Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारHargovind Tripathi ‘Pushp’ हरगोविन्द त्रिपाठी ‘पुष्ष्प’

Hargovind Tripathi ‘Pushp’ हरगोविन्द त्रिपाठी ‘पुष्ष्प’

Hargovind Tripathi ‘Pushp’ का जन्म दिनांक 11 सितम्बर सन् 1934 ई. को पृथ्वीपुर जिला टीकमगढ़ में हुआ। आपके पिता का नाम पं. श्री राजाराम त्रिपाठी था। ‘पुष्प’ जी अपनी तरुणाई में ही कविता के क्षेत्र में स्थापित हो चुके थे।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के कारण शिक्षक पद पर कार्यरत रहते हुए भी वे ‘दैनिक जागरण’ झाँसी के साथ ही साथ अन्य पत्रों में भी अपनी रचनाओं के साथ स्थानीय समाचार भी प्रकाशनार्थ भेजते रहते थे।

लम्बे समय तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े रहने के फलस्वरूप ‘पुष्प जी’ पूरी तरह ‘पत्रकार’ भी हो गए विभिन्न समाचार पत्रों एवं संवाद एजेंसियों से सम्बद्ध होने के कारण उनकी गणना बुन्देलखण्ड के निष्ठावान एवं साहसी पत्रकारों में होने लगी। पुष्प जी की प्रकाशित कृतियाँ –

1-  तुलसीदल, 2-  विरहणी (खण्ड काव्य) हैं।

बुन्देलखण्ड साहित्य परिषद टीकमगढ़ के संस्थापक सदस्य हैं।

अपनी सबइ बहोरी, उनने एक न मानी मोरी।
पइंयाँ पर हा-हा कर हारी, तोऊ करी बरजोरी।।

हाँत गरे में डार पकर लऔ लिपड़-झपड़ झनकोरी।
हटकत-हटकत दिउरा बुजा दऔ, मन की करकै छोरी।।

इन्होंने सभी बातें थोपीं, मेरी एक भी बात नहीं मानी। मैं उनके पैर पड़-पड़कर हार गई किन्तु उन्होंने एक न सुन जबरदस्ती की। पहले हाथ गले में डाला फिर पकड़ लिया उन्होंने लिपट झपटकर झकझोर दिया। मना करने के बाद भी उन्होंने दीपक बुझाकर अपनी मनमानी करके ही छोड़ा।

रुच रुच रूप सवारौं, बिधना अपने हाँत सिंगारौ।
दोउ अँखियाँ हिन्ना कीं दै दईं सुअना नाक बिठारौ।।

ओंठन पै गुलाब की पाँखें, ठोड़ी पै तिल न्यारौ।
ऐसो लगत पुरैन फूल पै, बैठो मोंरा कारौ।।

जुवना दोउ मडियन के कलशा, देश हिये में सालौ।
करया पतरो नाहर जैसौं, पनछीलौ तन सारौ।।

इनपै तनक निगा के परतइँ, बिलुर जात गैलारौ।
बूड़ों जिउ जुआन फिर हौ गऔ, बिसरत नाइँ बिसारौ।।


विधाता ने अपने हाथों से तुम्हारा श्रृँगार रुच-रुचकर किया है। दोनों नेत्र हिरणों की भाँति व नासिका तोता की तरह दी है। ओठों पर गुलाब की पंखुड़ियाँ, ठुड्ढी पर अनोखा तिल दे दिया जिसे देखकर लगता है कि कमल पत्र के ऊपर काले रंग का भ्रमर बैठा हो।

दोनों स्तन मंदिर के कलशों की भांति हैं जो सीधे हृदय में सालते हैं। कमर सिंह जैसी पतली तथा समस्त शरीर सुडौल है। इनके इस सौन्दर्य पर दृष्टि पड़ते ही राहगीर अपना रास्ता भूल जाता है। इन्हें देखकर वृद्ध भी अपने को युवा महसूस करते हैं तथा इन्हें इनका सौन्दर्य विस्मृत नहीं होता है।

सियाराम शरण गुप्त का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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