बुन्देलखंड मे फागों, सैरों और लावनियों की फड़बाजी के कारण Aadhunik Lokkavya Ka Prachalan दो दशक बाद आया। 1921 ई. में मऊरानीपुर (जिला – झाँसी) में एक सत्याग्रह शुरू हुआ था, जिसे घुड़सवारी पलटन द्वारा रौंदा गया था। अतएव यहाँ लोककाव्य का आधुनिक काल 1921 ई. से 1947 ई. तक और 1948 ई. से 1998 ई. तक दो भागों मे विभाजित किया गया है। पहले को आन्दोलन-काल और दूसरे को गणतन्त्रा-काल नाम देना भी उचित है।
बुन्देलखंड मे आधुनिक लोककाव्य का प्रचलन
आन्दोलन-काल मे बलिदानी राष्ट्रीयता का लोककाव्य प्रचलित रहा है, जो बाद में अहिंसक राष्ट्रीय चेतना के काव्य में ढल गया था। फाग, सैर और लावनी का काफी मात्रा में प्रचलन रहा। साथ ही राष्ट्रीय लोकगीत भी गाए जाते रहे। राष्ट्रीय लोककाव्य आन्दोलन काल की संघर्षधर्मिता के लिए अनिवार्य था।
विदेशी संस्कृति और अपसंस्कृति के आक्रमण से रक्षा के लिए संस्कारपरक लोकगीत प्रचलित हुए और भौतिकता के मूल्य के विरोध मे भक्तिपरक गीतों ने महत्त्वपूर्ण सन्तुलन बनाए रखा। भोग-विलास की प्रवृत्ति ने श्रृंगारपरक गीतों को प्रश्रय दिया, जबकि वर्तमान समस्याओं के आलेखन मे समस्यापरक एवं यथार्थपरक गीतों का विकास हुआ। अपसंस्कृति के विरुद्ध संस्कृतिपरक गीतों को मान्यता मिली, जिनमें लोकोत्सवी गीत भी सहयोगी बने।
ऋतु और कृषि-परक गीत तो हर युग मे प्रचलित रहे। वर्तमान की रंजनपरक प्रवृत्ति के कारण मनोरंजपरक गीत गाए गए। आख्यानक गीतों की जरूरत होती है कथा के द्वारा मूल्यों की सीख देने के लिए, जो इस मूल्यहीन युग के लिए महत्त्वपूर्ण थे। इस प्रकार इस कालखंड मे विविध प्रकार का लोककाव्य फूला-फला। यह बात अलग है कि बुन्देली लोकभाषा के साथ हिन्दी का लोककाव्य भी प्रचलित रहा। यहाँ इस युग के लोककाव्य की विभिन्न प्रवृत्तियाँ संक्षिप्त रूप मे प्रस्तुत हैं।
संघर्षधर्मी राष्ट्रीयता
आन्दोलन-काल के लोककाव्य की मुख्य प्रवृत्ति संघर्षधर्मी राष्ट्रीय चेतना थी, जो दो रूपों में मिलती है। एक तो फड़परक लोककाव्य मे और दूसरे लोकगीतों में। फड़परक लोककाव्य में फाग, सैर और लावनी प्रमुख हैं, जिनमें देशप्रेम, मात भूमि बुन्देलखंड के प्रति प्रेम, संघर्ष की ललकार, स्वदेशी का प्रसार और गाँधी का यशोगान मुख्य विषय थे। सैरकाव्य में भी राष्ट्रीय विचारधारा को महत्त्व मिला है। लावनी और कवित्त गायकी मे राष्ट्रीयता का मुखर स्वर प्रभावकारी रहा है।
अन्योक्ति और प्रतीकों के द्वारा राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति अप्रत्यक्ष रूप मे हुई, जो अंग्रेजों के आतंक के भय का परिणाम है। लोकगीतों मे सबसे अधिक गाँधी-प्रशस्ति के हैं, जिससे स्पष्ट है कि लोककाव्य ने गाँधीजी के योगदान का समादर किया है और श्रद्धा व्यक्त की है। संघर्षपरक लोकगीत भी कम नहीं हैं, जो अपने स्वर में काफी मुखर हैं। देश की दुर्दशा के गीतों में आर्थिक, प्रशासनिक, अकाल-सम्बन्धी दशा का यथार्थ चित्रण है। साथ ही अंग्रेजों की कूटनीति और चारित्रिक पतन को भी स्पष्ट किया गया है।
इसी समय गाँधीजी की अहिंसक राष्ट्रीयता के अन्तर्गत स्वदेशी आन्दोलन, खादी, सत्याग्रह और नमक आन्दोलन आदि के गीत भी प्रचलित थे। स्वदेशी वस्त्र पहनना और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार युद्धस्तर पर किया गया था और लोकगीत भी गाए गए थे। यहाँ तक कि विवाह-संस्कार में बन्नी को ‘सुदेसी साड़ी’ का पहनना और विदेसी की वापसी एक संस्कार ही बन गया था। अतीत-प्रेम, देश-प्रेम, हिन्दू-मुस्लिम-एकता आदि के लोकगीत भी प्रचलित रहे।
सांस्कृतिक राष्ट्रीयता
गणतन्त्र-काल मे अहिंसक राष्ट्रीयता के सभी रूप विकसित हुए और लोकगीतों मे टँक गए। विदेशी संस्कृति के खिलाफ सांस्कृतिक राष्ट्रीयता ने अपनी जिम्मेदारी सँभाली। विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों और धर्मों में समभाव, समन्वय और एकता के लोकगीतों में सबसे अधिक महत्त्व था। जनपद और देश के प्रति प्रेम-भाव में कोई भेद नहीं था, क्योंकि जनपद देश के अंग हैं और जनपद की संस्कृति और साहित्य से ही देश की संस्कृति और साहित्य बनते हैं। अतएव लोकगीतों में जनपद के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति होती रही। गाँवों की समस्याओं में जमींदार द्वारा बेगार कराने को प्रधानता मिली। गाँधीजी की एकता की नीति को बार-बार दुहराया गया।
चीन और भारत अथवा पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध के समय संघर्षपरक गीतों का ओजस्वी रूप भी उभरा। असल में, लोककाव्य मे वही कथ्य अभिव्यक्ति पाता है, जिसे लोक की जरूरत है। चाहे वह स्थायी हो या अस्थायी। इसी वजह से जब देश की संस्कृति पर बाहरी संस्कृति के हमले हुए, तब लोककाव्य ने अपने सांस्कृतिक आदर्श गाने शुरू कर दिए, अपने संस्कार प्रसारित करना उचित माना और सांस्कृतिक प्रदूषण से मुक्ति के लिए प्रयत्न किए।
पारिवारिक एवं सामाजिक यथार्थ
विवाह परक लोकगीतों मे पारिवारिक और सामाजिक यथार्थ के चित्र मिलते हैं। पहले संयुक्त परिवार में सास का राज्य रहता था, पर आधुनिक काल में बहुओं की तानाशाही के साक्षी आधुनिक लोकगीत हैं। एक गीत मे बहुएँ सास से चकिया पिसवाती हैं और जिठानी से दही भमवाती हैं। यदि उनका कहना नहीं माना जाता, तो दो चूल्हे करने की धमकी देती हैं। इस तरह से परिवार का विभाजन हो जाता है। एक-दूसरे गीत में लड़के वाले (बयाना) ठहरौनी करने के बाद ही विवाह करते हैं। यह समस्या आधुनिक काल में बहुत कठिन हो गई है। इन्हीं कारणों से परिवार में विभाजन और टूटन की दशा है, जिसका वर्णन लोकगीतों मे मिलता है।
जमींदार द्वारा बेगार करवाना, उनका आर्थिक और सामाजिक शोषण भी लोकगीतों की विषयवस्तु रही हैं। सामाजिक शोषण का अर्थ है समाज मे अवमानना। दलित वर्ग तो शोषित ही है, गाँवों मे प्रचलित लोकगीत इस तथ्य की गवाही देते हैं। ब्राह्मण और वैश्यों की लूट की बात व्यंग्यपरक गीतों की पंक्तियों मे स्पष्ट है। भक्तिपरक गीतों तक में पंडों और बनियों (व्यापारियों) पर चुटीले व्यंग्य किए गए हैं। विशेषता यह है कि यथार्थ के चित्रण में कोई पूर्वाग्रह या प्रतिबद्धता नहीं है।
भोगपरक श्रंगारिकता
आधुनिक काल में भौतिकता की प्रवृत्ति के साथ भोग-विलास की तीव्र लालसा प्रधान रही है, इसी कारण श्रंगारपरक लोककाव्य की समृद्धि मिलती है। यहाँ तक कि एक गीत में ‘ज्वानी को सिंगार’ कहकर यौवन को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। श्रृंगार-प्रसाधनों को चुनौती देनेवाली रूपगर्विता का रूप ही सब कुछ है। जो उसे देखता है, उसका सेवक बन जाता है।
संयोग में मिलन, मान-मनुहारों और क्रीड़ाओं के उत्सव होते हैं, रसिकता के द्वार खुलते हैं और भौंरे पूरी आजादी के साथ कलियों का रस लेते हैं। एक गीत में रूप रंग के लोभी भौंरे को कली-कली का रस लेते हुए भोगी रसिक का प्रतीक माना गया है। कई गीतों में विलास या भोगोन्मुखी रसिकता है, जिससे भोगपरक श्रृंगारिकता ही मुखर हुई है।
अपसंस्कृति की प्रगति
इस समय के कई लोकगीतों, खासतौर से गारीगीतों मे अपसंस्कृति के रूपों की चर्चा की गई है। अंग्रेजी पढ़कर उसे घर मे बोलना, फैशन का श्रृंगार, अंडा-मुर्गा खाना, मियाँ-बीबी का साथ घूमना, ब्याही पत्नी को छोड़कर दूसरी पत्नी रखना, धर्म-कर्म पर विश्वास न करना, कन्याएँ बेचकर धन कमाना आदि अपसंस्कृति के प्रमुख उदाहरण हैं। भोजन, भाषा और संस्कार की भ्रष्टता का अर्थ है अपसंस्कृति का भीतर की संस्कृति को विनष्ट करना, जो भारतीय अस्मिता तक को नष्ट करने की साजिश है।
आधुनिक समाज की आधुनिकता इसी अपसंस्कृति को अपनाकर बनी है। इसी कारण लोककाव्य ने अपसंस्कृति पर करारे प्रहार किए हैं और उसके विरोध मे रचनात्मक अपील के रूप मे अनेक लोकगीत, गारीगीत आदि प्रचलित हैं। संस्कृतिपरक गीतों मे लोकाचारों, लोकप्रथाओं और सांस्कृतिक मूल्यों का वर्णन है। लोकोत्सवी लोकगीतों में भी भारतीय संस्कृति के समवाय (पैटर्न्स) मिलते हैं, जो समाज मे एकता और भाईचारे की भावना लाते हैं।
कृषिपरक जीवन का यथार्थ
कृषि पर निर्भर कृषक जीवन के यथार्थ-चित्रण के साक्षी कई लोकगीत हैं। सूखा पड़ने पर किसान को लगान चुकाना कठिन हो जाता है। ऋणग्रस्तता के कारण पशुओं को महाजन ने पहले ही ले लिया था, अब तो केवल पत्नी बची है। नदीगाँव के लोककवि वजीर ने किसान के बारे में एक गारी गीत रचा था, जो लोकगीत के रूप में पूरे अंचल मे प्रचलित हो गया है।
उसने किसान की छाती को ‘बज्जुर’ यानी बज्र की माना है। किसान भोर से बैल चराता है, दिनभर खेतों मे काम करता है, समय पर भोजन नहीं पाता, पटवारी और जमींदार सरकारी भुगतान माँगते हैं तथा किसान चुका नहीं पाता। एक दूसरे गीत मे किसान की पत्नी की वेदना है कि उसने हमेशा मजदूरी की है और सुख से रोटी कभी नहीं खा पाई तथा यही किसान के जीवन का जीना है। इस रूप मे किसान के जीवन का यथार्थ लोकगीतों मे व्यक्त किया गया है। किसान का शोषण गाँवों की प्रमुख समस्या है, जिसे हल करना सबकी जिम्मेदारी है।
भाषा-रूप मे परिवर्तन
पहले लोकगीतों की पहचान लोकभाषा से होती थी और उसी से अंचल का पता चलता था। यहाँ तक कि हिन्दी के आंचलिक उपन्यासों में एक-दो पात्रों के कथोपकथन लोकभाषा में दिए जाते थे। वस्तुतः आंचलिकता का तत्त्व लोकभाषा से सजीवता पाता था। अब लोकगीतों के भाषा-रूप मे परिवर्तन होने लगा है और यह परिवर्तन तीन प्रकार है। शब्द मे परिवर्तन, मिश्रित भाषा-रूप और हिन्दी भाषा-रूप। सबसे पहले शब्दों में परिवर्तन हुआ।
बुन्देली शब्दों नैचैं, मोरे, रस, गरए की जगह नीचे, मेरे, कस, गढ़े रे पैठ गए। पहले दो शब्द बुन्देली के थे, जिनके स्थान में हिन्दी के शब्द आ गए। शेष दो शब्दों का रूपान्तरण अर्थ की दृष्टि से उपयुक्त नहीं था। मिश्रित भाषा-रूप में अगर दो पंक्तियाँ बुन्देली की हैं, तो एक या आधी पंक्ति हिन्दी की होती है। तीसरे प्रकार के परिवर्तन में दो-तीन शब्द बुन्देली के हैं, शेष सब हिन्दी के हैं। आज की नवयुवती हिन्दी भाषा-रूप ही प्रयुक्त करती है, किन्तु बुन्देली के लोकगीतों का प्रचलन अभी कुछ वर्षों से काफी बढ़ा है।
संगीतात्मकता के प्रति जागरूकता
इस कालखंड मे फाग, सैर और लावनी की लोकगायकी फड़ों पर प्रतिष्ठिति थी, जिससे उनके साहित्य के साथ उनकी संगीतात्मकता का भी मूल्यांकन होता था। यही कारण है कि जिस तरह साहित्य मे चमत्कारिकता बढ़ी, ठीक उसी तरह गायकी मे लयकारिता। इसी तरह मंज, लेद और सैरा (आल्हा) मे भी लोकगायकी का महत्त्व रहा है। चैकड़िया में अधिकतर काफी थाट के स्वर लगते हैं। लावनी एक उपराग या देशी राग है। लाउनी चंग के साथ गाई जाती है और उसमें लय ही प्रधान है।
सैर की तरह लावनी में भी दुअंग, चुअंग, अठंग आदि के द्वारा गायकी का माधुर्य सुरक्षित रहता है। मंज पुराना छन्द है। मंज और तड़ाका मिलाकर फड़ जमा करते थे, लेकिन अब उनका प्रचलन नहीं है। सैर गायकी इस जनपद की मुख्य गायकी थी और आज तक प्रचलन मे है। लेद लोकगायकी अब शास्त्रीय मे ढाल दी गई है। विभिन्न लोकगीतों की लोकगायकी भी संगीतात्मकता के बिना अपूर्ण-सी है। अब तो लोकगीतों के मंच पर आसीन होने से उनकी संगीतात्मकता के प्रति सचेतनता बढ़ने लगी है।
अभिव्यक्ति में अभिधा और व्यंजना का मेल
फागों में अभिव्यक्ति पक्ष का महत्त्व रहा है। उनमें पर से अभिधा रहती है, पर भीतर से व्यंजना का चुटीलापन उसे आनंदमय बना देता है। सैर और लावनी में तो चमत्कार के रूप मे अलंकरण का प्रयोग होता है। केवल अभिधा मंच पर टिक नहीं सकती। हास्य-व्यंग्य-परक लोककाव्य में व्यंजना का प्रयोग अनिवार्य-सा है। विवाहों की पंगत में मनोरंजनपरक गारियों का चलन है, जिनमें समधियों और सम्बन्धियों पर व्यंग्य-वाण छोड़े जाते हैं।
लोकगीतों की अभिधा सीधी तीर की तरह हृदय में बहुत गहरे तक घुसती जाती है बुद्धि की अपेक्षा हृदय को प्रभावित करती है। लेकिन व्यंजना मे बुद्धि को कौंचने की क्षमता होती है। अतएव लोककाव्य में अभिधा और व्यंजना का मेल हृदय और बुद्धि, दोनों का संघटन प्रस्तुत करता है, जो अभिव्यक्ति का आदर्श रूप है। अनगढ़, सहज, प्रकृत, अनलंकृत, अकृत्रिम जैसे विशेषण लोककाव्य की अभिव्यक्ति को विभूषित करते हैं।
अभिधा , लक्षणा और व्यंजना
ये तीनों काव्य की शक्तियाँ हैं।
1- सूरज उगते समय लाल रंग का होता है.( अभिधा… सीधापन / सामान्य अर्थ।
2- सूरज की अरुणिमा देखते ही बनती है (लक्षणा )
3- लाल गेंद -सा सूरज लुड़कता आ रहा है…(व्यंजना )
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल