महाकवि ईसुरी कर्म योगी थे अपना कर्म उन्हे पता था । अन्तिम समय तक वे अपने रचना कर्म में लगे रहे।
लैलो सीताराम हमारी, चलती बेरा प्यारीं।
ऐसी निगा राखियो हम पै, नजर न होय दुआरी।
मिलकें कोऊ बिछुरत नैयां, जितने हैं जिउधारी।
ईसुर हंस उड़त की बेरां, झुकआई अंधियारी।
मोरी राम राम सब खैंया, चाना करी गुसैयां।
दै दो दान बुलाकें बामन, करौ संकलप गैयां ।
हाथ दोक जागा लिपवा दो, गौ के गोबर मैयां।
हारै खेत जाव ना ईसुर, अब हम ठैरत नैयां।