बुन्देलखंड की संस्कृति मे भक्ति और खासतौर से लोकभक्ति लोक की आस्था रही है। यही कारण है कि Bundeli Aadhunik Bhaktiparak Lokkavya यहां की संस्कृति का एक अंग है। लोकभक्ति न तो भेदभाव से ग्रस्त होती है और न सम्प्रदाय या पन्थ में बँधी रहती है। इसलिए उसके देवी-देवता में भी कोई भेद-भाव नहीं मिलता। चाहे सगुण -साकार राम, कृष्ण, शिव या हनुमान हों, चाहे निर्गुण-निराकार ब्रह्म। लोक तो उसी की भक्ति करता है, जो उसकी मनोकामना पूरी करते हैं।
संस्कृति का एक अंग है बुन्देली आधुनिक भक्तिपरक लोककाव्य
एक देवता एक विशिष्ट पहचान लेकर अवतरित होता है, इस वजह से उसकी भक्ति उसी उद्देश्य से की जाती है। लोकदेवी लक्ष्मी अर्थ-समृद्धि की देवी है, अतएव उनकी भक्ति अर्थ के लिए की जाती है। भक्तिपरक लोककाव्य के प्रमुख देवता राम, कृष्ण, शिव और हनुमान रहे हैं और प्रमुख देवी-देवता से समृद्धि पाने की माँग रहती है, परन्तु लोककवि और लोककाव्य कभी अर्थ का गुलाम नहीं रहा। उसने तो लोकसहज लोकभक्ति को ही महत्त्व दिया है। इस तथ्य के साक्षी हैं दुर्गापरक लोकगीत, जबकि लक्ष्मीपरक लोकगीतों का अभाव-सा है।
अनेक ऐसी रचनाएं देखने को मिलती है जिनमें नाम की छाप पड़ी है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वे लोकप्रचलित रही हैं। सामान्य भक्तिपरक लोकगीतों में लोकभक्ति का सैद्धान्तिक रूप उभरा है। दो गीतों में मानव जीवन की क्ष ाभंगुरता का वर्णन है, एक में ईश्वर और जीव के सम्बन्धों का तथा एक में आत्मा और परमात्मा के माध्यम से रहस्यानुभूति का सा अंकन है। तीनों उदाहरणों की बानगी के लिए पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं…..
इक दिन उड़े ताल के हंसा, फिर न¯ह आँवेंगे।
ग् ग् ग् ग् ग् ग् ग्
काया पै जब चिता बनेगी, लकड़ी पै अंगार धरेगी।
दे होली सी फूँक लौट घर आवेंगे। इक।।
तुम तो नाथ समन्दर कहिए हम हैं नदिया नारे।
तुम तो नाथ चन्द्रमा कहिए हम हैं नौलख तारे।।
होली थी सो होली, नाथ अब खेलूँगी होली।
अंग अंग में विरह रंग ने केसर-सी है घोली।।
ग् ग् ग् ग् ग् ग् ग्
जलती हुई चिता पर होगी, जदुपति संग ठिठोली।
जाएगी सुरपुर डोली, नाथ तब खेलूँगी होली।।
पहले उदाहरण में मानव की नश्वरता ताल रूपी जगत से हंस रूपी जीव के उड़ जाने से स्पष्ट है। दूसरे उदाहरण में जीव ईश्वर को समुद्र और अपने को नदी-नाला तथा ईश्वर को चन्द्रमा और अपने को नौ लाख तारे कहकर ईश्वर की महिमा का संकेत करता है। तीसरे में आत्मा परमात्मा के साथ होली खेलने के लिए तैयार है, क्योंकि परमात्मा के वियोग में आत्मा के अंग केशर जैसे पीले पड़ गए हैं। परमात्मा के साथ होली खेलने का सही रूप तभी होगा, जब आत्मा देह त्याग स्वर्ग जाएगी। आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध जीव के देह छोड़ने पर ही जुड़ता है। तीनों गीतों में हिन्दी भाषारूप ही उजागर हुआ है।
रामपरक गीतों मे रामकथा के कुछ प्रसंग जैसे फूलवाटिका में राम-लक्ष्मण, धनुष-यज्ञ, बरात, भोजन (ज्यौंनार), व्यंग्य की गारी, केवट-संवाद, सीता-हरण पर राम का विलाप, लक्ष्मण की शक्ति लगने पर राम का विलाप आदि बुने गए हैं। आख्यानक गीतों की संख्या अधिक है। दूसरे क्रम में राम-भजन के गीत हैं और कुछ गीतों मे राम की माधुर्यपरक भक्ति की अभिव्यक्ति हुई है। इन गीतों मे लावनी, लेद, दिवारी और गारी गीतों का अधिक प्रयोग हुआ है। जनश्रुति के आधार पर सीता के बारे मे एक विचित्रा प्रसंग है कि सीता रावण और मन्दोदरी की पुत्री हैं। पंक्तियाँ देखें…..
ऐसी सीता सतनती, एक पुरुष की नार।
काहे लंका आईं तीं, घर बैठे देतीं सराप रे।।
पिता हमारे रावना, मन्दोदरि सी माय।
लंका मे है मायको, किनखों देबैं सराप रे।।
कैसें लंका मायको, कैसी मन्दोदरि माय।
कैसे पिता हैं रावना, हमखों देव बताय रे।।
धोईं लंगोटी बावन की, तन तन छुटाए दाग।
राजा जनक के बाग मे, गरभ दए खिसलाय रे।।
उक्त गीतों से स्पष्ट है कि लोक में सीता के जन्म के बारे में किंवदंतियों का विश्वास था। आख्यानपरक गीतों के प्रसंगों में कोई मौलिक उद्भावना नहीं है, केवल उनका लोकीकरण किया गया है। भक्तिपरक गीत दो प्रकार के होते हैं। एक राम-नाम के जप पर जोर देते हैं और दूसरे वे, जिनमें माधुर्य भक्ति का प्रभाव है। माधुर्य भाव का एक उदाहरण देखें……
अरी हाँ री सखी री चितवन में मन मोह लियो रघुराज हमारो यार।
ग् ग् ग् ग् ग् ग् ग्
अरी हाँ री सखी री केसर रंग पिचकारियाँ सुभ कुमकुम खौर लिलार री।
अरी हाँ री सखी री उन स्यामल धन कों दीजै हियरे को नेह निहार।।
इस उदाहरण में राम यार हैं और जो कुछ भी होता है, उसमें हृदय का नेह सहयोगी है। वस्तुतः रामपरक भक्ति के परिनिष्ठित काव्य मे रामरसिक भक्ति की परम्परा रही है। इसी रसिक भक्ति के समानान्तर लोककाव्य की धारा प्रवाहित होती है। यहाँ तक कि रामरसिक कवयित्रियों ने लोकधुनों मे अनेक रचनाएँ की हैं।
कृष्णपरक गीतों के भी दो प्रकार हैं। एक तो आख्यानपरक, जिनमें नागलीला और गुदनारी लीला प्रमुख हैं। दोनों मे कथाप्रसंगों की मौलिकता नहीं है, पर गुदनारी लीला मे कृष्ण का नारी-रूप का श्रृंगार लोकश श्रृंगार है। सज-धज और आभूषण सभी ग्राम्य हैं। दो ख्याल मुक्तक विरह की अनुभूति व्यक्त करने में सहज हैं। एक मे वंशी सुनकर पीड़ा होती है, तो दूसरे में वचन का निर्वाह न करने से।
ये ख्याल सागर के अंचल में राई नृत्य के साथ गाए जाते हैं अर्थात् नृत्यगीत कहे जा सकते हैं। दानलीला संवादप्रधान है, जिसमें एक तरफ कार्तिक स्नान-व्रत करनेवाली कतकारीं होती है और दूसरी तरफ कृष्ण बने युवा। दोनों में काफी देर तक संवाद चलते हैं। दोनों दलों चुनौती भरी होड़ लगती है। उदाहर के रूप-सौन्दर्य, गुदनारी श्रृंगार और विरहानुभूति की पंक्तियाँ बानगी के रूप मे प्रस्तुत हैं……।
सोवत राधा बाधा यह मुँह से कहुँ पट हट जाबै ना।
चन्द्र के धोके चकोरी मुँह पर चोंच चलाबै ना।। टेक।।
अतिकारी सटकारी वेणी को लख पन्नग धाबै ना।। टेक।।
जान पन्नगी व्याल सखि भूल सीस लपटाबै ना।
डरपत है जिए मोर व्यालवेणी मोर दबावै ना।…
पाँवत में माहुर दीने,
पग में नुपूर पहिन नवीने सोभा जिनकी कात प्रवीने,
पैजना पाँवन में।
कड़े कड़े की झनकार,
लच्छे देते हैं बहार,
तोड़ल पेरिया सँवार, सोभा रुलन में।
ग् ग् ग् ग् ग् ग्
माँग मोतिन सें सँवार,
मुख मे पान की बहार,
मैना मृगा की उनहार, साजे जिनके।
बाल बाँधे हैं सँवार,
चोटी नागिन सें जिन हार,
जोबन अँगिया के दरम्यान,
बाँधें कसके।…
तलफी सारी रैन,
स्याम अबैं लौं नहिं आए।
अँसुअन भींजे मुड़ी से,
बरसे ऐसे नैन
करकें वादे भूल गए बे,
टूटो मोरो चैन। तलफी.।।…
पहले उदाहरण में सोती हुई राधा का रूप-चित्रण है। लोककवि चतुराई से मुख को चन्द्रमा और वेणी को नागिन से उपमित कर देता है। उपमान पुराने हैं, पर उनके संयोजन का शिल्प चमत्कारी है। कृष्ण ने गुदनारी का वेश धारण किया है, जिसकी बानगी दूसरे उदाहरण में प्रस्तुत है। ग्रामीण आभूषणों मे पैजना, तोड़ल, पेरिया, रूल आदि हैं। स्त्री की पहचान उसकी माँग, नेत्र, केश-प्रसाधन, जोबन (स्तन) और अँगिया से होती है। तीसरा उदाहरण विरह-वेदना की अभिव्यक्ति का है, जिसमें विरहिणी आँसुओं से नदिया-नारे नहीं बहते। मुड़ासा या तकिया भीगना तो वास्तविकता है।
लेद लोकगायकी के रूप मे उस समय उभरी, जब दतिया के पखावजी कमलापत ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। यह समय बीसवीं शती पूर्वार्द्ध था और उसी समय कुछ लेदें गाई जाने लगीं। कृष्णपरक लेद का एक उदाहरण पर्याप्त है, जिसमें कृष्ण के दर्शन के लिए राधा बेचैन है…..
ब्रजलाल मोरो लाल मन चोरो री। टेक।।
चलो री सखी मोहिं बेग मिलाओ,
जी की तपन निबेरो री। ब्रजलाल।।
तूँ डोले बोले मति मोसें,
परबस भाओ दिल मोरो री। ब्रजलाल।।
ब्रजबाला पिय बेग मिलाओ,
रूप दरस रस बोरो री। ब्रजलाल।।
इस उदाहरण मे राधा कृष्ण से विनती करती है कि उसे कृष्ण के रूप-दर्शन के रस में डूबने की लालसा है। उसी की तृप्ति राधा के जी की तपन शान्त कर सकती है। वस्तुतः कृष्ण जहाँ के देवता हैं, वहाँ लोकसंस्कृति के भी। इसलिए उनका प्रेम लोकप्रेम है। गोपी किसी भी जाति, वर्ग या सम्प्रदाय की है, वह पहले कृष्ण -प्रेम मे पगी गोपी है।
बुन्देली का आधुनिक विविध लोककाव्य
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल