साहित्यिक समृद्धि से परिपूर्ण ईसुरी का सारा जीवन साहित्यिक उधेड़ बुन में लगा रहा। वे सच्चाई पर चलने वाले, ईमान का पालन करने वाले निश्छल, निष्कपट, खुले मन विचारों वाले कवि थे। बुन्देली लोकभाषा को उन्होंने समृद्धि प्रदान की और अपनी भूल-चूक लेनी-देनी कहकर अन्तिम विदा ली। महाकवि ईसुरी ने अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में लिखा है……।
यारो इतनो जस कर लीजौ, चिता अन्त न कीजौ।
चल तन श्रम से बहे पसीना, भसम पै अन्तस भीजौ।
निगतन खुर्द चेटका लातन, उन लातन मन रीझौ।
वे सुस्ती ना होय रात-दिन, जिनके ऊपर सीजौ।
गंगा जू लौ मरें ईसुरी, दाग बगौरे दीजौ।
एक अन्य फाग में भी उनकी अन्तिम इच्छा उल्लेखित है….।
दोई कर परमेसुर से जौरैं, करौ कृपा की कौरें।
हम ना हुए दिखैया देखें, हितन-हितन की डौरें।
उदना जान परै अन्तस की, जब वे अंसुआ ढौरें।
बंदा की ठठरी करे रवानी, रजउ कोद की खौरें।
बना चैतरा देंय चतुर्भुज, इतनी खातिर मोरें।
होवै कउं पै मरे ईसुरी, किलेदार के दौरें।
महाकवि ईसुरी की ये दोनों कामनाएँ पूर्ण नहीं हो सकीं। ईसुरी को मृत्यु के कुछ महीना पूर्व पेट की बीमारी हो गई थी। वे बगौरा में अकेले ही रह गए थे। उनका कोई परिजन वहाँ नहीं था और न ही उनकी फाग मण्डली का कोई साथी। ठाकुर भवानी सिंह उनकी सेवा में लगे रहते थे। ईसुरी चलने-फिरने यहाँ तक की दैनिक क्रियाओं के लिए भी उठ बैठने में मजबूर हो गए थे।