इस कालखंड में बुन्देली लोकगीतों की विविधता इसलिए मिलती है कि लोक और लोककवि, दोनों लोकचेतना के प्रति सचेत रहे हैं। इसी काल मे Bundeli Aadhunik Vividh Lokkavya फाग,सैर, लावनी, यथार्थपरक, समस्यापरक, संस्कृतिपर (लोकोत्सवी ) ऋतु परक, कृषिपरक, लोककाव्य,मनोरंजन परक (बाल, खेल, हास्य गीत) कथागीत या आख्यान लोककाव्य की रचना हुई ।
बुन्देलखंड का आधुनिक विविध लोककाव्य
इस सचेतनता के दो कारण स्पष्ट हैं। एक तो विदेशी और अपभ्रष्ट संस्कृति का हमला, जिससे इस युग का सतर्क साहित्यकार अपनी भूमि के और जन-जन के साहित्य से जुड़ा। दूसरे, यह युग प्रजातान्त्रिक मूल्यों का था, जिससे सर्जक साहित्यकार ने लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य को पहचाना, अपनाया और महत्त्व दिया।
वस्तुतः यह युग अपने आत्म को पहचानने का था और उस आत्म-परीक्ष में लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य का पलड़ा भारी था। इसी काल मे लोकसाहित्य में गम्भीर शोध की नींव पड़ी। साथ ही लोकगीतों में भी विविधता आई।
बुन्देलखंड मे फागकाव्य, सैरकाव्य और लावनीकाव्य के सृजन की निरन्तरता बनी रही। 19वीं शती के उत्तरार्द्ध से लेकर आन्दोलन-काल और गणतन्त्र-काल तक अर्थात् अब तक इनके सृजन की एक दीर्घ परम्परा रही है और अभी इस समकालीन कविता के युग में इस जनपद के हर गाँव में फाग के गायक-दल और फागकार मिल जाएँगे। तात्पर्य यह है कि फाग, सैर और लावनी के सृजन का अनुमान लगाना कठिन है।
इस युग में विज्ञान की प्रगति के कारण लोकजीवन और लोकदृष्टि में भी बदलाव आया, जिसके फलस्वरूप यथार्थपरक लोकगीतों का प्रचलन अधिक रहा। समस्यापरक लोकगीत भी उन्हीं के अंग थे। अपसंस्कृति के विरोध में लोकोत्सवी और संस्कृतिपरक लोकगीत प्रचलित हुए, जो आदर्शोन्मुख थे। तीसरे क्रम में ऋतुपरक गीत-माला रखना उचित है और चैथे क्रम में अन्य लोकगीतों की गणना रहेगी। इस प्रकार निम्नानुसार विभाजन करना उपयुक्त है।
फाग-सैर- लावनी लोककाव्यय
थार्थपरक लोककाव्य (समस्यापरक सहित)
संस्कृतिपरक लोककाव्य (लोकोत्सवी सहित)
ऋतु और कृषि-परक लोककाव्य
मनोरंजन परक लोककाव्य (बाल, खेल, हास्य गीत)
कथागीत या आख्यान लोककाव्य
सबसे पहले फाग-सैर-लावनी के फड़काव्य का परीक्षण जरूरी है। फड़काव्य में दो विशेषताएँ प्रमुख हैं। एक तो प्रतिद्वन्द्विता या होड़, जो दो गायक दलों में होती है और दो या दो से अधिक दल अपने विशिष्ट चमत्कार के द्वारा विजय पाना अपना लक्ष्य मान लेते हैं। चमत्कार उत्पन्न करने के लिए छन्द के विषय या गायन में अलंकरण या लयकारिता की नवीनता जोड़नी पड़ती है। दूसरी विशेषता है सामूहिक भागीदारी, जो एक खासा अभ्यास चाहती है।
फागों, सैरों और लावनियों में श्रृंगार, भक्ति, समाज, राष्ट्र आदि सभी प्रकार के विषय मिलते हैं। फागों और सैरों में श्रृंगारकी अधिकता है, और लावनियों में भक्ति की। वैसे फाग की चैकड़िया मुक्तक की तरह प्रयुक्त होने से उसमें लोक का यथार्थ खूब उभरा है, चुटीले व्यंग्यों की अभिव्यक्ति हुई है और समाज की पीड़ा के चित्र अंकित हुए हैं। सैरों में भी नए विषयों का समावेश हुआ है। लावनियों या ख्यालों में भी व्यंग्यों की भरमार है।
सूरत देखी लली तुम्हारी, पीर भई उर भारी।
गोरो बदन गुलाब कली सी, खिली उमर है बारी।
उठत उमंग रंग की बिरियाँ, बिपत बिधाता डारी।
ब्याकुल बलम जनम के रोगी, ढूँड़े बाप मतारी।
रामसहाय तजत ना तउपै, धन भारत की नारी।।
जो कोउ ईके दस बीस रुपया लेबै।
तो कभऊं चुकें ना चहे जनम भर देबै।
कोऊ देत देत मर जाय यों समझा देबै।
जो तो चुकता हो गओ सवाई सेबै।
यों लेबै ब्याज की त्याज और घर घेरै।
बो हगै गली में और गुरेराँ हेरै।।
पहले उदाहरण मे अनमेल विवाह की सामाजिक समस्या को वाणी दी गई है। इस फाग की अन्तिम कड़ी में भारतीय नारीत्व की इस विशेषता का भी संकेत है कि पति चाहे जैसा हो, पर नारी उसे त्यागती नहीं। दूसरे उदाहरण मे जमींदार द्वारा रुपए उधार दिए जाने पर वह जीवन भर में नहीं चुक पाता। लावनी मे जमींदारी की दोषपूर्ण और निष्ठुर स्थिति को स्पष्ट रूप में व्यक्त करना एक साहस का काम है।
पुरानी परम्परा के लोकछन्दों में लोकजीवन के यथार्थ को अभिव्यक्ति लोककवि की कुशलता की साक्षी है। लोकगीतों में लोकजीवन का यथार्थ तो रहता ही है । सामाजिक यथार्थ से सम्बद्ध पारिवारिक यथार्थ के गीत ही अधिक हैं। वास्तव में, लोकगीत की पहुँच परिवार तक रही है। इस कारण समस्याएँ भी पारिवारिक हैं। आर्थिक समस्याएँ सदा आहत करती रही हैं।
जाँ दिन ईके घर में आई, सुख सें रोटी कभउँ न खाई,
मैंने मुद्दत करी पिसाई, ऐसें जीबो है जिन्दगी किसान की।
गाँव गाँव चक्की चली, बहुएँ भईं सुकुमार।
काम दन्द की हैं नहीं, पै लरबे खों तैयार रे।।
डुकरा तोखों मौत कित ऊँ नइयाँ।
डुकरा की खाट मरेला में डारी, मरेला के भूत लगत नइयाँ। डुकरा.।।
डुकरा की खाट बमीठे पै डारी, करिया नाग डसत नइयाँ। डुकरा.।।
लाज धूर में दई मिला।
जो क ऊँ पति तनकऊँ ललकारै तो उल्टी परै झुँझला। लाज.।।
परसुरसन में आँख लड़ाबै बैठी मुसकाबै अटला। लाज.।।
पिया पत्नी लै आए देहरादून की, सौत बुरई होत चुन की।
अब तो कैसें होय गुजारो, आकें कर दओ हम खों न्यारो,
आली छीन लओ सुख सारो, बात मोसों करत कानून की। पिया.।।
पहले उदाहरण मे एक कृषक की पत्नी के द्वारा किसान-जीवन की पीड़ा व्यक्त हुई है। दूसरे दिवारी गीत में चक्की चलने से बहुओं का सुकुमार होना और काम-काज की न रहने पर लड़ने को तैयार हो जाना आज की नारी की ताजा स्थिति है। तीसरे मे वृद्धावस्था की परिवार में दुर्दशा का आख्यान है। चैथे में पत्नी का पति पर झुँझलाना और दूसरे पुरुषों से आँख लड़ाना निर्लज्जता का साक्षी है। पाँचवें में सौत आने की पीड़ा व्यक्त की गई है। इस प्रकार आज के पारिवारिक जीवन की वास्तविकता प्रतिबिम्बित हुई है।
समस्याओं में बाल-विवाह, अनमेल विवाह, अफीम, तम्बाकू आदि का नशा तथा जुआ की समस्या का कोई उपचार नहीं है। समस्या धीरे-धीरे सुरसा की तरह मुँह फैला देती है और समाज के लिए नासूर बन जाती है। उसका परिणाम व्यक्ति एवं समाज, दोनों को भोगना पड़ता है।
चार दिना खों मायके जैहों, बाबुल सें कैहों समझाय।
पिया तमाखू छोड़त नइयाँ, जो घर रहै कै जाय।
तुम सुनो परोसन गुइयाँ री, ज्वाँरी है हमरे सैंयाँ।
जुवा खेलत हैं निस दिन, दाँव लगाकें गुइयाँ।
बेंदी हारे छल्ला हारे हार गए नाथुनियाँ।
तब फिर आए बहुत सिपाही, पकड़कें लै गए बैयाँ।।
पहले में घर का विनाश बताया गया है, तो दूसरे में व्यक्ति का। बहरहाल, इन समस्याओं के परिणाम विनाशकारी ही होते हैं। समस्यापरक लोकगीत भले ही बुरे फल की सूचना न देते हों, पर उनका उद्देश्य व्यक्ति, परिवार और समाज का चेतावनी देना रहा है। इसी तरह फैशन की अपसंस्कृति के खिलाफ समाज में जागरूकता लाने के लिए कई लोकगीत गाए गए थे। गारीगीत इन सबमे अधिक लोकप्रिय रहा है। बुन्देलखंड में गारियों की पुस्तकें अब तक गा-गाकर बेचने की प्रथा-सी रही है।
संस्कृतिपरक लोकगीतों का महत्त्व आधुनिक युग में इसलिए रहा है कि आज की अपसंस्कृति से रक्षा करने और सांस्कृतिक मूल्यों को प्रसार देने के लिए उनकी आवश्यकता थी। संस्कृति के लोकाचारों, प्रथाओं और लोकोत्सवों की चेतना जाग्रत करने के लिए लोकगीतों से सरल, सहज और लोकप्रिय माध्यम दूसरा नहीं है। हमारे चयन की सीमा यह है कि हमने लोककवियों की उन रचनाओं को छोड़ दिया है, जो लोकप्रचलन में नहीं आ सकी अथवा जो लोकगीतों के अभिधान को कलंकित करती है। यहाँ संस्कृतिपरक लोकगीतों के अंशों को प्रस्तुत कर उनकी वस्तुगत समीक्षा की जा रही है…..
पढ़ लई अँगरेजी नई फैसन बनाई, कै धन्न मोरे भाई। टेक।।
बे तो अंडा मुरगा नित खायँ, घूमन साइकिल पै जायँ,
इंगलिस में बोलें माई डियर माई, कै धन्न मोरे भाई। टेक।।
इनके हाल न रुजगार, भूखन मरत है घरबार,
ब्याहता कों छोड़ दुसरी कर लई लुगाई, कै धन्न मोरे भाई। टेक।।
धरम करम की रीत न जानें बुद्धि पाप मे लिपटानी।
कन्या बेचें रकम गिनाएँ पुन्न धरम जस की हानी।
कहते हम हैं हिन्दुस्तानी।।
इन अंशों मे भोजन, बोली, संस्कार आदि की भ्रष्टता का उल्लेख किया गया है। अंग्रेजों के अनुकरण से खान-पान, वेश-भूषा, मातृ भाषा और संस्कारों का त्याग कर दूसरी औरत रखना तथा कन्या बेचकर धन कमाना अपभ्रष्ट संस्कृति के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जो नित्य घटित होते रहते हैं। इस अपभ्रष्ट संस्कृति के विरोध में लोकगीतों की रचनात्मक अपील की गई है …
काए खों बैन पलट घर जातीं हम तुम दोऊ मिल रैबू लाल।
तुम लुहरी हम जेठी जो कइिए राखें तुमारो दुलार मोरे लाल।
हम कारीं तुम गोरी जो कहिए तुमरोई चलहै नाँव मोरे लाल।
इतनी सुनकें गंगा उमड़ीं दोई मिल संगै हो गईं मोरे लाल।
गंग जमुन दोइ बहनें मिलकें जगतारन हो गईं मोरे लाल।।
इमलिया अरे पत्तों की घनी रे,
पत्तों की घनी रे, जहाँ काटी अबेरा राजा राम रे, इमलिया अरे हो…। ।
सड़क पै अरे अमवा तो लगाउती रे,
अमवा लगाउती उर घटियन लगाउती कचनार रे, सड़क पै अरे हो…। ।
घर होती आदर कर लेती, घर होती।
सान्ति सिंघासन कान्ति सिंघासन,
मन मन्दिर मे बिठा लेती, घर होती। घर.।।
पति अन्धा या कोढ़ी होय, बुरा पन्थ नहिं चलियो कोय,
सेवा करियो पति खुस होय, पति चरणों में प्रान तुम गमाओगी।
अन्त समै सुख पाओगी।।
पहले उदाहरण में गंगा-जमुना नदियों का संवाद है। दोनों मिलकर संसार भर को मोक्ष देती हैं। इसी प्रकार बृक्षों की छाया में जीवन के संकट तक कट जाते हैं। आज के इस शोध में पहले दोनों पर्यावरण की लोकसंस्कृति को संकेतित करते हुए रचनात्मक सुझाव देते हैं।
मनुष्य के हितैषी दोनों हैं, चाहे नदियों की जलधाराएँ हों और चाहे वृक्षों के पुंज। तीसरे उदाहरण मे आतिथ्य की सांस्कृतिक प्रथा है। चौथे में पातिव्रत्य के सांस्कृतिक मूल्य को वाणी मिली है। इस प्रकार संस्कृतिपरक गीतों में लोकाचार, संस्कृति की प्रथाएँ और संस्कृति के लोकमूल्य का घनीभूत रूप दिखाई पड़ता है।
लोकोत्सवी लोकगीत और लोकोत्सव संस्कृति के प्रमुख अंग हैं। वे संस्कृति के आदर्श और मूल्य समाज तक पहुँचाने के विशिष्ट सोपान हैं। अतएव संस्कृतिपरक लोककाव्य मे उनकी सहभागिता विशेष महत्त्व रखती है। होली, दिवाली जैसे लोकोत्सव समाज के सभी वर्गों में एकता लाते हैं, भाईचारे की भावना उत्पन्न करते हैं और समाज-निर्माण में सहयोग करते हैं।
हर खोरें दोरें दोरें हैं घनी नीम की छैयाँ।
तिनके तरें खेलतीं बिटियाँ आगें धरें पुतैयाँ।
ता दिन घरन घरन मे नारी घर घर तपें रसइयाँ।
चैक पूर कुड़वारो धरतीं बूड़ी बूड़ी डुकैयाँ।…
देखो रसिया छैला होरी को, रसिक संवादी गोरी को।
केसर नीर सीस में डारत, खेल करत बरजोरी को।
खेलत फाग कोऊ भाग न जाबै, पकरत उन्ना कोरी को।…
पहला उदाहरण अखती (अक्षय तृतीया) का है और दूसरा होली का। दोनों की विशेषता है सामूहिक सहभागिता। पहले नारियाँ और कन्याएँ, दोनों सामूहिकता मे लोकोत्सव मनाती हैं, जबकि होली में नर और नारी, जो भी कोरा (रंगविहीन) होता है, उसी को रँग से रँग दिया जाता है, चाहे वह जिस जाति, वर्ग और सम्प्रदाय का हो।
बारामासी लोकगीत विरहिणी के वियोग को उद्दीप्त करनेवाले बारह महीनों की प्रकृति ही है। इन बारामासी गीतों में कुछ लोककवियों के नाम की छाप अंकित है। एक-दो उदाहर……
जेठ असाड़ घुमड़ घन गरजै
बिजली चमकै पानी बरसै
बिरहन खड़ी अँगनवा तरसै
कब आहैं नन्दलाल, मैं तो हो रई बेहाल, तनक परै न रहाई।
स्याम सुध आई, स्याम घटा छाई, रातें नींद न आई।।
जेठ मास की तपै दुपारी
ताती गेरउँ चलत बयारी
बहत पसीना तर नर नारी
जो घर होते कन्त मुरारी
कन्त हमारे जो घर होते अँचरन करत बयारी।
स्याम सुन्दर सें हारी हमारी दीनी सुरत बिसारी।।
उक्त दोनों उदाहरणों में जेठ की प्रकृति का वर्णन है। पहले मे पानी बरसने का, तो दूसरे मे गर्मी की तपन का। पहले में स्याम (काली) घटा छाने से श्याम (कृष्ण) की याद उसकी नींद में बाधा बनती है, जबकि दूसरे में गर्मी में कान्त के होने पर नायिका अपने आँचर से हवा करने को तैयार है। ये बारामासी गीत बुन्देली और हिन्दी, दोनों भाषा रूपों मे हैं।
बारामासी दुखान्त और सुखान्त, दो प्रकार की हैं। दुखान्त में विरहिणी से प्रवासी नायक का मिलन नहीं होता और बारह महीने पीड़ा की कथा कहते रहते हैं। सुखान्त में ग्यारह महीने वेदना के हैं, तो बारहवाँ प्रियतम से मिलन के कारण सुख मे परिणत हो जाता है।
बारामासी मूलतः ऋतुपरक गीत था, पर बाद मे वियोग-व्यथा का उद्दीपक बन गया। यह कहना कठिन है कि परिवर्तन की यह घटना कब घटित हुई। इतना निश्चित है कि बारामासी या बारामासा लोककाव्य की ही देन है। एक बारामासी गीत में कृषि के सम्राट कृषक के जीवन के बारह महीनों का वर्णन है, जो रूढ़िबद्ध बारामासी गीतों से हटकर है और उसे कृषिपरक गीतों के साथ प्रस्तुत करना उचित है।
ऋतुपरक लोकगीतों में सावन पर गाए जानेवाले ‘सावन’ गीतों की संख्या अधिक है और उनके अन्तर्गत झूला या हिंडोला गीत भी परिणित किए जाते हैं। सावन गीतों का विषय मूलतः वर्षा है और वर्षा के मौसम में झूला झूलने का उपक्रम एक लोकोत्सव जैसा है। एक सावन गीत का अंश…..
देखो सखि पावस की अधिकाई। टेक।।
पिय बिन मोरे चित चैन परत नहिं, बिरह पीर सरसाई।
हरे हरे द्रुम पल्लव सब फूले
लता झपक सावन पर झूले
झिरना झिरत श्रवत निरमल जल, पवन चलत पुरवाई। टेक।।
उक्त पंक्तियों मे अधिकाई, श्रवत, निर्मल आदि शब्द लोकशब्द नहीं हैं, वरन् वे आधुनिक काल के तत्सम हिन्दी शब्द हैं। ‘द्रुम पल्लव का फूलना’ से आशय हर्षित होना है और लता का हवा मे हिलना उसके झूलने जैसा है। ये सब उद्दीपन विरह की पीड़ा को सरसाते हैं। सरसाने का अर्थ हरा-भरा या रसयुक्त करना है, जो सावन की पृष्ठभूमि में पीर (पीड़ा) के लिए सर्वथा उपयुक्त है।
कृषिपरक गीतों को ऋतुपरक प ष्ठभूमि की जरूरत है, क्योंकि कृषि का सम्बन्ध ऋतु से होता है और भारतीय कृषि तो ऋतु पर निर्भर थी। इसीलिए जब कृषक हरी-भरी भूमि को देखता है, तो भावुक कवि, कवि की तरह गा उठता है….
धरती माता तैंने काजर दए, सेंदुरन भर लई माँग।
पहर हरियला ठाँड़ी भई, तैंनें जीत लए सिंसार।।
ओ धरती मैया तोरी सोभा बरनि न जाय।।
उक्त पंक्तियों में कृषक का मन उल्लास से भरा है, लेकिन जब फसल न हो और सूखा पड़ जाय, तब किसान को लगान चुकाना कठिन हो जाता है। जमींदार को तो अपनी तिहाई (लगान) चाहिए और किसान को तो चुकाना ही है। उसकी विवशता का चित्रण निम्न पंक्तियों मे देखें….
हमरी कैसें चुकत तिहाई।
मेंड़न मेंड़न हम फिर आए डीमा देत दिखाई।
छोटी छोटी बाल कढ़ी है कूरा रहे फराई।
जिमींदार को आओ बुलौओ को अब करै सहाई।
ठलियाँ बछियाँ साव नें लै लईं रै गई पास लुगाई।।
इन पंक्तियों में जमींदार की सामन्ती मानसिकता पर चोट की गई है। इसके बावजूद किसान बारहों महीने रात-दिन काम करता है, जिसकी झलक बारामासी के अंशों में…
अपने हाँतन बैल चराबैं
दिन भर मरे हार में जाबें
खाबे नहीं टैम सें पाबैं
ऐसी मुस्किल में जान जा किसान की।
रात दिना फिकर काम की।।
इस तरह रात-दिन काम करने पर भी कृषक को जीवन का सुख नहीं मिलता। न तो फसल के रूप मे और न ही आराम के रूप में।
मइना भए अगन के जारी
आडर फिरन लगे सरकारी
माँगें जमा पटेल पटवारी
जौलों पटहै न किस्त परी प्रान की।
रात दिना फिकर काम की।।
स्पष्ट है कि सरकारी आदेश आने पर पटेल और पटवारी आए। समस्या है किश्त चुकने की। रात-दिन काम की चिन्ता का कारण तिहाई बाकी रहना है। कृषक की यह समस्या उसके प्राणों की समस्या है। इस प्रकार कृषिपरक कृषक-जीवन का वर्णन करने मे यथार्थ को नहीं त्यागते।
मनोरंजनपरक लोकगीतों मे बालगीत, खेलगीत और हास्यपरक गीतों को सम्मिलित किया गया है। बालगीतों में मनोविनोद और तुकबन्दी का चमत्कार रहता है। कहीं-कहीं तो व्यंग्य का चुटीलापन मनोरंजन का साधन होता है। बालकों में मनोरंजन के लिए ऊटपटाँग भी माध्यम बनता है। बालोत्सव टेसू में इसी तरह के गीत गाए जाते हैं। बालगीतों के दो-तीन उदाहरण……
बरसै राम झड़ाझड़ियाँ।
खाय किसान मरै बनियाँ।।
नथमल सेठ, हड़िया जैसा पेट।
रात खाई खड़ी, सबेरें फूटो पेट।।
टेसू बब्बा इतईं अड़े
खाने को माँगें दहीबड़े
दहीबड़े मे मिरची भौत
टेसू पौंचे कानी हौज।
पहले मे बनिया और दूसरे में सेठ पर चुटीला व्यंग्य है। किसान उत्पादक और बनिया व्यापारी या दलाल है। एक शोषित और दूसरा शोषक। जब पानी नहीं बरसता, तब व्यापारी की बन आती है। पानी बरसने पर किसान की फसल अच्छी होती है और व्यापारी घाटे में रहता है। दूसरे उदाहरण में सेठ का पेट ही शोषण का प्रतीक है। तीसरे मे तुकबन्दी और व्यर्थ के वर्नन का चमत्कार है। इस प्रकार व्यंग्यों और तुकबन्दी का चमत्कार मनोरंजन का आधार बना है।
पोसंपा भई पोसम्पा
चाय की पत्ती पोसम्पा
डाकुओं ने क्या किया
बँगले का ताला तोड़ दिया
सौ रुपए की घड़ी चुराई
अब तो जेल की बारी आई।
हास्यपरक गीतों को कहीं हँसौआ और कहीं भँड़ौआ कहते हैं। हँसोआ हँसा देनेवाला और भँड़ौआ भाँड़ की तरह हँसा देनेवाला गीत है। बुन्देलखंड में विवाहों की पंगत में मनोरंजनपरक गारियों का चलन है, जिनमें कुछ समधियों और सम्बन्धियों पर फब्तियाँ कसी जाती हैं और कुछ पर व्यंग्यों से परिहास किया जाता है। इतना अवश्य है कि वे बरात के मनोरंजन का सफल माध्यम सिद्ध हुई हैं। एक उदाहरण….
जान न दैहों सजन खों जान न दैहों।
तीन ख्वाब को लहँगा पहराकें पर चूनर उड़ाहौं। सजन.।।
सोने के दीप कपूर की बाती हँस हँस काजर पारों,
उनके नैनन काजर आँऔं। सजन.।।
माथे बीज दाउनी सौहै बिंदिया लाल लगैहों। सजन.।।…
उक्त पंक्तियों में समधी को नारी-श्रृंगार से सज्जित कर मनोरंजन की पुतरिया बनाने की ठान रखी गई है, जिसकी हर कड़ी पर बरातियों की हँसी गूँजती है। वस्तुतः मनोरंजनपरक गीत जीवन मे उल्लास बिखरते रहे हैं।
कथागीत या आख्यानक गीत वे गीत हैं, जिनमे कोई ऐतिहासिक, पौराणिक, प्रेमपरक, सामाजिक या पारिवारिक कथा संक्षेप मे कही जाती है। वे गीत भी हैं और कथा भी। उनमे लघुकथाओं जैसी वस्तु संगीतात्मकता के कलेवर मे जड़ दी जाती है। आन्दोलन-काल और उसके उपरान्त महात्मा गाँधी पर कई कथागीत रचे गए थे।
गाँधी एक महात्मा उपजे, कलजुग मे अवतारी रे, हाँ हाँ बे हूँ हूँ बे।
तिनकी तिरिया पतिबरता भई, कस्तूरी जग जानें रे, हाँ हाँ बे हूँ हूँ बे।
चरखा संग रमाई धूनी, दोई मानस उपकारी रे, हाँ हाँ बे हूँ हूँ बे।
साँची बात धरम की जानी, और अहिंसा ठानी रे, हाँ हाँ बे हूँ हूँ बे।
मरद लुगाई लड़ी लड़ाई, सत्याग्रह सो जानी रे, हाँ हाँ बे हूँ हूँ बे।
अँगरेजन सों जबर जोर भई, हार उनई नें मानी रे, हाँ हाँ बे हूँ हूँ बे।
उक्त कथागीत मे महात्मा गाँधी और उनकी पत्नी कस्तूरबा को भारत के स्वतन्त्राता-संग्राम के परिप्रेक्ष्य मे देखा गया है और उनके योगदान का संकेत दिया गया है। अंग्रेजों से अहिंसक संघर्ष की भी सूचना है और उनकी पराजय की भी।
बुन्देलखंड के लोकदेवता हरदौल को केन्द्र में रखकर अनेक लोककवियों ने कथागीत लिखे हैं, जिनमें झाँसी के लोककवि भगवान दास ‘दास’ के कथागीत लोकप्रचलन में आकर लोकगीत बन गए हैं। उन कथागीतों की कुछ पंक्तियाँ उदाहरण के रूप मे दी जा रही हैं……
हरदौले विष दै दै नारी।
पतिब्रता को जोई धरम है करै पती को कैना री।
निरदोषी हरदौल लला खों विष भोजन करवाउत काय।
प्रीतम पाप कमाउत काय।
चुगल चबायन की बातन में जानबूझ कें आउत काय।
आज आपनेई हाँथन सों अपनी भुजा कटाउत काय।
पुत्रा समान लला हैं मोरे ताहि कलंक लगाउत काय।
एक ओर है पति की आज्ञा एक ओर देवर प्यारो।
करो प्रभू अब निरवारो।
पति की कही करों तो देवर बिना मौत जाबै मारो।
जो पति की आज्ञा ना पालों धरम बिगर जाबै सारो।
घर घर मे हो गओ सोर लला हरदौल मरे बिष खाकैं।
छाओ सोक ओरछा भीतर, मर गए सुनतन नौकर चाकर,
मर गओ मैतर जूठन खाकर,
मर गओ स्वान सिकारी संग में रए सब रुदन मचाकैं।
महासोर भओ मरें हरदौल भात दओ। टेक।।
लाला की करनी कछु बरनी नईं जात,
मंडप के नैचें सामान ना समात,
दान दायजो सुहात जड़े गानें जवारात,
सब नओ नओ। महासोर.।।
इन गीतों के द्वारा पूरा प्रबन्ध बुन दिया गया है। अगर गीतों मे कथा-प्रबन्ध की रचना न होती, तो ये सब लोकगीत न बनते। इन गीतों की विशेषता यह है कि जहाँ उनकी लोकानुभूति अभिधात्मक है, वहाँ लोकाभिव्यक्ति अनगढ़ और लोकसहज है। इसी प्रकार उनका एक कथागीत ओरछा की रानी गणेश कुँवरि की कथा का वर्णन करता है, जो अयोध्या से ‘राम राजा’ की मूर्ति लाई थीं और उस देवमूर्ति ने महल से उठना नहीं चाहा था। लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं….
आओ भोले भाले राम, संगै चलो ओरछा धाम,
तुम में बसे हमारे प्रान, इतनी कैकैं सरजू में डुबकी लगाई।
धन्न पूरब पुन्न की कमाई। टेक।
डूबा साधो करकैं ध्यान, गोदी में आ गए भगवान,
रानी को सुख भओ महान, लगा छाती सों रामचन्द्र रानी निकर आई। टेक।।
इसी प्रकार के कुछ आंचलिक सती नारियों के कथागीत भी लोकप्रचलन में रहे हैं महोबा (उ.प्र.) की एक काछिन सती हो रही थी और उसने कई चमत्कार दिखाए थे। उसके कहने से नींद का इंजैक्शन लगानेवाले डाक्टर के लड़के की अचानक तबीयत खराब हो गई थी। पुलिस द्वारा कमरे मे बन्द कर हथकड़ियाँ पहनाने पर हथकड़ियाँ टूट गई थीं और कमरे का ताला-साँकर टूटकर गिर गए थे।
ऐसे कुछ चमत्कार प्रचलित कथागीत में गाए जाते रहे और बाद में लोक ने उन्हें भुला दिया। मेरी पत्नी का कथन है कि विवाह के समय देवी-देवताओं को आमन्त्रिात करनेवाले लोकगीतों में सती को भी यह गाकर न्यौतते हैं…..
सत्त की आगरी हो कै रानी मोरी चली हैं पुरुष के साथ। टेक।।
हाँथ नारियल मुख में बीरा, सेंदुर माँग सँवार।
ठाँड़े ससुर बिनती करें, बहू अगिन की झार अपार
अगिन भखों अस्नान करों, राखों दोई कुल लाज।। टेक।।
अभिधा , लक्षणा और व्यंजना
ये तीनों काव्य की शक्तियाँ हैं।
1- सूरज उगते समय लाल रंग का होता है.( अभिधा… सीधापन / सामान्य अर्थ।
2- सूरज की अरुणिमा देखते ही बनती है (लक्षणा )
3- लाल गेंद -सा सूरज लुड़कता आ रहा है…(व्यंजना )
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल