संघर्षपरकता स्वतन्त्रता पाने का कर्म है, Bundeli Rashtriya Chetana ke Lokgeet देश की दुर्दशा के लोकगीत हैं, जिनमें देश की आर्थिक, प्रशासनिक, अकाल-सम्बन्धी, अंग्रेजों की कूटनीति और चारित्रिक पतन आदि का यथार्थ चित्रण है। फिर स्वदेशी-आन्दोलन, देश-प्रेम, अतीत प्रेम और सुराजी बन्नी-बन्ना गीत आते हैं।
भारत की आज़ादी मे बुन्देली राष्ट्रीय चेतना के लोकगीत
संघर्षपरक लोकगीतों में जितनी अभिलाषा है, जितना ओजत्व है और जितनी बलिदानी शक्ति है, उतनी कहीं नहीं दिखाई पड़ती है। संकल्पित इच्छा से लेकर बलिदान तक की मनोभूमियाँ इन लोकगीतों में रच-बस गई हैं। अंग्रेजों ने तो अँगीत-पछीत थाने, पुलिस चैकी खड़ी कर दिए थे और देहरी में जेलखाने, जिनसे उनके दमन का रूप स्पष्ट है। फिर भी कितनों ने गोलियाँ खाईं, कितने फाँसी के फंदों को डालकर झूल गए और कितनों को मार-पीट के घावों से पीड़ित रहना पड़ा।
कित्तन के घरबार बिक गए, कित्तन खाईं गोलीं।
कितने हँस हँस झूला झूले, फाँसी के झूलनवा।
मैया तोरे कारन हो, बाबू तोरे कारन हो।।
अँगरेजी परी गोरी गम खानें ।। टेक।।
काँना बनी चैकी, काँना बने थाने ?
काँना जो बन गए जे जेलखाने ।। टेक।।
अँगीत बनी चैकी पछीत बने थाने,
देरी पैनब गए जे जेलखाने ।। टेक।।
सजन रन जोधा बने मोरी सजनी ।। टेक।।
अपने लड़ैया खों बख्तर पहठहों,
अपने लड़ैया खों पिस्टल पठइहों,
सजन बैरी दल हनें मोरी सजनी ।। टेक।।
अपने सिपहिया के मंगल मनइहों,
देस की रच्छा के जतन जुटइहों,
सजन को माथो तनै मोरी सजनी ।। टेक।।
आन्दोलनपरक गीतों में सबसे प्रमुख है स्वदेशी-आन्दोलन, जिसमें चरखा और खादी के गीत भी प्रमुख हैं। बन्ना-बन्नी जैसे विवाह-गीतों में स्वदेशी के प्रचार की पंक्ति रखी हुई है, जिससे कुटीर उद्योगों के विकास की रेखा बढ़ जाती है। साथ ही साथ विदेशी माल के बहिष्कार से भी उन उद्योगों की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। वस्तुतः स्वदेशी आन्दोलन में चरखा एक सक्रिय भागीदारी करता है। कुछ उदाहरण पर्याप्त हैं।
हुकुम गाँधी का निभाओ प्यारी बन्नी ।। टेक।।
मोरी बन्नी पहनो सुदेसी साड़ी,
बिदेसी खों वापस करो प्यारी बन्नी ।। टेक।।
सजन मोए भाबै गाँधी बाबा को चरखा ।। टेक।।
भनन मनन चरखा भननाय,
सरर सरर धागा लहराय,
गरीबी हटाबै गाँधी बाबा को चरखा ।। टेक।।
सैयाँ होकें भारतवासी काये हँसी करावत मोर ।। टेक।।
खादी की धोती नईं ल्याओ, धूपछाँह जबरन पहिराओ,
तुम पै चलत न जोर। सैयाँ.।।
गाढ़ा की चोली बनवा देव, कुसमानी रंग में रँगवा देव,
लगा हरीरी कोर। सैयाँ.।।
जो न सुदेसी खों अपनाओ, हमनें जानी तो बस आओ,
अमन सभा को छोर। सैयाँ।।
पहले विवाह गीत में स्वदेशी वस्त्र का अपनाना और विदेशी का बहिष्कार संस्कार में शामिल करने से स्वदेशी आन्दोलन का प्रभाव काफी सफल लगता है। दूसरे में चरखा को गरीबी हटाने वाला कहकर आर्थिक दृष्टि का परिचय दिया गया है। तीसरे में पत्नी अपने पति से खादी की धोती लाने की हठ करती है और चोली भी खादी की बनवाना चाहती है। अपनी जागरूकता का परिचय देकर स्वदेशी अपनाने का आग्रह करती है। तीनों उदाहरण भारतीय नारी की मानसिकता को स्पष्ट कर देते हैं और यह सिद्ध कर देते हैं कि स्वदेशी आन्दोलन के प्रति भारतीय नारीत्व का अधिक लगाव था।
अतीत-प्रेम, देश-प्रेम, हिन्दू-मुस्लिम-एकता आदि सम्बन्धी गीत भी इस कालखंड की कीमती धरोहर हैं। अतीत-प्रेम में 1857 ई. के स्वतन्त्राता-संग्राम के वीरों मर्दनसिंह, बख्तबली, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि को स्मरण किया गया है, जिनसे प्रेरणा पाकर बाद में स्वतन्त्राता-संग्राम मे वीरों ने युद्ध किए।
धरती माता तेंनें काजर दए, सेंदुरन भर लई माँग।
पहर हरियला ठाँड़ी भई, तेंनें मोह लए सिंसार।
अजब है महिमा तोरी।
लै लेव तिरंगा झंडा हाँत सुराजी बन्नी।
खादी पियारी सब जात, सुदेसी बन्नी।
चरखा चलाओ दिन-रात सुराजी बन्नी।
पहले उदाहरण मे भारत की धरती की वन्दना है, तो दूसरे उदाहरण में एक बन्नी को ‘सुराजू’ कहकर प्रस्तुत किया है। तिरंगा झंडा हाथ में लेने और खादी पहनने से तथा दिन-रात चरखा चलाने से बन्नी सुराजी हो गई है। बन्नी का सुराजी होकर स्वतन्त्राता-संग्राम में कटिबद्ध होना भारतीय नारीत्व के जागरण का प्रतीक है।
गणतन्त्र -काल का राष्ट्रीय लोककाव्य
गणतन्त्र-काल में बाहरी शक्तियों से युद्ध दो-चार बार लड़े जाना एक अलग बात है, पर दासता से छुटकारा के बाद बलिदानी राष्ट्रीयता का युग समाप्त हो गया था। उसके स्थान पर वीर-पूजा की मानसिकता का प्रसार हो गया था। दूसरे, अहिंसक राष्ट्रीयता के सभी रूप विकास पाने लगे थे। पश्चिमी संस्कृति के हमले से सुरक्षा के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रीयता ने अपनी जिम्मेदारी सँभाली।
एकता और समन्वय तथा विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों के समभाव की राष्ट्रीयता की आवश्यकता भी परिस्थितियों के अनुरूप थी। जनपदीय, प्रान्तीय और राष्ट्रीय भूभागों में एकता की जरूरत है और वह देशप्रेम की भावना से ही सुरक्षित रह सकती है। इसमें जनपद या प्रान्त का प्रेम बाधा नहीं डालता, क्योंकि वे देश के ही अंग हैं।
उन अंगों से जैसे देश का तन बना है, वैसे ही उनकी संस्कृति और साहित्य से देश की संस्कृति और साहित्य निर्मित होते हैं तथा उनसे देश का मन बनता है। वस्तुतः युद्धपरक राष्ट्रीयता के स्थान पर राष्ट्रीयता के ये रूप देश को सम द्ध बनाते हैं। इसी वजह से इस समय के लोककाव्य में राष्ट्रीयता के रूप उभरे हैं। कुछ उदाहरण…।
बापूजी की नीति पकड़ लो जिसने शान बढ़ाई है।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई समझो भाई भाई है।
मेल मन्त्रा से कई सदी की गई आजादी पाई है।
स्वारथ में सिद्धान्त न त्यागो नहिं जग होय हँसाई है।
जिम्मेदार बनें सब नेता भारत वीर कहाना है।।
बौ बिना मजूरी दिनभर काम कराबै।
छाती पै ठाँड़ो कोऊ न सुसता पाबै।
अनहोनी बातें कहै जो हाँत रुकाबै।
कछु पेट के लानें माँगत मारन धाबै।
बौ जीको जो पा जाय कभऊं न फेरै।
बो हगै गली में और गुरेराँ हेरै।।
फैली कहाँ न तेरी उजाली बुन्देलखंड।
हर दिन में तेरी दीद बहाली बुन्देलखंड।
हर एक रात तेरी दिवाली बुन्देलखंड।
दुनियाँ में तेरी शान निराली बुन्देलखंड।।
आओ झूम झूम गाबैं,
सब जन एक सुर में गाबैं ।। टेक।।
होबै नओ, निरमान दिनउदिन, देस बढ़ रओ आगे।
दुनिया रई सराह भाग सोए भारत के जागे।
बाहर नए सन्देस सुनाबै,
जग में जस को राग कमाबै।। आओ.।।
बनवा दे गरे को हार, सजनवा बरखा आई।
गोरी अब ना कर मनुहार, देस पै बिपत बदरिया छाई।।
उतै तोपन गोला गरजै, इतै गोलिन की बौछार।
गोरी तेइसों घिरो हिमालय, जो है अपनो पहरेदार।।
साजन तुम तो चलो रनभूम में, हमउँ चलहैं बाँध कटार।
सीख मिलै बैरी खों साजन, सब जग देखै आँख पसार।।
पहले दो उदाहरण लावनी लोकगायकी के हैं। एक हिन्दी भाषा-रूप में है, जिसमें गाँधीजी की एकता की नीति को अनुसरित करना और स्वार्थों को त्यागकर आदर्श अपनाना हितकर माना गया है। दूसरी बुन्देली में है और जमींदार द्वारा बेगार कराने की पीड़ा का यथार्थ चित्रण उसे काफी महत्त्व का बना देता है। तीसरा उदाहरण सैर के एक चैक का है, जिसमें मात भूमि बुन्देलखंड के प्रति प्रेम प्रतिबिम्बित हुआ है।
चैथा उदाहरण लोकगीत के एक चरण का है। एक सुर एकता का ही प्रतीक है। नए निर्माण की अपेक्षा और देश की प्रगति की चाह इन पंक्तियों में स्पष्ट है। लोककवि देश का नाम ऊंचा होने की कामना करता है। पाँचवाँ गीत चीन और भारत के युद्ध-काल का है। उसमें पति-पत्नी का संवाद है। पत्नी जब गले के हार को लाने की हठ करती है, तब पति देश पर विपत्ति पड़ने की सूचना देता है।
हिमालय जैसे देश के पहरेदार को शत्रुओं ने घेर लिया है और तोपों से गोला तथा गोलियों की बौछार से सुरक्षा हम भारतीयों का कत्र्तव्य है। पत्नी पति को रणभूमि में जाने का प्रस्ताव करती है और स्वयं भी कटार बाँध चलने को आतुर है। उसका कहना है कि (हमारी विजय से) शत्रु को सीख मिलेगी और संसार आँखें पसारकर देखेगा।
इस प्रकार यह गीत युद्धवीर का है। नर और नारी दोनों किसी-न-किसी की प्रतीक्षा नहीं करते, वरन् युद्ध के हमले से लड़ने को तत्पर हो जाते हैं। इस पंक्ति में बलिदानी राष्ट्रीयता की पुनःप्रतिष्ठा है। एक विशेषता यह भी है कि नर-नारी, दोनों युद्ध के लिए तैयार होते हैं और नारी ही नर को युद्ध के लिए कहती हैं और स्वयं भी तैयार होती है।
गणतन्त्रा-काल में राष्ट्रीयता का यह रूप अधिकतर एकता के ताने-बाने से बुना हुआ है। देश के भूखंडों की एकता, जातिगत और धर्मगति एकता तथा विभिन्न संस्कृतियों की एकता। बाहरी एकता के साथ भीतरी एकता। बिना एकता के राष्ट्र की अस्मिता नहीं। इसलिए धार्मिक समभाव और हिन्दू-मुस्लिम एकता को दृष्टि में रखना जरूरी है। विविधताओं में एकता का मूल मन्त्रा महत्त्वपूर्ण है।
इस युग में पारिवारिक टूटन, बिखराव को इंगित करती है। समाज में नैतिकता का बन्धन नहीं रहा। धार्मिक अंकुश मौथिले पड़ गए। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीयता की भावना पूरे देश को बाँधे रखने में समर्थ है। इसी कारण से उसका महत्त्व और बढ़ गया है। बुन्देलखंड के लोककाव्य में राष्ट्रीयता का पूरा चिन्तन मिलता है और उस चिन्तन का मूल मन्त्रा है एकता। एक गीत की पंक्तियाँ देखें…।
अब पूरी हो गई आस देस की आजादी छाजै।
अब न लड़ाई करियो रसिया, अपने धरम के काजै।
हिलमिल रहियो अब तो रसिया, सबखों गरे लगाइ।।
‘सबखों गरे लगाइ’ ही मूल मन्त्र है, जिससे विभिन्न जातियों, वर्गों, सम्प्रदायों आदि की विविधता में एकता प्रतिष्ठित होती है। इस विशाल देश के लिए राष्ट्रीय एकता ही राष्ट्र की अस्मिता बचा सकती है।
बुन्देली का आधुनिक संस्कारपरक लोककाव्य
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल