वर्तमान परिस्थिति में संस्कार-चेतना और उससे जुड़े लोकगीतों की सार्थकता को स्वीकार न करना ठीक नहीं है। Aadhunik Sanskarparak Lokkavya लोक की संस्कृति का प्रमुख अंग है और लोक की संस्कृति ही भारतीय संस्कृति की जड़ है। इसलिए भारतीय संस्कृति की सुरक्षा के लिए संस्कार जितने आवश्यक हैं, उतने ही संस्कारपरक लोकगीत। संस्कारपरक लोकगीत संस्कारों की जाग्रति के लिए होते हैं।
बुन्देलखंड का आधुनिक संस्कारपरक लोककाव्य
संस्कारपरक लोकगीत समाज के लिए सर्वाधिक उपयोगी होते हैं, विशेष रूप से उस समय जब विदेशी और अपसंस्कृति के उग्र आक्रमण समाज के ढाँचों को ही तोड़ने के लिए आतुर हों। आधुनिक काल में परिवार का जितना टूटना हो रहा है, सामाजिक मर्यादाओं का जितना उल्लंघन हुआ है और सामाजिक एकता की जितनी उपेक्षा हुई है, उसे अनदेखा करना खतरे से खाली नही है।
बुन्देलखंड में Bundeli Aadhunik Sanskarparak Lokkavya दो प्रकार का मिलता है। एक तो जन्म-संस्कारपरक, जिसमें सन्तान के अभाव की पीड़ा, साधें आदि में गाए जानेवाले संचत गीत, जन्म के पूर्व और बाद में गाए जाने वाले सोहर गीत, बधाए में बधाए गीत, चैक में मधुरला गीत, कुआँ-पूजन के गीत, पासनी, मुंडन, कंछेदन आदि में भी मधुरला गीत, जनेऊ के गीत गाए जाते हैं।
विवाह-संस्कार-परक दूसरे प्रकार का लोककाव्य है, जिसमें लगुन के गीत, बनरा-बनरी, हल्दी-तेल चढ़ाने के गीत, मायना, कुलदेव एवं देवी-देवताओं को निमन्त्रण के गीत, चीकट के गीत, दूल्हा-निकासी या बरात-आगमन के गीत, द्वार-चार या टीका के गीत, चढ़ाए के गीत, ज्यौंनार के गीत, भाँवर और पाँव-पखरई के गीत, कंकन छोड़ने और विदाई के गीत, मौंचायने के गीत और देवी-देवता-पूजन के गीत होते हैं। मृत्यु-संस्कार में साधरणतया गीत नहीं गाए जाते, केवल विलाप होता रहता है।
कबीरपन्थी जन जो निरगुन भजन होते हैं। संचत शब्द सन्तति का अपभ्रष्ट रूप है। सन्तान न होने पर नारी करुण वेदना में डूब जाती है और पुत्र-प्राप्ति की चाह में बेचैन होकर अपना सन्तुलन खो देती है। पति दूसरा विवाह रचाने की बात कहता है, जिससे पत्नी को काफी दुःख होता है। लेकिन किसी देवी या देवता के आशीर्वाद अथवा जेठे-बड़े की कामना से जब उसकी कोख फल देती है, तब उसकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता।
सोहर गीत जन्म के पूर्व से जन्म के बाद तक गाए जाते हैं। वे सूतिकाग ह के गीत हैं। जिन्हें सोहल या सोहला भी कहते हैं। पं. रामशंकर शुक्ल के भाषा-शब्द-कोष में सोहर को संस्कृत सूतिका का देशज माना गया है। सोहर की लोकधुन तीन प्रकार की मिलती है। पहली ‘महाराज’ के तुकान्तवाली, जिसमें गीत का हर चरण का अन्त महाराज से अलंकृत रहता है। महाराज मे पुराना आकर्षण है और निष्ठा भी। दूसरी है- हो या रे के तुकान्तवाली, जिसमें आन्तरिक पीड़ा, बेचैनी और उदासी की छटपटाहट रहती है।
तीसरी है मोरे लाल या मेरे लाल की तुकान्तवाली, जिसमें पुत्रा-सम्बन्धी प्रेम या वात्सल्य चू पड़ रहा हो- इन सोहरों में कोई उलझन नहीं, शब्द-जाल की बुनावट नहीं और शिल्प की गढ़न नहीं। उनमें भाव का सागर ही तरंगायित रहता है। बधाए, कुआँ-पूजन, पासनी, मुंडन, कंछेदन, जनेऊ आदि के गीतों संस्कारों की वस्तु या उनके नेगों का वर्णन रहता है। मधुरला गीत मधुर लोकधुन के गीत हैं, क्योंकि उनकी माधुर्यमयी पदावली और लय मिलकर जन्म-संस्कार-परक गीतों को चुनौती खड़ी करते हैं।
Aadhunik Sanskarparak Lokkavya में आधुनिक जन्मपरक लोकगीतों मे उनकी भाषा हिन्दी से प्रभावित होने के कारण मिश्रित भाषा-रूप खड़ी करती है। फारसी और अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ अलग दिखाई पड़ती है। जच्चा शब्द फारसी के ‘जच्चः शब्द से बना है, जो इन गीतों में बहुप्रयुक्त हुआ है। एक गीत में ‘आफिस’ अंग्रेजी शब्द न जाने कब आ बैठा, इसी तरह पति के लिए ‘साहब’ प्रयुक्त होने लगा।
अलबेली जच्चा रानी खूब बनी।
अपनी पिया की सुहागिन खूब बनी।
जैसे रेसम के लच्छा, जच्चा रानी केस बनी।
जैसे चन्दन के उरसा, जच्चा रानी माथ बनी।
जैसे आम केरी फँकियाँ, जच्चा रानी नैन बनी।…
उठी है कमरिया में पीर, मोरे राजाजी,
आफिस चले मत जाना, ओ हो चले नहीं जाना।
सासोजी आबैं राजा, उनको भी जवाब देना
मैया को बुलाय कें, चरुआ धराय कें,
उनको भी नेंग देना ओ हो चले नहीं जाना।…
खोली खाली तो नइयाँ, लई दई तो नइयाँ,
जी गई जी गई झड़ ले के भाग, साहब के भाग,
सो अब नइयाँ मरबे खों।…
गढ़ गोकुल मे नन्द घरै लाला भए।
जायै जो कइयो उन राजा ससुर सें
जीवन की कमाई जई दिन के लिए।…
सोहर और सरिया गीतों के इन उदाहरणों में स्पष्ट है कि बुन्देली और हिन्दी भाषारूपों का मिश्रण प्रचलन में आ गया था। पहले सोहर में (फारसी) जच्चा के नख-शिख का वर्णन है। उसके केश रेशम के लच्छे जैसे हैं, उसका मस्तक चन्दन के पटे की तरह और उसकी आँखें आम की फाँकों की जैसी हैं।
दूसरे उदाहरण में अंग्रेजी का आफिस और हिन्दी का चले मत जाना, उनको भी जवाब देना और उनको भी नेंग का खड़ापन बुन्देली के माधुर्य को धकयाता है। ‘ओ हो चले नहीं जाना’ में फिल्मी लय उभरकर लोकधुन का रास्ता रोक लेती है। तीसरे में विदेशी साहब ने पति या स्वामी के स्थान में कब्जा जमा लिया है और चौथे में जीवन की कमाई के ‘लिए’ खड़ी बोली मे ठसकीला माहौल खड़ा करता है।
Aadhunik Sanskarparak Lokkavya में विवाहपरक संस्कारों में 20-25 छोटे-छोटे संस्कार वर और कन्या पक्ष में होते हैं तथा सभी में लोकगीत गाए जाते हैं। बिना गीत गाए कोई संस्कार सम्पन्न नहीं होता। जिनमें सबसे अधिक संख्या बनरा-बनरी की है और दूसरे क्रम में वैवाहिक गारियाँ आती हैं। गारियों की विशेषता यह है कि वे अधिकतर लोककवियों की रची हुई हैं। किस प्रकार लोककवि द्वारा रचित गारी लोकप्रचलन मे आकर लोकगीत बन जाती है, यह निश्चित है कि वे किसी-न-किसी लोककवि की रचनाएँ हैं। इस प्रकार लोककाव्य के लोकग हीत और लोकप्रचलन की प्रक्रिया का आभास ये गारी गीत देते हैं।
विवाहपरक गीतों में तत्कालीन पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं के संकेत भी मिलते हैं। पारिवारिक समस्याओं मे अनमेल विवाह, बहुओं की तानाशाही से परिवार का विभाजन, विधवाओं की पीड़ा आदि हैं। सामाजिक समस्याओं में प्रमुख हैं दहेज की ठहरौनी, परिवार की टूटन आदि। राष्ट्रीय समस्याओं मे जनसंख्या की वृद्धि प्राथमिक है, जिसका उपचार शीघ्र होना जरूरी है।
ब्याह गौने सें करें घर मालकी,
जे बहुएँ आजकल कीं।
सासों सें चकिया पिसवातीं
जिठानी पै दहिया भमवातीं
सासो हमसें जिन कहियो कछू काम की। जे.।।
जो मोरी जिठानी प्यार करोगी,
तो सारे काम करा दूँगी।
जो मोरी जिठानी लड़हौ लड़ाई,
तो दो चूल्हे करवा दूँगी।…
आजकल जो चलन चली है लड़केवाले इतराते
ब्याह करत हैं ठहरा कें। टेक
पहुँचे बड़े धनी के द्वारे रुपया लैहों साठ हजार
लोटा गुंज लगुन में थार
इन बातन में हो न एकऊ बिटियावालो सुन घबरानो।
दोनों हाथ जोड़ गिगियानो मालिक ऐसी टेक न सानो।। टेक।।…
उक्त में पहला उदाहरण बहुओं की तानाशाही का है, तो दूसरा पारिवारिक विभाजन का। तीसरे मे विवाह ठहरौनी करने के बाद सम्पन्न करने का विधान है। इस प्रकार वैवाहिक लोकगीतों में पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं का वर्णन भी रहता है। वैवाहिक लोकगीतों की प्रमुख विशेषता उनकी हास्य-व्यंग्य की देन है, जो पूरे संस्कार को यहाँ आनन्द से भरती है, वहाँ चुटीले व्यंग्यों द्वारा श्रोताओं मे एक अलग रस उत्पन्न करती है।
अवधपुरी की बात अनोखी, पिय सें रहें नियारी।
खीर खायँ लरका जन लेती, बिना पुरुष की नारी।।
हरि खों देबैं गारी।।
बा समदी खों बिल्लाँ मारै
समदी खों खाबे नई देबै
एई सें उनके गाल पचक गए
आँखन सें नईं परत दिखाई।
कै बोल मोरे भाई।।
पहले उदाहरण में एक गारी गीत मे समधी दशरथ पर चुटीला व्यंग्य है, जो आज की भोजन (पंगत) में गाया जाता है। दूसरा उदाहरण हास्य-विनोद के रूप में एक गारी गीत का अंकुश है, जो आज से 50 वर्ष पहले वर पक्ष के समधी के लिए सौगात था और जिसे सुनने के लिए वर के मामा या फूफा ढेरों बताशे या अन्य भेंट पहुँचाते थे। उस समय गारी गाने का नेंग होता था और सभी बराती भोजन के रस के आनन्द के साथ हास्य-विनोद-परक गारियाँ भी सुनकर मन-रंजन में डूबते-उतराते रहते थे।
मेरे बाबा का काशी से आना हुआ।। टेक।।
मेरा बाबा हुरदंग, शैर गाबै लै चंग,
पियै लोटा भर भंग, करै राड़ों का संग,
लखै अपना बिराना दिमाना हुआ।। टेक।।
संस्कारपरक गीत जहाँ संस्कारों की शिक्षा देते हैं, आदर्शों की Aadhunik Sanskarparak Lokkavya प्रतिष्ठा करते हैं और जीवन मे आनन्द की वर्षा करते हैं, वहाँ राष्ट्रीय चेतना की जाग्रति के साथ पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं के प्रति सचेत रहते हैं। वे परिवार के लिए उल्लास के स्रोत हैं, खासतौर से नारियों के लिए। उनमें सम्बन्धों को फिर नवीनता प्रदान की जाती है, पास-पड़ोस और गाँव-पुरा के लोगों से भाईचारा स्थापित होता है और सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता का द्वार खुलता है।
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल