाड़े में दूसरे पक्ष से इसी प्रकार प्रश्न प्रतियोगिता हेतु किये जाते थे)
सैर
दोहा – पूंछत हौं लघु प्रश्न तुम, सुनहू खोल निज श्रोन।
स्वयं दूतिका संग की, होत नायका कौन।।
सैर – नहिं वीर तीर कोऊ का करो चाइये
समसीर सम समीर हियें न लगाइये
नाकर अधीर धीर तीर न छुड़ाइये
मम मीत पौन भौन मंद मंद आइये……….(टेक)
विरहा के ज्वाल धधकत कैसें सिराइये
पंखा न पास कैसें मन शांति पाइयै
आवन की आस लागी दरसन कराइये।
मम मीत पौन…………।।
तब हेत खोल राखी खिरकी हवाइये
तन अतनु तपन कान आन कैं बुझाइये
कीजै उताल गौन लाल सीस नाइये।
मम मीत पौन…………।।
सावन की रैन श्याम घटा सैं बचाइये
नायका भेद मजलिस में कह सुनाइये
रतनेश नये नये नित सैर गाइयै।
मम मीत पौन…………।।
मैं छोटा सा प्रश्न पूँछता हूँ कान खोलकर सुनो, स्वयं दूतिका के साथ कौन सी नायिका होती है। कोई नायक निकट नहीं है फिर क्या करना उचित है। वाणों के समान तीक्ष्ण हवा के झोकों को हृदय में मत मारो। मुझे बेचैन मत करिये। मेरा धैर्य का किराना मत छुड़ाइये।
मेरे प्रिय (हितैषी) पवन धीरे-धीरे भवन के भीतर प्रवेश करो। विरह की धधकती ज्वाला का कैसे शमन हो? पंखा पास न होने पर कैसे शान्ति मिले? प्रियतम के आने की आशा लगी है कृपया तुरंत दर्शन करायें। हे प्रिय पवन! भवन के भीतर-धीरे प्रवेश करो?
तुम्हारे लिये यह खिड़की खोल कर रखी है। कामदेव की ज्वाला से तप्त देह की तपन को हे कृष्ण! आकर शान्त करो। मैं नमन करती हूँ शीघ्र इस ओर प्रस्थान कीजिये। सावन की काली रात्रि और घनघोर काली घटा से मेरी रक्षा कीजिये। (पुनः कवि दूसरे पक्ष से कहता है) सभा में इस नायिका का भेद बताइये। रत्नेश कवि नये-नये सैर बनाकर नित्य गाते हैं।
सैर
दोहा -जेते नार श्रृंगार सखि कीन्हें कर कर ख्याल।
मृग मद की वैंदी सुक्यों देत भाल नहिं वाल।।
सैर -अंग अंग में विभूषन रुच रुच सम्हालना
है झलक रही जौवन की जोत जालना
जगमगत है जवाहर की कंठ मालना
मृगमद की भाल वैंदीं क्यों देत वाल ना……….।।टेक।।
चह चह चारु चंदन को लेप डालना
अरगजा अंग रागन केसर कमालना
दुति देह की सुरंग कंज सें मिसालना
मृग मद की भाल वैंदी……..।।
मन रंजन दृग खंजन की है मजालना
गति गज की गइ भूल देख वाल चालना
रति रूप से अनूप तिया अजब ढालना।
मृग मद की भाल वैंदी……..।।
नैनन के वान तान तान करो घालना
रतनेश कहै दुसमन की गलै दालना
कवि कोष देख उत्तर देना उतालना।
मृग मद की भाल वैंदी……..।।
नारियोचित सभी श्रृँगार नायिका ने पूरी तरह ध्यान करके कर लिये हैं किन्तु क्या कारण है कि वह कस्तूरी की बेंदी माथे पर नहीं लगाती? (अखाड़े की प्रतियोगिता में दूसरे पक्ष के लिये प्रश्न है) प्रत्येक अंग के आभूषणों को मनोयोग से यथास्थान सजा रही है। यौवन की आभा का प्रकाश बिखर रहा है।
जवाहर की गले माला जगमगा रही है। क्या कारण है कि वह कस्तूरी की बेंदी माथे पर नहीं लगाती? सुन्दर चंदन, केसर, कपूर आदि से बना अरगजा (सुगंधित द्रव्य) का अंगों पर लेप करने से यौवना का पूरा शरीर ऐसा दैदीप्यमान है कि उसकी उपमा कमल से भी नहीं दी जा सकती।
क्या कारण है कि वह कस्तूरी की बेंदी धारण नहीं करती? उसके चंचल नेत्रों की बराबरी खंजन पक्षी के नेत्र भी नहीं कर पा रहे हैं। हाथी की चाल भी उसकी मंदमंद गति से बराबरी नहीं कर पा रही। रति के रूप सौन्दर्य से भी अधिक उसकी सुन्दरता दिख रही है।
फिर क्या कारण है कि वह कस्तूरी की बेंदी धारण नहीं करती? कवि रत्नेश कहते हैं कि नयनों के बाणों से घायल न करो। अब इस विपक्ष की नहीं चल पा रही है। (फिर वह प्रश्न दुहराता है कि) अपने साहित्य के कोष में देखकर शीघ्र ही उत्तर दो कि वह यौवना कस्तूरी की बेंदी माथे पर क्यों नहीं लगा रही ?
पावै कहूं फागुन में सांवरे सलौने तोहि,
पीत पट छोर मोर पंख हूँ उतारेगी।
चूनरी पिन्हाय दैकें बेंदी वर भाल हूं में,
नैनन अंजाय तन कंचुकी सुधारेगी।।
आप लैकें मुरली बजाय संग प्यारे तब,
तोही कौं नचाय है औ होरी है उचारेगी।
हाथ जोरिआयै तोहू मार पिचकारिन के,
देखत ही बाल लाल लाल कर डारेगी।।
हे सांवले सुन्दर कन्हैया! यदि फागुन में राधिका जी को तुम मिल गये तो वह तुम्हारा पीताम्बर और मोर मुकुट उतार अलग रख देंगी फिर चुनरी पहिराकर माथे पर बिन्दी लगायेगी। आंखों में काजल लगायेगी और बदन पर सम्हालकर चोली भी पहना देगी। आपसे मुरली छुड़ाकर स्वयं बजायेंगी और आपको नचाते हुए ‘होरी है’, ‘होरी है’ बोलेंगी। आप कितने ही हाथ जोड़ो लेकिन वह छोड़ेगी नहीं बल्कि पिचकारी की मार से पूरे तन को लाल रंग से सराबोर कर देगी।
मन भावन आवन औध गई सजनी कछु मोहिं सुहाये नहीं।
उनये नहीं नेह के मेह उतै पिक मोरन शोर मचाये नहीं।
वरसावत नैन घटा नित ही इत सें रितु पावस जाये नहीं
मग भूल गये रतनेश कहें घनआनंद आज लौ आये नहीं।
हे सखी! प्रियतम के आने की अवधि निकल गई है इसलिये मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ नेह के बादलों का उदय नहीं हुआ इसलिये कोयल और मोरों ने अपना राग नहीं अलापा होगा। यहाँ तो घटा रूपी नेत्र प्रतिदिन पानी बहाते रहते हैं इसलिये यहाँ से तो वर्षा ऋतु कभी जाती ही नहीं है। लगता है प्रियतम इस ओर का रास्ता भूल गये हैं। इसी कारण श्री कृष्ण आज तक यहाँ नहीं आ सके।
प्रथम समागम की धौंस जान चन्द्रमुखी,
सुखी सब भांत पै दुखी सी परत है।
सांझ होत सास के समीप जाय बैठी बाल,
हाल निज जी कौ नहीं नेक उचरत है।
पिय परछाई के परत पर जात पीरी,
धीरी धीरी श्वासन ते आहन भरत है।
शिशिर दली सी कैधों मोहन छली सी,
रतनेश त्यों कली सी लली सी सी करत है।।
प्रथम मिलन के डर से दुखी सी दिखाई पड़ रही नायिका मन में पूरी तरह से प्रसन्न है। सायंकाल होने पर अपनी सास के पास बैठ जाती है किन्तु मुँह से मन का कोई हाल नहीं कहती। प्रियतम की केवल छाया पड़ने से ही पीली सी पड़ जाती है (डरी हुई सी दिखने लगती है) और धीरे धीरे आहें सी भरने लगती है। कवि रत्नेश कहते हैं कि कली सी नवयौवना शीत के प्रकोप से व्यथित की तरह अथवा मोहित हो धोखे से पीड़ित होने की तरह सी-सी शब्द धीरे-धीरे होठों से निकालती है।
पौढ़ी परयंक प्राण प्यारी प्रान प्यारे संग,
केलि की उमंग युग्म प्रेम उच्च कोटि के।
गल भुज मेलि मेलि लंकन सों ठेलि ठेलि,
रति की उलेल रतनेश अंग जोटी कै।।
नेह सरसाने नैन नींद भर आने कछू,
श्रवन सुनाने बैन गजर बजोटी के।
हाय कर सिसक सकानी सी जकानी जबै,
लागे करें खोटी ये पखेरु लाल चोटी के।।
प्राण प्रिया प्रियतम के संग पलंग पर लेटी हुई है। दोनों के हृदय में प्रेम का उत्तम भाव है और काम कला-क्रीड़ा का उत्साह भरा हुआ है। बार-बार गले में बाँह डालकर और कमर से बार-बार ढकेलते हुए काम क्रीड़ा कर रहे हैं। काम क्रीड़ा के प्रवाह की तीव्रता अंग-अंग में बराबरी से प्रवाहित थी।
नेत्र प्रेम-रस से रसपूर्ण हो गये। हल्की नींद का भी आभास होने लगा। तभी (पहर-पहर पर बजने वाले घंटों में) प्रातः काल का घंटा कानों को सुनाई दिया जिससे वह हाय सहित सत्कार कर सशंकित हो भौचक्की सी हो गई, तुरन्त बाद लाल चोटी वाले पक्षी अर्थात् मुरगा ने बांग देना शुरू कर दिया (नायिका को यह खोटा अर्थात् बुरा लगने लगा)।
लग गये निरमोही सों नैना, कहतन कछू बनैना
कलन समान दिवस निस बीते कैसउं चैन परैना।
कह दो जाय पतंग कीट सौं दीपक संग जरैना।
कह रतनेश प्रीति इक अंग की कोऊ भूल करैना।
निरमोही के निठुर नेह की कबहुं प्रतीत धरैना।।
नायिका कहती है कि मुझे निर्दयी से प्रेम हो गया, अब अपना कष्ट किसी से कुछ कहते नहीं बनता। ग्रहण लगने की तरह रात और दिन बीत रहे हैं, किसी प्रकार शान्ति नहीं मिलती। (नायिका कहती है कि) कीट-पतंगों को मेरा संदेश दे दो कि वे दीपक की लौ पर अपने प्राण न दें। कवि रत्नेश कहते हैं कि भूलकर भी कोई एक पक्षीय प्रेम न करे। कठोर हृदय वाले व्यक्ति के प्रेम का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये।
होरी खेलत महल मझारी श्री बांकुरे बिहारी।
ललता सखी विसाखा संग में श्री वृषभानु दुलारी।।
प्रेम रंग पिचकारी भर कर तक मारी गिरधारी।
सारी भइ सरबोर प्रिया की बहु अमोल जरतारी।।
तब राधे ने बुला गोपियन हुकम कर दयो जारी।
पकर लेव आतुर आली यह छलिया छेल बिहारी।
सखी भेष कौ साज सजा दो कर दो नर से नारी।।
कह रतनेश फाग मैं बरनी लीला ललित बिहारी।।
महल के बीच में श्रीकृष्ण होली खेल रहे हैं। दूसरी ओर ललता और विसाखा सखी के साथ वृषभानु नन्दिनी राधिका जी है। स्नेह सहित पिचकारी में रंग भरके श्रीकृष्ण ने राधिका जी को निशाना बना कर घाल दी। अनमोल धागों से जड़ी साड़ी रंग से पूरी तरह भीग गई।
तब राधिका जी ने सभी सखियों को आदेश दिया कि शीघ्र ही इस छलिया कृष्ण को पकड़ लो और सखी का अर्थात् नारी का पूरा भेष बनाकर पूरी तरह नर से नारी बना दो। कवि रत्नेश कहते हैं कि मैंने लीलाधारी कृष्ण के फाग की लीला का वर्णन किया है।
बरसाने बीच मची होरी, जइयो जिन भूल उतै गोरी।
मनचाई कर लेय मुरारी सारी करदें सरबोरी।।
मेलत गाल गुलाल लाल जू वीर अबीर भरैं झोरी।
काहू की बरजी ना मानै पकर लेत कर बरजोरी।।
मन भावन मन बांध लेत है डार प्रेम रंग की डोरी।
चंचल चतुर चलांक चोर है कर लैहै चित की चोरी।।
पछतैहै जो मान न लैहै हो जैहै फजियत कोरी।
कहैं रतनेश राग रसिया में सरस फाग नव रस बोरी।।
(समस्त छंद सौजन्य से : श्रीयुत श्रीनिवास शुक्ल)
एक सखी दूसरी से कह रही है कि बरसाने के बीच में होली खेली जा रही है वहाँ भूलकर भी नहीं चली जाना। वहाँ कृष्ण कन्हैया अपने मन की कर लेता है और साड़ी पूरी तरह भिगो देता है। किसी के मना करने पर नहीं मानता, जबरदस्ती वह हाथ पकड़ लेता है, थैले में अबीर-गुलाल भरे हैं सो गालों में खूब लाल-लाल गुलाल मल देता है।
इसके साथ ही स्नेह की डोर से वह मनमोहन मन को बांध लेता है (बस में कर लेता है)। वह ऐसा नटखट, बुद्धिमान और चालबाज चोर है कि तुरंत चित्त की चोरी कर लेता है। सखी कहती है कि जो हमारा कहना नहीं मानेगी उसे बाद में पछताना पड़ेगा और उसकी दुर्दशा हो जायेगी। रत्नेश कवि कहते हैं कि यह रसिक राग के रस से पूर्ण फाग नव रसों का आनंद देती है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)