Hari Vishnu Awasthi का जन्म ओरछा राज्य के टीकमगढ़ में फाल्गुन कृष्ण पंचमी संवत् 1989 अर्थात् 15 फरवरी 1933 को हुआ, आपके पिताजी का नाम पं. रामकिशोर अवस्थी तथा माताजी का नाम श्रीमती काशीबाई था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा टीकमगढ़ में ही हुई। आपने 1948 में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की, इसके बाद 1949 से शिक्षा विभाग के विभिन्न पदों (सहायक शिक्षक, प्रधानाध्यापक तथा सहायक जिला विद्यालय निरीक्षक) पर काम किया।
साहित्य व समाजसेवी श्री हरि विष्णु अवस्थी
श्री हरि विष्णु अवस्थी 31 मई 1994 को सेवानिवृत्त हो, आप साहित्य व समाजसेवा में संलग्न हैं। आपने स्वाध्यायी छात्र के रूप में विश्वविद्यालयीन उपाधिायाँ अर्जित कीं। आप विद्यार्थी जीवन से ही कवितायें लिखते रहे हैं। 1951 से रचनायें लिखीं जो देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। आपकी तीन कृतियाँ ‘बुन्देली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई’, ‘संत कबीर’ तथा ‘कहत कबीर सुनो भई साधो’ प्रकाशित हैं। ‘भूली बिसरी भूलें’, ‘कलम और करवाल के धनी छत्रसाल’, ‘छत्रसाल की जन्म भूमि महेवा’, ‘टीकमगढ़ नगर उद्भव एवं विकास’, ‘बुन्देलखण्ड में हनुमंत उपासना एवं विग्रह’ तथा ‘बुन्देलखण्ड में शौर्य उपासना एवं सूर्य मंदिर’ अप्रकाशित कृतियाँ हैं।
श्री हरि विष्णु अवस्थी को साहित्य वाचस्पति, विद्या वाचस्पति की उपाधियों से विभूषित किया गया है। आकाशवाणी छतरपुर से समय-समय पर आपकी रचनाओं का प्रसारण होता रहता है। आप विभिन्न साहित्यिक तथा समाजसेवा में संलग्न संस्थाओं के सक्रिय पदाधिकारी हैं।
टेर-टेर कैं हारे कनइया आय न मोरे द्वारे।
कभउ कहत गउअन में जाने, जसुदा नंद दुलारे।।
कुंजन बाल सखन संग डोलत, मोहन मुरली बारे।
खेलत गैंद गिरी जमना में, नाग नाथ लय कारे।
सखियन के संग रास रचाउत, किशन कनइया प्यारे।
गैल चलत सखियन खों छेड़त, तुम छलिया मतवारे।।
जब-जब कई घरै आवे की, बना बहाने टारे।
सौलों गिनती काँनों करिये, हा-हा कर-कर हारे।।
तनक पसीजौ अब तो मोहन, कारी कमरी बारे।
पलक पाँवड़े बिछा खड़े हैं जिन तरसाओ प्यारे।।
हे कृष्ण! मैं तुम्हें बार-बार पुकार कर थक गया हूँ किन्तु आप मेरे दरवाजे नहीं पधारे हैं। जशोदा व नंद के प्रिय कभी कहते हो कि मुझे गायों के साथ जाना है। कभी मुरली लेकर कुंजों में बाल सखाओं के साथ घूमते हो। आपके खेलते समय गेंद यमुना में गिर गई तो आपने कालिया को नाथ लिया। आप कभी कृष्ण कन्हैया बनकर गोपिकाओं के साथ रहस लीला करते हो।
आप कभी राह चलती सखियों को मतवाला छलिया बनकर छेड़ते हो। जब-जब मैंने आपसे घर आने की कही तभी आपने कोई न कोई बहाना बनाकर टाल दिया। मैं सौ की गिनती कहाँ तक गिनाऊँ? मैं विनय करते हुए थक गया हूँ। हे कृष्ण! अब थोड़ी सी दया दिखाकर पधार जाओ। मैं पलकों रूपी पाँवड़े बिछाये खड़ा हूँ। अब मत तरसाओ। हरि सें करकें प्रीति पसतानी।
हटकी हती सास नंदन ने, बात एक न मानी।
सपनन सुना परत है गुइयाँ, मुरली टेर सुहानी।।
वे निर्मोही संग छोड़ दें, ऐसी कभउँ न जानी।
कछु न सुहावै उन बिन मोखों, रुचे न रोटी पानी।।
श्याम बिना मोय कल न परत है फिरत रहत बोरानी।
मुरली छुड़ा कमरिया झटकी कभउँ रार न ठानी।।
अब कै रूठे बे सखि ऐसें, विनती एक न मानी।
हे हरि दया करौ अब मो पै तुमरे हात बिकानी।।
मैं कृष्ण से प्रेम करके पछता रही हूँ। मुझे सास व ननद ने मना किया था किन्तु मैंने उनकी एक भी बात नहीं मानी। सखी, मुझे अब स्वप्न में ही बाँसुरी की मधुर टेर सुनाई देती हैं। वे निर्मोही होकर इस तरह से साथ छोड़ देंगे ऐसा मैंने कभी सोचा नहीं था। मुझे उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता, न ही खाना-पीना रुचिकर लगता है।
मुझे कृष्ण के बिना चैन नहीं मिलता है, मैं पागलों की तरह घूमती रहती हूँ। मैं कभी भी न मुरली छुड़ाई न कमरिया छुड़ाई और न ही कभी झगड़ा किया। हे सखी! वे अब की बार इतने रूठ गए हैं कि मेरी एक भी प्रार्थना नहीं सुन रहे हैं। हे दयानिधि! आप मुझ पर दया कीजिए, मैं तुम्हारे हाथ बिक चुकी हूँ।
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)