Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिBundelkhand Ke Lokotsavi Geet बुंदेलखंड के लोकोत्सवी गीत

Bundelkhand Ke Lokotsavi Geet बुंदेलखंड के लोकोत्सवी गीत

चन्देलयुग में लोकोत्सवों की बाढ़-सी आ गई थी, Bundelkhand Ke Lokotsavi Geet चंदेलकाल मे सबसे अधिक फले फूले। इसलिए चन्देलों की राजधानी महोबा का नाम महोत्सवनगर था। चन्देल नरेश मदनवर्मन के राज्यकाल में वसंतोत्सव का वर्णन जिन मंडन के ‘‘कुमारपाल प्रबन्ध’’ में मिलता है।

‘‘आल्हा’’ लोकगाथात्मक महाकाव्य में कजरियों के कृषिपरक उत्सव का वर्णन किया गया है। चन्देलनरेश परमर्दिदेव के अमात्य और नाटककार वत्सराज के ‘कर्पूरचरित’’ नामक भाण और ‘‘हास्यचूड़ामणि’’ नामक प्रहसन के आरम्भ में नीलकंठ यात्रा महोत्सव का उल्लेख है। ‘‘विश्वनाथ मन्दिर’’ नामक खजुराहो के मन्दिर के गर्भगृह की परिक्रमा में पृष्ठभाग के फागोत्सव के दृश्यों से होली महोत्सव के लोकप्रिय होने का प्रमाण मिलता है। इतिहासकार अलबेरूनी ने वसंतोत्सव, महानवमी को देवी-उत्सव, दीपावली, माघ स्नान, दोलोत्सव, शिवरात्रि आदि का उल्लेख किया है।

राजशेखर कृत ‘‘काव्यमीमांसा’’ में महानवमी के दिन अस्त्रा-शस्त्रा का पूजन एवं हाथी, घोड़े और सैनिकों की सज्जा तथा दीपावली में दीपमालाएँ रखने का स्पष्ट संकेत है। चन्देल राजा शिवभक्त थे, इसा लिये यहाँ ‘‘शिवरात्रि’’ महोत्सव लोकप्रचलन में था। महोबा में देवी चंडिका के मन्दिरों में नवरात्रि के उत्सवी प्रभाव के साक्षी स्वयं मन्दिर ही हैं। नौरता एक सामूहिक खेल है, जो नवरात्रि में उत्सव का रूप ग्रहण कर लेता था। लोकोत्सवों की इस पृष्ठभूमि में अनेक लोकगीत रचे और गाए गए थे, लेकिन उपलब्ध गीतों के विश्लेषण से उनके सही स्वरूप की खोज कठिन नहीं है।

जवारा उत्सव और गीत
जवारा पहले एक लौकिक उत्सव था, जो यव या जौ अर्थात् अन्न के सम्मान में मनाया जाता था। वर्ष में दो बार चैत और क्वाँर महीने के शुक्ल पक्ष में अमावस के परमा को जौ बोये जाते हैं, फिर नौ दिन निरन्तर सींचे-पोसे जाते हैं फिर  नवें दिन जुलूस के सामूहिक रूप में किसी नदी या जलाशय में सिराए जाते हैं।

पहले किसान की अन्तर्दृष्टि इतनी तीव्र थी कि वह जवारों को देखकर फसल का सगुन विचार लेता था और उसका अनुमान एक वैज्ञानिक जैसा सटीक निकलता था। लेकिन बाद में यह उत्सव देवी-पूजा से जुड़कर भक्तिपरक एवं धार्मिक बन गया। काफी खोज करने पर मालूम हुआ कि फसल अच्छी न होने पर किसान ने फसल उपजानेवाली भूदेवी की पूजा की और धीरे-धीरे वह देवी-पूजा का लोकोत्सव हो गया। कृषक वर्ग जवारों को देवी के चरणों में अर्पित करता है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए देवी गीत गाता है, जिन्हें भगतें या देवी के भजन कहते है।

चन्देल-युग में शिव और शक्ति को ही विशेष महत्त्व प्राप्त था। इसलिए देवीगीतों की समृद्धि इस युग की विशेषता है। देवीगीतों के साथ जवारों में स्त्रिायाँ सिर पर जवारे रखे हुए सामूहिक रूप में गाती हैं और हर झुंड अलग-अलग गीत गाता है, जबकि पुरुष ढोलक और झाँझ वाद्यों के साथ गाते हैं। कहीं-कहीं मंजीरा, तारें, मृदंग आदि बजाते हैं।

इन गीतों में देवी की स्तुति, भक्ति और उनके वीरत्वव्यंजक चमत्कारों का वर्णन होता है। इन गीतों को अँचरी या अचरी, जस और भगत कहते हैं। अँचरी में देवी के प्रति अर्चना, जस में देवी के यश और भगत में देवी के प्रति भक्ति का भाव है। चम्पा, केवड़ा, बेला, चमेली से सुवासित और अनार, नीबू, नारंगी से सुफलित। देवी के द्वार पर वरदान चाहनेवालों की भीड़ है।

मइया के दुआरे इक अँधरा पुकारे,
देउ नयन घर जायँ हो माँ।
मइया के दुआरे इक बाँझ पुकारे,
देउ पूत घर जायँ हो माँ।…
देवीगीतों की विशेषता है देवी के संघर्ष और शौर्य का वर्णन। इस संकट-काल में वीरतापूरक चेतना के जागरण की अनिवार्यता अनुभव की गई थी, इसलिए देवी के दैत्य या असुर के वध को प्रधानता मिली। इस दृष्टि से इन मुक्तकों में तीन रूप प्रमुख रहे हैं।

1 – प्रकृतिपरक
2 – भक्तिपरक
3 – संघर्षपरक


प्रकृतिपरक रूप
मइया के मढ़ में चम्पा घनेरो बास भई फुलवन की।
मइया के भुअन में गंगा बहत है नॉव डरी चंदन की

भक्तिपरक रूप
कैसें कै दरसन पावँरी, मइया तोरी सँकरी दुअरियाँ ?
सँकरी दुअरियाँ मइया, चंदन जड़ी जे किंवरियाँ। कैसें.।
मइया के दुआरे इक भूँको पुकारै, देउ भोजन घर जायँ हो माँ।…

संघर्षपरक रूप
पाँच पैंड़ आँगू लई मइया, आड़े हने तिरसूल हो माँ…।
आँग भीड़ माई पुतरीं बनाई, चौंसठ जोगिन उतरायँ हो माँ…।
जै जै बूँद गिरें लहू की, लहू जिमी ना जाय हो माँ…।
पैलो खरग जब घालो जालपा, दानो गिरो भर्राय हो माँ…।


कजरिया उत्सव और गीत
चन्देलनरेश परमर्दिदेव और चौहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय के युद्ध को इतिहासकारों ने राष्ट्रीय क्षति माना है, लेकिन कजरियों के समय इस युद्ध की घटना में राजकुमारी चन्द्रावलि के डोला की रक्षा करने का श्रेय आल्हा-ऊदल जैसे भाइयों को है। इस कारण कजरिया जैसे कृषिपर्व का सम्बन्ध भाई-बहिन के प्रेम से जुड़ गया है। इसीलिए इस जनपद में इस उत्सव के साथी लोकगीत जहाँ राछरे हैं, वहाँ ‘‘सावन’’ नामक लोकगीत भी हैं।

सावन गीतों में, विशेषतया कजरिया में गाए जानेवाले गीतों में भाई-बहिन का प्रेम, बहिन का मायके के प्रति लगाव, ले जाने के लिए आते भाई की प्रतीक्षा, ससुराल की दूरी का दुख, भाई के न आने पर दुख की घनी बदली की वर्षा, भाई बन जोगीवेश में विदा करवाकर अपहृता द्वारा आत्महत्या आदि विषयों का  समावेश रहता है। प्रेमपरक होने के कारण ये गीत भावात्मक अधिक हैं। सावन आने पर बहिन भाई की प्रतीक्षा करती है।

साउन सेंदुरा मँग भरे बिरना, चुनरी रंगाई बड़े भोर,
बीरन मोये भाई को देस दिखइयो।
किन्नै दीनै मनभर सुनवा किन्नै लहर पटोर ?
भाई ने दीनो मनभर सुनवा बाबुल ने लहर पटोर।
बिरन ने दीनो चढ़त कौ घुड़ला, भौजी सेंदुर भरी माँग।…
ऊँचे अटा चढ़ हेरै बहिना, अजहूँ न आये राजा बीर,
माई मोरी आसों की कजरिया मायके की।

इन पंक्तियों में बहिन के मन में संकल्प की दृढ़ता है, इसीलिए भाई द्वारा डाँग (जंगल), नदी, भूख, प्यास, नींद आदि बाधाएँ बताई जाने पर वह उनका समाधान क्रमशः बढ़ई, केवट, मिठया, ढीमर,सेज आदि द्वारा कर देती है। कठिनाई तो तब होती है, जब एक जोगी अपने को भाई कहकर युवती का अपहरण कर ले जाता है। युवती को तब मालूम होता है, जब वह कहता है कि ‘‘उससे भाई मत कहो, वह तो तुम्हारा स्वामी है’’। यह जानकर युवती कटारी से आत्महत्या कर लेती है। गीत की पंक्तियों में बलिदान की भावना स्पष्ट है।

मोरे बाबुल को आय बगीचा, ओई तरें डोली उतार।
जोगी बीरन जिन कहौ धनियाँ, जोगी है स्वामी तिहार।
इतनौ सुनो जब प्यारी धनियाँ, मार कटारी मर जायँ ड्ड…

दीपावली उत्सव और गीत
बुन्देलखंड की दिवारी उस राष्ट्रीय महापर्व का अंग है, जिसे पूरा देश उल्लास और उत्साह से मनाता है, लेकिन इस जनपद के दिवारी गीत उन ग्वालों के गीत हैं, जो पशुधन के स्वामी होने के नाते कृषि से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण संस्कृति के प्रतिनिधि रहे हैं। वे पशुधन के पोषक और उत्पादक हैं और रक्षक भी। रक्षा में संघर्षपरकता और शौर्य आवश्यक है, इसीलिए दिवारी में पूजित सुराता, सुरातू या सुरेता वे विष्णु नहीं हैं, जो केवल पोषण करते हैं, वरन् वे शक्ति या शौर्य के प्रतीक हैं।

शब्दकोश में ‘‘सुरेता’’ का अर्थ ‘‘अति पराक्रमी’’ एवं ‘‘वीर्यवान’’ दिया गया है। कुछ गीतों की रचना हुई थी, जिससे विदेशी संस्कृति के सामने अपनी रक्षा की प्रेरणा मिलती हो।
स पात बिहूने रूखड़ा, बिना सार ससुरार रे।
बहिन बिहूनी बीरबिन, गली बिसूरत जाय हो। 1

स पीली पिछोरी पाट की, काँख दबी तरवार रे।
दैबे उरानो जा रये, राजन के दरबार रे। 2

स आवत देखे कान्ह जू, सभा उठी भर्राय रे।
चंदन चौकी बैठका, सरकाय लोंजिया पान रे। 3

स फेर लुहांगी ठाँड़े भये, बाबा नन्द के लाल रे।
एक मल्ल की चुपरी का, हुकरादे दो उर चार रे।4

स लंका के मैदान में, अंगद रोपे जाँग रे।
जाँग हलाई न हलै, धरती हल हल जाँय रे। 5

उक्त पाँचों गीतों में एक अन्तरवर्ती ओजस्विनी धारा प्रवाहित है, जो किसी भी मन के संकल्प की वही दृढ़ता देती है जो अंगदी पाँव की थी। पहले गीत में बीर बिना बहिन के सोच का उदाहरण है, जबकि दूसरे गीत में निर्भीकता के प्रभाव को दर्शाया गया है। कृष्ण के आने पर सभासदों में भय-सा छा जाता है।

चौथे गीत में कृष्ण लोहांगी लेकर खड़े होते हैं, तो मल्लों की वीरता छूमंतर हो जाती है। अन्तिम पाँचवें गीत में अंगद के पाँव रोपने का वर्णन है, जो उत्साह की दृढ़ता का प्रतीक है। ध्यातव्य है कि इस काल में कृष्ण-राम के ओजमय प्रसंग लोककविता में उभरने लगे थे, जिसकी प्रेरणा से परिनिष्ठित काव्य में रामायण और महाभारत की कथाएँ प्रमुख विषय के रूप में ग्रहण की गई थीं।

महाशिवरात्रि उत्सव और भोला गीत
चन्देल युग में शिव महादेव के रूप में राजाओं और उनकी जनता के आराध्य थे, इसीलिए खजुराहो में महाशिवरात्रि को मेला होता था। राज्य की ओर से पूजा की व्यवस्था की जाती थी और नाटकों के अभिनय तथा नृत्यादि से रंजन भी शिवभक्ति में समिधा का एक अंग था। सुदूर ग्रामों से गाँव के झुंड-के-झुंड शिव सम्बन्धी गीत गाते हुए आते थे।

शिवपूजा में सम्मिलित होते थे। शिवभक्ति से जुड़े होने के कारण वे भोला-गीत के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिसमें शिवभक्ति-सम्बन्धी गीत अधिक रचे गए और गाए गए थे। शिव, पार्वती, गणेश, काशी जैसे पौराणिक पात्रा इन गीतों का नायकत्व करते हैं और सामाजिक चेतना को जगाने का महत्त्वपूर्ण कार्य भी। अधिकतर पंक्तियाँ भक्तिपरक हैं।

1 – सपरबे खों कासी तो बनाई रे,
कासी बनाई पुजबे खों बनाये भोलानाथ रे…।

2 – महादेव बाबा गजरा खों बिरजे,
गजरा खों बिरजे बे ठाँड़े मलिनिया के दोर रे, महादेव बाबा हो…।

3 – सपर लेव कासी की झिरियाँ रे,
कासी की झिरियाँ कट जै हैं जनम भर के पाप रे, सपर लेव हो…।

4 – तपस्या अरे गौरा नें करी रे,
गौरा नें करी, संकर जू खों लये हैं मनाय रे, तपस्या अरे हो…।

5 – नर्मदा जू की लहरन में रे,
लहरन में रे, गौरा रानी अन्हा रईं लाये केस रे, नरबदा जू की हो…।

इन गीतों में शिव को ही पूजनेवाला महादेव माना गया है। उनके मानवीय व्यापारों की भी व्यंजना है, लेकिन उनकी प्राप्ति तपस्या या साधना से ही सम्भव है। इस जनपद नर्मदा को गंगा की तरह मानकर उसका जल शंकर जी को चढ़ाते हैं। शिवरात्रि के दिन नर्मदा में स्थान और उसका जल भरकर काँवरिया शिव पर चढ़ाने के लिए यात्रा करते हैं।

काँवरि धरती पर रखने से अशुद्ध हो जाती है, इसलिए काँवरिया अपने साथ जोड़िया रख लेते हैं। थक जाने पर काँवरि बदल लेते हैं और गीतों के द्वारा अपनी थकान का परिहार करते हैं। नर्मदा के कछारों और उत्तर में भिंड-मुरैना (गंगा के पास) आदि में ये गीत दो पंक्तिवाली साखियों के रूप में प्रचलित रहे हैं। उनके दोनों चरणों में तुकान्त रहता भी है और नहीं भी रहता। उदाहरण देखें।

1 – नरबदा उलटी तौ बहै, गंगा जमुना बहैं सूदी धार रे…।
नरबदा मइया दूदन बहै, गंगा बहैं रस धार हो…

2 -देहिया जा दुरलभ भई रे, स्वामी मोरे अँगना भये हैं बिदेस।
मतारी बाप बैरी भये रे, स्वामी मोरे लै चलौ अपने देस…
लगन तौ तोई सें लागी हो…

3 – पीसत छोड़े पीसने रे, मोरे स्वामी चुरत चनन की दार रे…।
बारे छोड़े पालने रे, मोरे स्वामी, सबई कुटुम-परवार रे…
निकर चली तोरे कारनै हो…

4 –  गंगा तोरे नीर खों रे, तलफत रये दिन-रैन हो…।
मेहर भई भोलेनाथ की, जाय करे अस्नान हो…
लगन तौ तोई सें लागी हो…

उक्त गीतों में माया रूपी जगत त्याग कर शिव की भक्ति का संकल्प है, लेकिन यह भोलेनाथ की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। ऐसा प्रतीत है कि चन्देलों के पराभव से उत्पन्न निराशा के कारण लोक संहार के देवता का आश्रय लेने के लिए आकुल था। मदनोत्सव और उसके गीत चन्देलों का मदनोत्सव ही वसंतोत्सव के रूप में प्रसिद्ध हुआ और लोक में लोकरंजक गीतों का गायन प्रचलित हो सका। बुन्देली में उन्हें फागगीत कहा गया।

अभी दोहे के आधार पर रचित सखयाऊ फाग एवं राई के सम्बन्ध में लिखा जा चुका है, लेकिन इस सोपान में दोहे या दिवारी गीत के आधार पर नए प्रयोग हुए। पहला प्रयोग है। डहका की फागें या डहकाऊ फागें। डहका प्राचीन ग्रामीण वाद्य था, जिसके प्रयोग के कारण इन फागों का नाम डहका की फागें पड़ा। जब उनके गायन में डफ का प्रयोग होने लगा, तब उन्हे डफ की फागें कहा जाने लगा। इन नामों के बावजूद उनकी संरचना का मूल आधार दोहा ही था। एक उदाहरण देखें।

इक गोरी इक साँवरी, दोऊ हाटै जायँ।
कौना बिसायै काजरा, कौना बिसाहै पान ?

गोरी बिसायै काजरा, सँवरी बिसाहै पान।
किनके ढुर गये काजरा, किनके रचे गये पान ?

गोरी के ढुर गये काजरा, सँवरी के रच गये पान।…
उक्त पंक्तियाँ दोहे की ही अर्द्धालियाँ हैं, लेकिन उनकी अर्द्धपंक्तियों में ‘‘मनमोहना’’ और ‘‘पिया अड़ घोलाना’’ जोड़ने से एक विशिष्ट गायन-शैली बन गई है। उसका रूप निम्न प्रकार प्रचलित था।

इक गोरी इक साँवरी, मनमोहना।
दोऊ हाटै जायँ, पिया अड़ घोलाना

इस रूप के साथ कभी-कभी पूरी पंक्ति में ‘पिया अड़ घोलाना’ जोड़कर 35 मात्रा की एक पंक्ति कर देते हैं, जबकि टेक 22 मात्राओं की ही रहती है। तुकान्त होने से गायन में माधुर्य आ जाता है, लेकिन निरर्थक जुड़ाव खटकता है। इसीलिए यह फागरूप अब प्रचलन में नहीं है।

इसी तरह आभीर या अहीर छन्द के प्रयोग से झूलना की फागें प्रचलित हुईं। लय के झूलने के कारण उनका यह नामकरण प्रचलित हुआ। उनके प्रथम चरण में अहीर छन्द के पहले दो मात्राएँ जोड़ दी गई हैं, इस प्रकार 2$11 त्र 13 मात्राएँ प्रयुक्त हुई हैं। दोहे में भी 13$11 त्र 24 मात्राएँ होती हैं, और उसके समचरण में 13 मात्राएँ ही रहती हैं। अन्तर यह है कि अहीर छन्द के चरणान्त में 11 (लघु गुरू लघु) होते हैं, जबकि दोहे के समचरण के अन्त में गुरू का प्रयोग होता है। गुरू के प्रयोग से लय का झूला विराम पा लेता है और लघु के कारण झूला की गति बनी रहती है।

फाग के दूसरे चरण में 16, 18, 19, 21 मात्राएँ तक मिलती हैं। झूला की गति जहाँ तक चली जाए, वहीं तक भिन्न-भिन्न मात्राओं का चरण चलता है। गाँव में इस फागरूप को डिड़खुरयाऊ भी कहते हैं, जिसका अर्थ है डेढ़ खुर या पाद या चरणवाली।

स लखतन नच जाबैं मोर,
अटा पै कारे बादर मँडराये।
स ब्याहन गये महादेव,
हिमंचल कर जोरैं बिनती करबैं।
स रिषि बोलैं सिव सें जाय,
अनोखे तप सें तप रईं पारबती।
इन फागों में या तो प्रकृति के सौन्दर्य का सहज चित्राण है या फिर लोकभक्ति की आस्था का। लोकभक्ति की साक्ष्य के लिए उस समय पुराण ही ऐतिहासिक ग्रन्थ थे।

वैशिष्ट्य
लोकोत्सवी गीतों में प्रकृति और लोकजीवन के चित्रांकन का रंग तो अधिकतर मिलता है, लेकिन भक्ति का रस-सिंचन कम नहीं है। परिस्थिति को केन्द्र में रखकर संघर्षधर्मी गीत भी प्रचलन में थे, जिनसे सिद्ध है कि लोककवियों ने युगधर्म का निर्वाह किया था। कजरिया के गीतों में भाई-बहिन का प्रेम और वसंत के गीतों में शृंगार प्रधान रहा है। दिवारी गीतों में इस संसार को त्यागने की भावना

भी बलवती रही है। विषयगत वैविध्य होते हुए भी आनन्द और उल्लास की अन्तर्धारा सभी में प्रवाहित है। शैली की दृष्टि से भी इनमें विविधता है और नए प्रयोगों के प्रति ललक, जिससे वस्तु और शैली का अद्भुत समन्वय हो सका है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

admin
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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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