बुन्देलखंड का मध्यकाल जितना साहित्य के प्रति सचेत रहा है, लेकिन Bundelkhand Ka Aadhunik Lokkavya की शुरूआत निरन्तर पिछड़ेपन की ओर जाती रही है। इसके बाद महाकवि केशव ने बीसवीं शती के दो दशकों तक आधुनिक काल को काफी आगे कर दिया ।
हालाँकि इसी बुन्देलखंड के सपूत राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 1904-05 ई. से राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण रचनाएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था और महात्मा गाँधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के पहले ही ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन से राष्ट्र में जागरण की चेतना का प्रसार कर दिया था। साथ ही महाकवि ईसुरी जैसे लोककाव्य के प्रवर्तक के मन में भी अपने गाँव का प्रेम ओर संघर्ष की चेतना थी।
पुनरुत्थान-काल के फागकारों में नए आविष्कारों के प्रति रूचि थी। लेकिन इस सबके बावजूद फागों, सैरों आदि मे श्रृंगार का ही बोलबाला था। रूप-वर्णन, नखशिख, चित्रण और नायिका-भेद में ही फागकारों, सैरकारों का मन रमता था। अतएव लोककाव्य की दृष्टि से आधुनिक काल 1915-20 ई. से प्रारम्भ होना उचित जान पड़ता है।
1920 ई. में मउरानीपुर में एक ऐतिहासिक घटना हुई थी, जिसमें रानी राजेन्द्र कुमारी और उमा नेहरू ने आन्दोलनकारियों का नेतृत्व किया था तथा अंग्रेजों की घुड़सवार पल्टन ने सैकड़ों को खोंद-कुचलकर प्राण त्यागने को मजबूर कर दिया था।
आधुनिक काल को दो भागों में विभाजित करने से प्रथम कालखंड आन्दोलन-काल अथवा स्वतन्त्रातापूर्व काल (1920-1947 ई.) और दूसरा कालखंड स्वातन्त्रयोत्तर काल अथवा गणतंत्र –काल (1948-1998 ई.) का ठहरता है। पहला अंग्रेजों की दासता का लगभग तीन दशकों का है, जबकि गणतन्त्र-काल पाँच दशकों का। दोनों कालखंडों की परिस्थितियाँ भी भिन्न हैं, अतः दोनों की लोककाव्य-सम्पदा पर विचार करना आवश्यक है।
आंदोलन काल (1920-47 ई.) की परिस्थितियाँ
मैं इस कालखंड को आन्दोलन-काल कहना उचित है , क्योंकि इस अवधि में आन्दोलन की एक श्रृंखला मिलती है। यदि उदाहरण देखें, तो आपको आश्चर्य होगा। महात्मा गाँधी 1 जनवरी, 1915 ई. को भारत आए और सत्याग्रह की नींव डाली। 1918 ई. से सत्याग्रह प्रारम्भ हो गए थे। 1920 ई. में मउरानीपुर के नजारी (लाल) बाजार में सत्याग्रह हुआ।
1921 ई. मेरठ और होशंगाबाद में असहयोग आन्दोलन, 1920 ई. में रतौना (सागर) और दमोह में कसाईखाने के विरुद्ध आन्दोलन, 1925 जबलपुर झंडा सत्याग्रह, 1930 ई. में नमक आन्दोलन पूरे बुन्देलखंड मे,1930-1931 ई. जंगल सत्याग्रह सिवनी, 1931 ई. में चरणपादुका आन्दोलन, छतरपुर, 1932 लगानबन्दी आन्दोलन वीरा (तह. राठ, हमीपुर) 1937 एवं 1939 ई. में झंडा सत्याग्रह टीकमगढ़ में।
1942 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन पूरे बुन्देलखंड में, 1943-48 ई. मे उत्तरदायी शासन हेतु रियासतों में आन्दोलन आदि से स्पष्ट है कि यह कालखंड संघर्ष का ही युग रहा है। अतएव इस समय संघर्षपरक राष्ट्रीय लोककाव्य ही प्रचलन में रहा।
गणतन्त्र-काल की परिस्थितियाँ
स्वतन्त्रता बाद के युग में देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए पहला प्रयत्न हुआ बड़े कारखाने लगाने का, जिससे औद्योगीकरण का आरम्भ हुआ और फलस्वरूप एक नए पूँजीवाद का जन्म हुआ। महात्मा गाँधी खादी जैसे लघु उद्योग-धन्धों के द्वारा जहाँ हर व्यक्ति को रोजगार देना उचित समझते थे, वहाँ हर गाँव को आत्मनिर्भर बनाना जरूरी मानते हैं।
इसीलिए उन्होंने स्वतन्त्राता के पूर्व खादी के द्वारा स्वदेशी पर बल दिया था और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का आन्दोलन खड़ा किया था। वे उत्पादक शिक्षा पर भी जोर दे रहे थे। लेकिन दूसरी तरफ प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू इतने विशाल देश और इतनी जनसंख्या के लिए बड़े कारखाने आवश्यक मानते थे।
देश ने पंचवर्षीय योजनाओं से एक योजनाबद्ध कार्यक्रम का प्रारम्भ किया, जिससे हर क्षेत्र में प्रगति हुई। लेकिन गुलामी की इतनी लम्बी उमर ने देश को चारित्रिक निर्बलता की सौगात दी थी, जिससे भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में प्रगति की आत्मा ही फँसी रही।
नवीन साहित्यिक चेतना
पुनरुत्थानकाल में परिनिष्ठित साहित्य के रीतिकालीन रूढ़िबद्ध श्रृंगार के विरुद्ध लोककाव्य ने लोकसहज श्रृंगार को प्रतिष्ठित किया था। साथ ही नए विषय भी ग्रहण किए थे। भक्तिपरक फागें, निरगुनिया लावनियाँ और ख्याल, पारिवारिक-सामाजिक और लोकोत्सवी फागगीत एवं लोकगीत तो प्रचलन में थे ही, वीररसपरक एवं देश प्रेमपरक गीत भी अपनी भूमिका का निर्वाह करते रहे।
आन्दोलन-काल की प्रधान प्रवृत्ति संघर्षधर्मिता थी, अतएव राष्ट्रीयता की भावना से भरे ओजस्वी लोकगीतों की लोकप्रियता स्वाभाविक थी। लेकिन गाँधीजी की अहिंसा, लोकहितकारी भावना और हिन्दू-मुस्लिम-एकता ने उसमें काफी परिवर्तन ला दिया था।
फलतः अहिंसात्मक राष्ट्रीयता, आत्मबलिदान, शहीदों का यशोगान और मानवता का प्रेम उस ओजस्विनी गीतधारा में यत्र-तत्र जुड़ता रहा। रियासतों के विलयन से दरबारीपन की प्रवृत्ति कम तो हुई, पर पूरी तरह नहीं।
उन रियासती क्षेत्रों में आन्दोलनों का उतना जोर नहीं था, जितना गैर रियासती क्षेत्रों मे रहा। असल में, रियासतों में दुहरा शासन था, क्योंकि रियासत का आन्तरिक शासन तो भारतीय नरेश के हाथों मे था, पर नकेल अंग्रेजों के हाथों में। इस कारण इन रियासतों में संघर्षधर्मी चेतना उतनी असरदार नहीं थी।
उदाहरण के रूप मे, छतरपुर रियासत से लगे हमीरपुर और झाँसी जिलों मे बीसवीं शती के प्रथम चरण से ही अनेक आन्दोलनों का प्रारम्भ हुआ था, पर रियासतें राज्य छिन जाने के भय से द्विविधा में रहीं। इस वजह से रियासतों में राष्ट्रीयतापरक लोककाव्य की दुन्दुभी कुछ विलम्ब से बजी।
गणतन्त्र-काल में परिनिष्ठित साहित्य में खड़ी बोली का एकाधिकार हो गया था और हिन्दी भी बोलियों के क्षेत्रों में सेंध लगाने लगी थी। यह सब सहज रूप में चला और कुछ लोकगीतों में रूपान्तरण हुआ। उदाहरण के लिए नैचें की जगह नीचे, मोरे की जगह मेरे, कैसैं के स्थान पर कैसे, रस के बदले कस आदि साक्षी हैं।
भाषा-रूप के बदलाव से लोकगीतों की शैली भी बदल गई। संस्कारपरक लोकगीतों की संख्या सर्वाधिक है, जिससे स्पष्ट है कि अपसंस्कृति और पश्चिमी संस्कृति के आक्रमणों से रक्षा के लिए लोकसाहित्य ने संस्कारपरक लोकगीतों का कवच बनाया है। लोकोत्सव जिस सीमा तक कम हुए, उसी सीमा तक लोकोत्सवी लोकगीतों में कमी आई।
भक्तिपरक लोकगीत भी काफी प्रचलित रहे। वर्तमान काल की विसंगतियों और विकृतियों से बकर तथा मानसिक तनावों से थककर लोकभक्ति की तरफ ध्यान देना उचित समझता था। इसी तरह श्रृगारपरक गीत भी सभी प्रकार की मानसिक थकान मिटाने में संजीवनी का कार्य करते रहे। यथार्थपरक और समस्यापरक लोकगीतों में लोकजीवन का सच्चा चित्र मिलता है।
वर्तमान में जीवन समस्याओं में गर्दन तक डूबा रहा है। दूसरी तरफ बौद्धिक जटिलता से व्यक्ति मनोरंजन और हास्य को अधिक अपनाने लगा है, जिसके बारे में लोकगीत भी सजग रहे हैं। कृषिपरक गीतों के माध्यम से ‘गाँवों की ओर लौटो’ की दिशा खुलती है। आतिथ्य, पातिव्रत्य धर्म, गंगा-नर्मदा आदि नदियों के प्रति श्रद्धा, व क्षानुराग, यहाँ तक कि पर्यावरण के प्रति जागरूकता आदि विषय उसमें शामिल थे।
सम्भवतः पश्चिमी अपसंस्कृति के विरुद्ध लोक ने सत्याग्रह करने की ठान रखी थी। तात्पर्य यह है कि लोककाव्य ने वर्तमान समस्याओं, विकृतियों और अपसंस्कृति के विरुद्ध उपचार के लिए लोकगीतों की बूटी तैयार कर ली थी। समाज की शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं से मुक्ति भी मानवतावादी दृष्टि का प्रमाण है।
आन्दोलन-काल का राष्ट्रीय लोककाव्य
आन्दोलन-काल (1920-47 ई.) के तीन दशकों में लोककाव्य की पुनरुत्थान-युगीन राष्ट्रीय काव्यधारा का जहाँ एक तरफ बढ़ाव रहा है, वहाँ दूसरी तरफ नवीन राष्ट्रीय लोककाव्यधारा का उद्गम और प्रवाह भी महत्त्वपूर्ण रहकर एक नई तरह की क्रान्ति की उद्भावना में सफल हुआ है। इस प्रकार इस कालखंड मे दो धाराएँ कुछ दूर तक समानान्तर चली हैं, पर बाद में नवीन राष्ट्रीय लोककाव्य-धारा का प्रभाव ही भारी पड़ा है।
राष्ट्रीय फाग, सैर और लावनी लोककाव्य
फाग, सैर और लावनी (ख्याल) लोककाव्य मे राष्ट्रीयता के स्वर मुखरित होते रहे हैं। उन स्वरों में आन्दोलनों के अनुसार विविधता है। देश-प्रेम, मात भूमि बुन्देलखंड का प्रेम, संघर्ष की ललकार, खादी या स्वदेशी का प्रचार-प्रसार, अतीत की वीरतापरक घटनाओं का वर्णन और गाँधीजी का यशोगान फागकाव्य के विभिन्न विषय रहे ही हैं और ऐसे ही विषयों की अभिव्यक्ति सैरकाव्य में हुई है।
भैया अब सुराज के लानें, तन मन सें लग जानें।
ग् ग् ग् ग् ग् ग् ग्
‘द्विज खुमान’ अब पराधीनता सें नातो ना रानें।।
सब कोउ गाढ़ा पैरो भाई, जासों होइ भलाई।
घर घर राँटा चरखी धर लेव, बनवा लेव नटाई।
ग् ग् ग् ग् ग् ग् ग्
सौकत अली और गान्धी जू नें, सबखाँ दओ जगाई।…
नवाबी ढीली परी आसफ खाँ की, दुरगा की उठी तलवार। टेक।
दौड़- दुरगा की तलवार धार का तीखा पानी।
गढ़ मंडला की लाज राखबे कों महारानी।।…
धन धन जनमभूम सुखकारी, मनुज देह जाँ धारी।
घुननन चले धूर में जाकी, हँस खेले दै तारी।
ग् ग् ग् ग् ग् ग् ग्
‘हर्षित’ इन्द्रपुरी से बढ़कें, प्यारी लगत बिलारी।।
जात पाँत को भेद भुलाकें, सबसों हिलमिल रैये।
कैये एक न कभउँ काउ सों, चाय चार सुन लैये।
बापू कही ‘स्याम’ तब मन सों, हिंसा टूर भगैये।।
उक्त पहली दो फागों की पंक्तियाँ स्वराज और गाढ़ा (खादी) से सम्बन्धित हैं, जिनके रचनाकार खुमान पाराशर बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध के लोकप्रिय कवि थे। तीसरी छन्दयाउ फाग में गढ़ मंडला की लाज की रक्षा करने के इतिहास के ब्याज से देश को लाज रखने का संकेत है, जिसके रचयिता झनकन लाल वर्मा ‘छैल’ जबलपुर के प्रसिद्ध कवि थे।
चैथी फाग बिलहरी (नौगाँव) के लोककवि हर्षित भारती द्वारा रचित है, जिसमें अपनी जन्मभूमि के प्रति प्रेम का गान है। कुलपहाड़ (जि. हमीरपुर अब महोबा) के खेतसिंह यादव ने गाँधी जी के सम्बन्ध मे अनेक फागें लिखी हैं, लेकिन यह फाग राठ निवासी पं. श्यामसुन्दर बादल की है, जिसमें जातिवाद और हिंसा से दूर रहने का गाँधीजी का सन्देश है।
इस कालखंड मे प्रसिद्ध सैरकार स्व. घनश्याम दास पांडेय (1886-1953 ई.), स्व. नाथूराम माहौर (1885-1959 ई.) मदन मोहन द्विवेदी मदनरेश (1867-1934 ई.) स्व. नरोत्तमदास पांडेय (1915 ई. मे जन्म), राम कृपाल मिश्र (1925 ई. में जन्म), आदि ने सैरकाव्य को उत्कर्ष दिया है। सैर हिन्दी और उर्दू, दोनों में लिखे जाते थे। एक-एक उदाहरण घनश्याम दास पांडेय के सैरों का प्रस्तुत है।
इस तरह बीर मरते हैं सबक सिखा दो।
प्यासी है मात भूमि शत्रु रक्त पिला दो।
हरदम ये आरजू है दिल की यही लहर।
जो जिऊं तेरे लिए मरूँ तेरी खातिर।
कुरबान करूँ तेरे कदमों पै अपना सर।
बारूँ बहिश्त तेरी इक मुश्त खाक पर।।
नरोत्तम पांडेय ने एक सैर में गाँधीजी की लँगोटी की प्रशस्ति उनके यशोगान की व्यंजक है,
दुख हरन भरन कृषकन के घर अनाज की।
काटन गुलामी पाटन मुनि पंचराज की।
प्रतिमा है ‘नरोत्तम जू’ तप और त्याग की।
गाँधी की लँगोटी कि ध्वजा है स्वराज की।।
लावनी और ख्याल बुन्देलखंड की फड़गायकी के महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं और वर्तमान में भी हैं। निम्न जगहों में तुर्रा और कलगी के अखाड़े रहे हैं, जिनके संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
चरखारी रियासत
चरखारीनरेश महाराज गंगासिंह और जुझारसिंह ख्यालबाजी मे रुचि लेते थे। इसलिए वहाँ कलगी और तुर्रा, दोनों के अखाड़े थे। कलगी में कल्लू हिरनबाज, रज्जू छरीगे आदि और तुर्रा मे बाबा चन्दन गिरि का अखाड़ा था। शफदर अली और एवज अली खाँ उनका अखाड़े के सदस्य थे।
राठ
कलगी के भैरों दुबे, कादिर न्यारिया और सैयद हसन अली। तुर्रा के मँहगू लाल नगाइच अधिक प्रसिद्ध थे।
जालौन- तुर्रा के तुलसी राम, बल्देव प्रसाद और बद्रीप्रसाद सुनार।
कालपी- कलगी के आसीजी, तुर्रे में मुल्लू हलवाई।
समथर- तुर्रा के चुखर आतिशबाज और नन्हें पटिया तथा कलगी के रामकृष्ण दर्जी और बनमाली वैश्य।
बाँदा- कलगी के लल्ला और बाबू।
गुरसराय- कलगी के भोगीलाल गुप्त और शिवराम चैहान।
झाँसी- तुर्रा के छोटे खाँ और कन्हई पंडा।
उरई- तुर्रा के मुल्लू हलवाई।
बिलगाँव (मौदहा तहसील)- मे अजुध्या मुखिया और जहानी।
महोबा – सदासुख लाल, ख्यालीराम अकठोंहा और पं. गयादीन सूपा।
अकौना (राठ)- के लालशाह अच्छे ख्यालबाज।
(उक्त विवरण डा. गनेशीलाल बुधौलिया के टंकित शोध-प्रबन्ध से लिया गया है।)
ख्यालों की फड़बाजी मे होड़ के कारण जहाँ संगीत की प्रतियोगिता होती है, वहाँ साहित्य की भी। विशेषता यह है कि इस फड़बाजी में साम्प्रदायिक और जातिगत अथवा आर्थिक आधारों पर कोई भेद-भाव नहीं होता। लावनी और ख्याल के रचनाकारों मे सबसे अग्रणी हैं।
गुरसराय (जिला- झाँसी) के स्व. भोगीलाल सेठ (1884-1961 ई.), जो कलगी पक्ष की ओर से प्रतिद्वन्द्विता करते थे। उनके दल में उनके सुपुत्र सेठ राघवदास, स्व. शिवराम, स्व. रामसेवक, नत्थू हज्जाम और बाबूलाल ब्राह्मण गुरसराय थे। वे श्रेष्ठ गायक और वादक थे। उन्होंने बुन्देली, हिन्दी, संस्कृत और उर्दू में अनेक सैरें और लावनी-ख्याल रचे थे।
झाँसी के कवीन्द्र नाथूराम माहौर (1885-1959 ई.) ने भी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और भारत की स्वतन्त्राता पर ख्याल रचे थे, जो आज भी गाए जाते हैं। राष्ट्रीय लावनी के रचनाकारों में अकौना (राठ) के मुंशी राजधर (1901-1960 ई.) और वंशगोपाल शुक्ल (जन्म 1901 ई.) तथा सफदर अली (1907 ई. में जन्म) थे। सफदर अली के ख्यालों की भाषा हिन्दू, उर्दू, संस्कृत और बुन्देली, सभी भाषाओं के मिश्रण से बनी थी। शेष लावनीकारों ने हिन्दी का प्रयोग अधिक किया है।
माँ, तेरे चरणों में चित दै हँस हँस शीश चढ़ाना है।
सुख सम्पत्ति सर्वस्व त्यागकर तुझे स्वतन्त्रा बनाना है।। टेक।।
सत्य शान्ति का उच्च स्वर से गाना तरल तराना है।
छत्रासाल राणा प्रताप सा बाना बीर निभाना है।
जननी के मधु पय पीने का प्रबल प्रताप दिखाना है।। टेक।।
आना है स्वातन्त्रय समर में विजय लक्ष्मी पाना है। टेक।।
लाल बाल औ पाल कहें ये सुनकें ख्याल जिन भौं तानो।
छोड़ो सब अंग्रेजी चीजें चलन स्वदेसी पैचानो।।
पहले उदाहरण के रचयिता स्व. नाथूराम माहौर है और दूसरे के मुंशी राजधर। पहले में संघर्ष के लिए आवाहन है, तो दूसरे मंे स्वदेशी आन्दोलन का संकेत। वस्तुतः रियासतों में भारतीय राजाओं का शासन होने के कारण आन्दोलनों का उतना जोर नहीं रहा, जितना अंग्रेजों के शासन के अन्तर्गत भूभागों में था। इसीलिए झाँसी, राठ और महोबा के क्षेत्र में लावनी के लोककवियों ने ही राष्ट्रीय लोककाव्य मे अपना योग दिया था।
इस कालखंड में कवित्तगायकी और सवैया तथा घनाक्षरी छन्दों में समस्यापूर्ति करने का प्रचलन अधिक था। सैरों, फागो एवं लावनियों का मुख्य विषय श्रृंगार रस की अनुभूति ही थी। इन कारण से राष्ट्रीयतापरक लोककाव्य उतना नहीं आ पाया, जितना स्वाभाविक था।
कवित्तों में राष्ट्रीयता की गूँज अधिक सुनाई देती रही। घनश्याम दास पांडेय, घासीराम व्यास, नाथूराम माहौर, नरोत्तम दास पांडेय आदि प्रमुख कवियों ने तो पूरा देश गुँजा दिया था। अपने राष्ट्रीय कवित्तों के कारण ही घासीराम व्यास ‘राष्ट्रीय कवि’ चर्चित हुए। कवित्त अर्थात् घनाक्षरी और सवैया छन्दों मे फड़बाजी इस कालखंड की प्रधान विशेषता थी। व्यासजी की ‘वीर ज्योति’ उग्र राष्ट्रीयता के बल पर ही फड़बाजी और लोक में लोकप्रिय हुई थी। उसका एक छन्द तो जन-जन के कंठों मे बस गया था।
सुअन, स्वतन्त्रा निज देश का बढ़ा दे मान,
घटा दे गुमान शाह कामी क्रूर कोही का।
राजपूतनी के नीके दूध को पुनीत कर,
सबक सिखा दे उसे क्षुद्र छल छोही का।
कूद पड़ सिंह सा दहाड़ शत्रु सेना पर,
विश्व को दिखा दे ‘व्यास’ विक्रम सिरोही का।
बेजा मत मान ले जा ले जा शीघ्र भेजा फाड़,
नेजा पर टाँग ले कॅलेजा देशद्रोही का।।
कविवर नाथूराम माहौर की रचना ‘गोरी बीबी’ ।
ब्याह कें आई रही जबतें, तब देखन में थी स्वभाव की भोरी।
प्रीतम कों बस में करकें, करबे लगी हाय महा बरजोरी।
चोरी करी स्वतन्त्राता की, अरी ओरी प्रतीत गई उठ तोरी।
ज्यादा कुचाल चली जो कहूँ तो निकार कें मायके भेज हों गोरी।।
उक्त छन्द में ‘गोरी बीबी’ अंग्रेजों, ‘प्रीतम’ भारत, मायका ग्रेट ब्रिटेन के प्रतीकात्मक अर्थ देते हैं। गोरी बीबी पर स्वतन्त्राता की चोरी करने का अपराध बनता है। वस्तुतः आन्दोलन-काल में वीररसपरक और खासतौर से राष्ट्रीय कवित्तों की बाढ़ आ गई थी, जिससे अंग्रेजों का सिंहासन काँप गया था।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल