बुन्देलखंड के लोकगीतों की अपनी एक अलग विशेषता है । Bundelkhand Ke Lokgeet अपनी जडे़ं लोक जीवन में बहुत गहरे तक समाये हुईं हैं जो हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं और मान्यताओं को अपने में सुरक्षित रखे हुए हैं। बुंदेलखंड के इन लोकगीतों में संस्कृति एवं सभ्यता के रहस्यों की अमिट छाप मिलती है।
संस्कृति एवं सभ्यता के प्रतीक बुंदेलखंड के लोकगीतों
लोक संगीत हमारी भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। हमारी परम्परा व संस्कृति को सुरक्षित रखने में लोक संगीत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लोकसंगीत के अंतर्गत लोकगीत, लोकनृत्य, लोकवाद्य, लोकनाट्य आदि सभी समाहित हैं । लोकगीत जो जनमानस में प्रचलित होते हैं अर्थात मानव मन के अन्तर्मन से उत्पन्न होकर जो शब्द फूटते हैं और संगीत बद्ध होकर लोकसंगीत कहलाते हैं।
ऋतुओं के बदलाव और उन बदलावों का सहज हृदय पर प्रभाव, रिश्तों की टीस, पर्व-त्योहार, सुख- दुख , जीवन-मृत्यु , यात्रा, विवाह का उल्लास, मातृत्व के सुख व पीड़ा, खेत खलिहान, सामाजिक जीवन का हाल, इत्यादि की अनुभूति ही बुंदेलखंड लोकगीतों की काव्य की भूमि है। बुंदेली लोकगीतों के अंतर्गत फागें, सैरे, गारी, विवाह गीत, मकर संक्राति गीत, बधाई गीत, भक्ति गीत, इत्यादि प्रत्येक अवसर के लोकगीत आते हैं।
श्रृंगारपरक लोककाव्य का वर्गीकरण
श्रृंगारपरक लोकगाथाओं में मुख्यता: ढोला-मारू, चँदना, सारंगा-सदाब्रज और राजा गिलंद की गाथा प्रमुख है। रूप-वर्णन के अंतर्गत आंगिक सौन्दर्य, आभूषण, प्रसाधन आदि का सौन्दर्य और रूप का प्रभाव आदि प्रमुख हैं। संयोग श्रृंगार में मुग्ध करने की चेष्टा, हास-परिहास, विनोद, मान, उद्दीपन में ऋतुवर्णनादि, शालीनता, लज्जादि अनुभाव तथा स्पर्शजन्य सुख आते हैं।
वियोग श्रृंगार में पूर्वराग, मान, प्रवासजन्य वेदना, चिन्ता, स्मृति, उद्वेगादि और करूण प्रसंग सम्मिलित हैं। वियोग के उद्दीपक अधिकतर बारहमासी गीत हैं। कथागीतों और लोकगाथाओं में कथा, पात्र, लोकभाव, उद्देश्य, लोकसंस्कृति आदि प्रमुख तत्व भागीदारी करते हैं।
रूप सौन्दर्य लोककाव्य में रीतिवद्ध और रीतिसिद्ध कवियों की तरह न तो रूप के चित्रों का बंधान है और न ही रीतिमुक्त कवियों की तरह तरंगायित सौन्दर्य। रूप का लोकसहज सौन्दर्य तो लोकगीतों में ही मिलेगा। यहाँ कुछ रूप-चित्र दिये जा रहे हैं। और उन्हीं के आधार पर निगमन पद्धति से हम किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकते हैं।
गोरो रंग चम्पा कली, बूँदा दयें लिलार।
नाक नथुनिया नगजड़ी, रूच रूच गढ़ी सुनार।
पैलउँ पैल की चिनार, हम तो पुंगरिया सें चीन गये।
बिन काजर कजराभरे, मृगनैनी के नैन।
जाँ तिरछी हेरन परै भूलै दिन ना रैन।
हेरन सें ना मार, हम तो नजरिया सें चीन गये।
गोरी घुँघटा ना डार, हम तो चुनरिया सें चीन गये।।
हंसन सें चाल मिली खंजन सें नैना।
बिजुरी नें हँसी दयी, कोइल नें बैना।
बिन ही सिंगार किये सोहत है नारी।।
इसमे स्वाँग गीत के दो अंतिम अंश दिये गये हैं, जिनसे रूपसौदर्य की सहज अभिव्यक्ति हो जाती है। नायिका की देह चम्पा की कली की तरह गोरी और छरहरी है। उसके नेत्र हरिणी की तरह बिना काजल लगाये कजरारे और चंचल हैं, जिनकी तिरछी हेरन जिसे छू जाती है, वह उसे रात-दिन नहीं भूलता।
लोक में आभूषण-प्रियता अधिक थी, इसलिए लोकगीतों में आभूषणों की जमावट की अतिशयता है। दूसरे उदाहरण में उपमानों के महत्व की प्रतिष्ठा से सौन्दर्य का एक चित्र खड़ा किया गया है, जिसमें हंसों से नायिका की गति, खंजन पक्षी से उसके नेत्र, बिजली से हँसी और कोयल से बोली मिलने के द्वारा गति, नेत्र, हँसी और मधुर बोली के गुणों से नायिका की पहचान दर्ज हो जाती है।
मखमल में बदन मोरो चमकै।
सेजन पै चुनरिया सी दमकै।
बागन में चमेली सी फूल रई
घूंघट में नैन मोरे मटकें।
नग नग में तुरइया सी फूल रई
हँसतन में जिया मोरो ललचै।
मोरी विंदिया को रंग गुलजार
सूरज तुम धीरे से उगो रंग उड़ जैहै।
नदिया अकेली न जइयो री गोरी धना,
नदिया अकेली न जइयो लाल।
ऊसई तो नैना कँटीले तुमारे,
कजरा लगाकें न जइयो री गोरी धना, नदिया ।
ऊसई गुलेल बनीं तोरी भौहैं,
बूँदा लगाकें न जइयो री गोरी धना, नदिया ।
ऊसई रसीले ओंठ तुमारे,
पान रचाकें न जइयो री गोरी धना, नदिया ।
ऐसे बाग ना लगाव, कइयक फिरें मतवारे ।
पुर गये बरछी के घाव, नैना के घाव पुरत नइयाँ ।
इस उदाहरण में चमकना, दमकना से देह का तरंगायित सौन्दर्य और चमेली एवं तुरैया की फूलना से मानसिक सौन्दर्य तथा दोनों के समन्वय से सौन्दर्य की नवता की झलक मिलती है। चैथे में बिंदिया के रंग यानी प्रसाधन की निजता प्रकट हुई है। पाँचवें में नेत्रों का कँटीलापन, भौंहों का धनुष की कमान जैसा तिरछापन और ओठों का रसीलापन वैसे ही सुन्दर है, पर काजल एवं बूँदा लगाने और पान रचाने से उनकी सुन्दरता इतनी बढ़ जायेगी।
नदी में अकेले जाना खतरे से खाली नहीं है। छठवें में नायिका के सौन्दर्य का प्रभाव राई गीतों द्वारा दर्शाया गया है। पहली पंक्ति में नायिका की देह बाग के समान उपमित की गयी है, जिसमें फूल, फल, पंछी, वर्ण और गंधादि सभी कुछ हैं और जिसे देखकर कई पागल हो गये हैं। दूसरी में नयनों की चितवन के घाव सदा हरे रहते हैं, भले ही बरछी या किसी अन्य शस्त्र के घाव ठीक हो जायें। स्पष्ट है कि चितवन का प्रभाव हमेशा रहता है।
संयोग श्रृंगार
लोकविश्वास है कि मानव का जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए उसे क्षणिक जीवन में सुखों का भोग कर लेना चाहिए। इस विश्वास को कई प्रकार से लोकगीतों में बुना गया है। एक पंक्ति का राई गीत है- ’हंसा कर ले किलोल, जानें कबै रे उड़ जानें।‘ जिसमें हंस जीव का प्रतीक है और उसका उड़ जाना क्षणभंगुरता का। जीव के लिए किसी का कथन है कि उसे इस संसार में रहकर आनंदभ भरी क्रीड़ाएँ कर लेना चाहिए, क्यों कि उसका जीवन अनिश्चित और नश्वर है। लोक में भी कुछ लोग भोगप्रधान लोकदर्शन के विचारों के पक्षपाती हैं, तभी तो लोकगीतों में लौकिक सुखों के भोग के पक्ष में तर्क प्रस्तुत किया गया है।
हँस खेल बखत कटि जाय बारे रसिया,
को कहँ को रमि जाय बारे रसिया।
जैसें रंग पतंग रे रसिया, पवन चलै उड़ जाय
जैसें मोती ओस को रसिया, घाम परै ढरि जाय
हँस खेल बखत कटि जाय बारे रसिया।
उक्त पंक्तियों में पतंग के पवन में उड़ जाने और ओस के धूप में ढुलक जाने से जीवन का नाशवान होना सिद्ध किया गया है और हँस-खेल कर आनंदमय क्रीड़ाओं से जीवन व्यतीत करने की सीख दी गयी है। लोकसाहित्य के लोक में पशुपालकों और कृषकों की भागीदारी महत्वपूर्ण रही है। गाँवों में तो इन्हीं का लोक था, जो चरागाही और खेतिहर लोकसंस्कृति का प्रतिनिधि था।
जब कृषक किसी प्रिया पर मुग्ध हो जाता है, तब उसका मन खेती के कार्य में नहीं लगता। वह गा उठता है-’जब सें देखो तुमें, अब तो बखर नईं हँकत है’। यह उसकी मुग्धता का प्रमाण है, लेकिन जब मुग्धता आसक्ति में बदलती है, तबकी मानसिक स्थिति को प्रतिबिम्बित करने वाला लोकगीत प्रस्तुत है…
जो मैं होती बदरिया घुमड़ राती,
पिया प्यारे के अँगना बरस जाती।
जो मैं होती निब्बू नारंगी,
पिया प्यारे की बगिया लटक राती।
जो मैं होती मलयागिर चन्दन,
पिया प्यारे के माथे दमक राती।
जो मैं होती डबिया को कजरा,
पिया प्यारे के नैना चमक राती।
जो मैं होती लौंगा इलायची,
पिया प्यारे के मुख में गमक राती।
जो मैं होती मोतिन की माला,
पिया प्यारे की छतियाँ चिपक राती।।
इन पंक्तियों में आँगन, बाग के बाहरी जगत के बाद मस्तक, नयन और मुख जैसे अंगों से होकर हृदय के स्पर्श-सुख की इच्छा आसक्ति तक पहुँच गयी है, जो या तो अभिसार की प्रेरणा बनती है या फिर प्रिय के आने के शकुन देखती है। इस लोक गीत मे शकुन और अभिसार के उदाहरण देखें…
उड़ जा निगोड़े काग चोंच मढ़वा देंउ तोरी।
चोली के बंध गये टूट फरक रई डेरी आँख मोरी।
बिंदिया ररक रई माथे की, सारी अंग ते सरकत है।
छूट जात गाँठ जूरे की, मोतियन की लर लरकत है।
इस गीत में सात शुभ शकुन हैं, जो उस समय लोकप्रचलित थे। इन शकुनों से नायिका को अपने प्रिय के आने की आशा बँध गयी है। प्रिय आता है, तो प्रिय नायक का अभिसार माना जाना उचित है। यदि नायिका आती है, तो वह अभिसारिका होती है।
रतनारे हैं नैना भँवर कजरा
बड़ी बड़ी अँखियाँ थोरो थोरो कजरा
मानो चंद्र घेरे हैं जे बदरा।रतनारे.।
प्यारे सें मिलबे खों जा रईं गोरी
हाँतन में लीन्हें फुलन गजरा।रतनारे ।
इस गीत में नायिका के अरूणिम नेत्रों में भ्रमर जैसे वर्ण का काजल बहुत सुंदर लग रहा है। बड़ी-बड़ी आँखों में लगा हुआ काजल मुख के सौन्दर्य को निखार रहा है। ऐसा लगता है, जैसे काले बादल मुखचन्द्र को घेरे हुए हैं। गोरी हाथों में फूलों का गजरा लिये हुए प्रियतम से मिलने जा रही है। अभिसार में बाधक नायिका के शोर करने वाले आभूषण होते हैं, जो उसे उतारना पड़ते हैं-
मैं कैसें आओं मोरे बारे सँवरिया, पाँवों के बिछिया बाजना रे।
बिछिया उतार गोरी ओली में धर लेव, रुनक झुनक चलीं आँवना रे।।
बिछिया की तरह टोड़ल, कंगन, झुमका आदि भी बजनेवाले हैं, जिन्हें भी नायिका को उतारना पड़ता हैं। संयोग में हास-परिहास और विनोद भी आनंदमयी क्रीड़ाओं के अंग हैं, इसलिए लोकगीतों में दोनों के उदाहरण मिलते हैं।
रसिया को नारि बनाव गोरी, रसिया को ।टेक।
सालू सरद कसब का लहँगा
कर दयें कजरा ऊपर दयें सिंदुरा ।रसिया ।
बहियाँ बरा बाजूबंद सोहें, माथे पै बेंदी लगाव गोरी ।रसिया ।
इस गीत में रसिक को लहँगादि वस्त्र पहनाकर काजल और सिन्दूर लगाकर तथा बरा बाजूबंद एवं बेंदी जैसे आभूषण से नारी बनाने का विनोद परम्परित ही है।
कोऊ इतै आवरी, कोऊ उतै जावरी
मोरी नौंनी दुलइया खों देख जावरी।
सबेरे सें करबे जा बैठीं सिंगार
खीर में लगा दओ हींग को बघार
कोऊ चींख जावरी ।मोरी नौंनी.।
चूले पै डारें जा बैठी पटा
ईनें खबा दये मोये रौंने भटा।
कोऊ इतै आवरी ।मोरी नौंनी।
इस उदाहरण में उपालम्भ के द्वारा हास्य उत्पन्न किया गया है। संयोग में इस प्रकार के कई प्रसंग मिलते हैं। लोकोत्सवों में संयोग के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। इस कालखण्ड में रियासतों की समृद्धि और ऐश्वर्य का प्रदर्शन भी इन्हीं उत्सवों में हुआ करता था और इसीलिए उत्सव से संबद्ध मेले भी लगाये जाते थे।
इसमें वसन्तोत्सव, फाग, जलबिहार, बुड़की (मकर संक्रान्ति), नवरात्रि, शिवरात्रि आदि के मेलों में अपने रसिक प्रिया या प्रिया से मिलने का एकान्त मिल ही जाता था। होली या फाग में तो काफी आजादी रहती थी, इसलिए कई लोकगीतों में रंग-गुलाल मलने से संयोग-सुख की लूट होती थी। रसिया छैल अपनी प्रिया को आमंत्रित करता हुआ कहता है…
होरी में लाज न कर गोरी, होरी में।
जो तुम होरी में लाज कर रैहौ,
बरबस अबीर मलहौं गोरी। होरी में.।
हम रसिया तुम नई किसोरी,
अरे कैसी बनी सुन्दर जोरी। होरी में.।
उक्त पंक्तियों में पुरूष प्रेमी मुखर है, अपनी प्रेमिका को होली खेलने के लिए आमंत्रण देता है।
आओ छैल तुमें होरी खिलाबैं
मन भाबे सोई लला कराबैं।
सखि सिरमौर होइ मनभावन, केसर रंग बरसाबैं।आओ.।
अबीर गुलाल कपोलन मींड़ै, नारि सिंगार बनाबैं।आओ.।
इन पंक्तियों में गाँव की गोरी, जो अपने प्रेमी को होरी खेलने के लिए बुलाती है और गुलाल से उसके कपोल मीड़कर मनभाई कर लेती है। परकीया तो और अधिक मुखर होती है। घर में अकेली होने पर वह किसी भी परदेशी को अपने घर में रोक लेती है और उसे भोजन की रसद भी देने को तैयार रहती है। बुंदेलखण्ड की स्वच्छंद रसिकता का यह साक्ष्य निम्न लोकगीत में मिलता है।
दैहों दैहों कनक उर दार, सिपहिया डेरा करो मोरी पौंर में।
अरी ओरी गुइयाँ कहाँ गये तोरे जेठ ससुर औ कहाँ गये तोर घरबारे?
तुम लरकिनी काँ रहत अकेली, ऊँचे महल दियना बारे?
दूर गये मोरे ससुर जेठ, परदेस गये मोरे घरबारे।
सास गई मायके ननद सासुरे, हम घर रहत अकेली,
ऊँचे महल दियना बारे।
अरे हाँ रे सिपहिया डेरा करो मोरी पौंर में।।
उक्त गीत में जब परदेशी युवती से पूछता है कि उसके ससुर, जेठ, पति आदि सब कहाँ गये हैं, तो उत्तर उक्त गीत में उसके ससुर और जेठ दूर गये हैं और पति परदेश सास मायके और ननद ससुराल में हैं, जबकि वह बिल्कुल अकेली है। नायिका को यह सब भेद खोलने में जरा भी संकोच नहीं है। व्यंजना में पूरा आमंत्रण।
लेकिन जब पति रात दूसरे घर में व्यतीत करता है, तब वह कठोर होकर पूछती है कि उसके पति ने रात्रि कहाँ काटी, क्योंकि उसकी टोपी, जुल्फें, फटा कुर्ता इस बात के गवाह हैं कि वह रात में कहीं रहे हैं। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
साँची बताओ पिया प्यारे कहाँ तुमनें रैन गँवाई।
माथे की टोपी तोरी येंड़ी-बेंड़ी, जुल्फन लटकन आई। साँची।
कुरता तोरो अबै फटो सइयाँ, छतिया धड़कन आई। साँची।
बादशाहों और राजाओं के अन्तःपुरी संस्कृति ने सौतों और रखैल सौतों का वातावरण फैलाया था, जिससे संयोग की क्रीड़ाओं में बाधा पड़ती थी। यह स्थिति धीरे-धीरे लोक को प्रभावित करने लगी थी, इसलिए सौत को केन्द्र बनाकर कई लोकगीत प्रचलित हुए। एक लोकोक्ति भी बनी। दोनों उदाहरण प्रस्तुत हैं-
बलम सें ऐसी का बिगरी,
ऐसी का बिगरी, मोये छोड़ अकेली गये परदेस रे, बलम सें हो…..।
बलम से कछू न बिगरी,
कछू ना बिगरी, मोरी सौतन नें भर दये उनके कान रे, बलम सें हो….।
इस उदाहरण में सौतों के कान भरने के कारण पति उसे अकेली छोड़कर चला जाता है।
काँटो बुरो करील का, औ बदरी का घाम।
सौत बुरी है चून की, औ साझे का काम।।
इस उदाहरण एक लोकोक्ति का है, जिसमें चून की (आटा की) सौत तक बुरी मानी गयी है। ठीक उसी तरह, जिस तरह करील का काँटा, बदली का घाम और साझे का काम बुरा होता है। संयोग के स्पर्श-सुख के गीत खोजने पर ही मिलते हैं, क्योंकि उनमें परिवार के बीच कहने या गाये जाने की मर्यादा का उल्लंघन है। इसी कारण उनमें प्रतीकों का सहारा लिया गया है। हंस और सुआ तो दोनों जीव के प्रतीक हैं, पर हंस का जीव मुक्त जीव है, जबकि सुआ (तोता) का भोगी। सुआ के प्रतीक से भोग-सुख का एक गीत देखें-
उड़ जा बारे सुअना मोरी बेरी फरी।
उड़ सुअना ओके सिहरे पै बैठो,
घुँघटा को रस लै गओ री।उड़ जा।
उड़ सुअना ओके कन्धा पै बैठो,
हियरा को रस लै गओ री।उड़ जा।
सुअना के प्रतीक से छोटे-बड़े कई विधाओं के गीत मिलते हैं। इसी प्रकार का भोगी प्रतीक भ्रमर (भौंरा) है, जो कलियों तक का रस ले लेता है। तीन राई गीत देखें, जिनमें भौंरा ने पूरा उपभोग किया है-
बेला फूल की कली, बेला फूल की कली,
रनबन करी रे भौंरा नें।
बगिया हो रई लाल, बगिया हो रई लाल,
भौंरा घिरे रे अनघेरे।
बगिया हो रई लाल, बगिया हो रई लाल,
एक एक कली पै दो दो भौंरा।
वियोग श्रृंगार
लोकगीतों में संयोग श्रृंगार का पक्ष जितना समृद्ध और भावमय है, उतना वियोग का नहीं। इसका कारण लोक का आशावादी स्वभाव और लोकमन है। वह गीतों में दुखड़ा नहीं सुनाना चाहता। जिस प्रकार कुछ लोग अपना दुख दूसरों को सुनाकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहते, उसी प्रकार का लोक का दृष्टिकोण रहा है। लेकिन जो भी अनुभूत पीड़ा है, वह तो गीत बनकर निकलेगी ही, लेकिन तब, जब ज्वालामुखी की तरह भीतर ही भीतर विस्फोट की ताकत अर्जित कर ले। इसीलिए इन गीतों की संख्या उतनी नहीं है, जितनी संयोगपरक गीतों की।
वियोग-वर्णन लोकसहज और लोकस्वच्छंद है। उसमें बंधी हुई परिपाटी पर शास्त्रीय चिन्ता, स्मृति, अभिलाषा आदि मनोदशाओं का बंधान नहीं है। यह बात अलग है कि किसी उदाहरण में कोई मनोदशा बैठ जाय। गौना न होने से युवती चिन्ता के कारण पीली पड़ गयी है और लोगों का कहना है कि पिंड रोग (पीलिया) हो गया है। यह भ्रान्ति वह स्वयं स्पष्ट कर देती है। पंक्तियाँ देखें-
पिया पिया कहत पीरी भई देहिया,
लोग कहें पिंड रोग।
गाँव के लोग मरम न जानें री,
भओ न गौना मोर।।
इन पंक्तियों में कोई दुराव-छिपाव नहीं है और न ही कोई कुण्ठाग्रस्तता। सीधा सरल कथन है। लेकिन विरहिणी जब अपनी सहेलियों को संयोग का सुख भोगता देखती है और उसके प्रियतम बहुत दूर है। फिर नारी का स्वाभिमान आड़े आ जाता है। इस कारण वह कुछ कह नहीं पाती, जिससे उसके हृदय में समुद्र जैसी तरंगें तीव्र वेग से उठती-गिरती हैं। पंक्तियाँ देखें-
सबके सैयाँ नियरे बसैं, मो दुखनी के दूर।
घरी घरी पै चाहत है, सो हो गये पीपरामूर।
हमखाँ आबैं हिलोरैं समुँद जैसी।।
पीपरामूर‘ में श्लेष है, जिसका एक अर्थ है ओषधि, लेकिन दूसरे अर्थ में पी=पिय$परा=दूसरे की$मूर=औषधि अर्थात् मेरे प्रिय दूसरे की ओषधि हो गये, जो उसके मिलन का सुख भोग रही है, इस अर्थ में ओषधि है। प्रिय के विदेश जाने की तैयारी से ही विरह की आशंका आरम्भ हो जाती है। संयोग की स्थिति में प्रिय ने प्रीति के रस का पौधा लगाया था, पर प्रवास में जाने से उसका सिंचन करने वाला नहीं रहेगा। वह तो रस का बिरवा है, उसे पानी नहीं प्रीति का रस चाहिए, तभी बह हरा-भरा रह सकता है। इसी आशंका से ग्रस्त नायिका अपने प्रिय से कहती है…
प्रेम-रीति-रस-बिरवा रे, पिय चलेउ लगाय।
सींचन की सुद लीजो, देखो मुरझि न जाय।।…..
इस उदाहरण में प्रेमानंद को पौधे के रूप में कल्पित किया गया है, जबकि एक गीत में पुष्प और भ्रमर के परम्परित उपमान-युग्म को प्रतीकात्मकता प्रदान कर दी गयी है। प्रिय रूपी भौंरा के चले जाने पर प्रिया रूपी बेला-कली कुम्हला जाती है। यहाँ प्रश्न सींचने का नहीं है, क्योंकि पठार के झरने से जल झिरता ही रहता है। झरने के जल के बावजूद बेला-कली मुरझा रही है। पंक्तियाँ देखें…
बेला-कली कुम्हलाय रे, भौंरा परदेसै निकर गये।
पाठे में झिरना झिरें, बेला कली कुम्हलायँ
पापी घड़ेलना न डूबे, मोरे मित्र प्यासे जायँ।बेला कली.।….
विरह की पीड़ा की अभिव्यक्ति बारामासियों में अधिक घनीभूत है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विरहिणी सभी परिस्थितियों में करवट बदल-बदल कर रो रही हो। बारामासी में बारह माहों की प्रकृति से मिलती-जुलती भावना सुना जा सकती है, जो पीड़ा की उसी रंग में रंग लेती है। यहाँ एक-एक माह के भिन्न उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिससे उत्तर मध्ययुग (1601-1857 ई.) की वर्णन-पद्धति का परीक्षण किया जा सके। कुछ उदाहरण…
माह अषाढ़ असाढ़ मास आगी लगी, जर गये सकल सरीर।
प्रेम बूँद बरसी नहीं, मोरो जियरा धरै न धीर रे।।
असाढ़ मास लागे सजनी, चहुँ दिस बदरा घिर आये।
बोले मोर पपीहा बोले, दादुर वचन सुनाये।।
माह क्वाँर क्वाँर मास लागे हते, अंगन उड़ी भबूद।
सिर पै जटा रखाय कें, घर घर माँगे भीख रे।।
क्वाँर मास तीखे महिना, तप गये नदिया झोरा।
मैं दोखन बिरहा की मारी, छाती में उठत ककोरा।।
अषाढ़-क्वाँर असढ़ा बोले मोर सोर भये भारी।
सावन मासें जामुन बाढ़ी बिपन दरियारी।
भादों डर लागे मोय देख निस कारी।
क्वारें कौल हजार किये बनवारी।
उक्त उदाहरणों मे अषाढ़ और क्वाँर के तीन-तीन रूप हैं। अषाढ़ के पहले रूप में विरहिणी को आग जैसी गर्मी से पीड़ा होती है और उसे शान्त करने के लिए प्रिय की प्रीति रूपी बूँद तक नहीं बरसी, जिससे उसका हृदय बैचेन है। दूसरे में बादलों के घिरने और मोर, पपीहा तथा मेंढ़क के बोलने से नायिका की पीड़ा उभरती है (क्योंकि ऐसे समय प्रिय से संयोग-सुख उसे बैचेन करते हैं) तीसरा भी दूसरे का संक्षेप है। क्वाँर के पहले रूप में गर्मी के कारण अंगों में धूल लिपट गयी है, जो जोगी की भभूत (राख) जैसी है। सिर्फ सिर पर जटा रखाकर भीख माँगने की कसर है। दूसरे में गर्मी के ताप से नदी और उसके पोखर तप्त हैं।
नायिका का दोष यही है कि वह विरह की सतायी है, इसलिए उसकी छाती में (दुगनी गर्मी से) फफोले फूट पड़े हैं। तीसरे में प्रिय के हजार वायदे किये गये थे, पर वे नहीं आये। स्पष्ट है कि हर माह की प्रकृति से उत्पन्न अनुभव ही जो प्रिय के कारण संयाग-सुख देते थे अथवा जिनकी पीड़ा महसूस नहीं होती थी।
प्रिय के प्रवास से पीड़क हो गये हैं।बारहमासी एक ऐसी विशिष्ट विधा है, जिसमें विरहिणी अपने प्रिय को कभी नहीं भुला पाती। उसमें जहाँ विरह की पीड़ा का घनत्व मिलता है, वहाँ काव्यत्व का सहज अभिव्यंजन। बुंदेलखण्ड के लोककवियों में बारहमासी लोकगीत लिखने की रूचि रही है।
असाढ़ मास जब लागे सजनी, चहुँ दिस बादर छाये।
मोरा बोले पपीरा बोले, दादुर बचन सुहाये।।
क्वाँर मास की छुटक चाँदनी, बाढ़े सोच हमारे।
घर होते नैनन भर देखते, अउतन कंठ जुड़ाते।।
फागुन मास फरारे मइना, सब सखि खेलें होरी।
जगन्नाथ की बारामासी, गाबैं नंदकिसोरी।।
इन पंक्तियों में क्वाँर का महीना खिली चाँदनी का बताया गया है, जो सुखद है। फिर चिन्ताजनक इसलिए हो गया है कि प्रिय घर में नहीं है। अगर वे घर होते, तो उन्हें नैंना भरकर देखते और कंठ लगाते। इस प्रकार इनमें क्वाँर की चाँदनी को लिया गया है, जबकि प्रथम दो में गर्मी का वर्णन था। उद्दीपन दोनों से होता है, चाहे सुखद हो या पीड़ादायक उदाहरण की अंतिम पंक्ति मंे लोककवि का जगन्नाथ नाम बताया गया है और गायक का नंदकिशोर।
उद्दीपनों का योग
विरह-वेदना की तीव्रता में उद्दीपन अधिक सहायक है। वर्षा ऋतु के बादल विरहिणी को सबसे अधिक सताते हैं। साथ ही साथ वे विरहिणी के दूत बनकर प्रिय के पास जाते हैं और उसका संदेश पहुँचाते हैं। प्रिय को भी प्रिया की तरह वेदना से व्यथित करते हैं और अपनी प्रिया की स्मृति ताजा करते हैं। इन्हीं कार्य-व्यापारों पर आधारित कुछ उदाहरण देखें-
जिनके पिया परदेस बसत हैं, अँसुअन भींजे गुलसारी।
जिनके पिया परदेस बसत हैं, छाई महल अँधियारी।।
ओ कजरारे बादरा सुनियो मो संदेश।
मो दुखिनी के छाये हैं, सजना काऊ देस।।
जो कारौ रूप डरावनों, अपनो उतईं दिखाव।
जी डर सइयाँ आ मिलें, ऐसो रचो उपाव।। ओ कजरारे…।
मो दुखिनी की तुम करो, इतनी कऊँ सहाय।
तौ आँखन में राखहौं, कजरा तुमें बनाय। ओ कजरारे….।।
दूसरे उदाहरण में बादल एक दूत की तरह है, जिसे विरहिणी अपना डरावना रूप अपने प्रवासी को दिखाने के लिए कहती है, ताकि उसके प्रिय डरकर उससे आकर मिल लें। यदि बादल उसकी इतनी सहायता करता है, तो वह उसे आँखों में काजल बनाकर बैठा लेगी। वर्षा ऋतु के बाद दूसरी ऋतु बसंत है, जो विरहिणी को सदा दुख देती आयी है। कोयल का बोलना अकेली विरहिणी को भयभीत करता है। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा का मेघ। विरहिणी कहती है-
ऐसे बोल न बोल कोयलिया,
अकेली मोये डर लागे।
गुइयाँ अब होरी को लागो महिनवा।
एरी हाँ, मोरे अजहूँ न आये सजनवा।
बनतागन होरी खेलें पिया संग, अपने री अपने भवनवा।गुइयाँ.।
कोइल मोर बोल तन छेदत, बेधत बदन मदनवा।गुइयाँ।….
होरी का महीना और स्त्रियों का अपने प्रिय के साथ होरी खेलना विरहिणी के मन को दुख देते ही हैं। साथ ही कोयल और मोर के बोल मन को छेद डालते हैं और काम तन को घायल कर देता है। इस प्रकार वर्षा और वसंत के सारे संभार विरहिणी को सालते हैं, क्योंकि उसके मन में काम-भावना उद्दीप्त करते हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल