Homeभारतीय संस्कृतिPallav Kalin Kala Aur Sthapaty पल्लव कालीन कला और स्थापत्य

Pallav Kalin Kala Aur Sthapaty पल्लव कालीन कला और स्थापत्य

पल्लव नरेशों का शासनकाल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिए प्रसिद्ध है। Pallav Kalin Kala Aur Sthapaty दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली अध्याय है। पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण के द्रविड़ कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ। 1-मण्डप, 2-रथ, 3-विशाल मंदिर। प्रसिद्ध कलाविद् पर्सी ब्राउन ने ’पल्लव’ वास्तुकला के विकास की शैलियों को चार भागों में विभक्त किया है। इनका विवरण निम्न है।

महेन्द्र शैली
पल्लव वास्तु का प्रारम्भ महेन्द्र वर्मन प्रथम के समय से हुआ जिसकी उपाधि ’विचित-चित्र’ की थी। मण्डग पट्ट लेख में वह दावा करता है कि उसने ईंट, लकड़ी, लोहा, चूना आदि के प्रयोग के बिना एक नयी वास्तु शैली को जन्म दिया। यह नयी शैली ’मण्डप वास्तु’ की थी जिसके अन्तर्गत गुहा मंदिरों के निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हुई।

तोण्डामण्डलम् की प्रकृत शिलाओं को उत्कीर्ण कर मंदिर बनाये गये जिन्हें ’मण्डप’ कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे है जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। इनके पार्श्व भाग में गर्भगृह रहता है। शैव मण्डप के गर्भगृह में लिंग तथा वैष्णव मण्डप के गर्भगृह में विष्णु प्रतिमा स्थापित रहती थी।

मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती हैं जो कि कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। मण्डप के सामने स्तम्भों की एक पंक्ति मिलती है। प्रत्येक स्तम्भ सात फीट ऊँचा है। स्तम्भ संतुलित ढंग से नियोजित किये गये हैं तथा दो स्तम्भों के बीच समान दूरी बड़ी कुशलतापूर्वक रखी गयी है। स्तम्भों के तीन भाग दिखाई देते हैं। आधार तथा शीर्ष भाग पर दो फीट का आयत प्रायः चौकोर है जिनके ऊपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गये हैं।

महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्दु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम का पच्चपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्रविष्णु गृहमण्डप, मामण्डूर का विष्णु मण्डप त्रिचनापल्ली का ललितांकुर पल्लेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस शैली के प्रारम्भिक मण्डप सादे तथा अलंकरण रहित हैं किन्तु बाद के मण्डपों को अलंकृृत करने की प्रवृति दिखाई देती है। पच्चपाण्डव मण्डप में छः अलंकृत स्तम्भ लगाये गये हैं। इन पर कमल फुल्लक, मकर तोरण, तरंग मंजरी आदि के अभिप्राय अंकित हैं। महेन्द्रवर्मा प्रथम के बाद भी कुछ समय तक इस शैली का विकास होता रहा।

मामल्ल शैली
इस शैली का विकास नरसिंह वर्मा प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक बने-मण्डप तथा एकाश्मक मंदिर जिन्हें रथ कहा गया है। इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम या महाबलिपुरम में विद्यमान हैं। यहां मुख्य पर्वत पर दस मण्डप बनाये गये हैं। इनमें आदिबाराह मण्डप, महिषमर्दिनी मण्डप, पच्चपाण्डव मण्डप, रामानुज मण्डप आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इन्हें विविध प्रकार से अलंकृत किया गया है।

मण्डपों का आकार प्रकार बड़ा नहीं है। मण्डपों के स्तम्भ पहले की अपेक्षा पतले तथा लम्बे हैं। इनके ऊपर पघ, कुम्भ, फलक आदि का अलंकरण बने हुए हैं। स्तम्भों को मण्डपों में अत्यन्त अलंकृत ढंग से नियोजित किया गया है। मण्डप अपनी मूर्तिकारी के लिए प्रसिद्ध है। इनमें उत्कीर्ण महिषमर्दिनी, अनन्तशायी विष्णु, त्रिविक्रम, ब्रह्मा, गजलक्ष्मी, हरिहर आदि की मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से उत्युत्कृष्ट हैं।

पच्चपाण्डव मण्डप में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण किये जाने का दृश्य अत्यन्त सुन्दर है। आदिबाराह मण्डप में राज परिवार के दो दृश्यों का अंकन मिलता है। पहली मूर्ति में राजा सुखासन मुद्रा में बैठा है जिसके दोनों ओर उसकी दो रानियां खड़ी हैं। इसकी पहचान सिंहविष्णु से की गयी है। दूसरी मुद्रा में राजा महेन्द्र (महेन्द्र वर्मन द्वितीय) अपनी दो पत्नियों के साथ खड़ा दिखाया गया है। मामल्लशैली के मण्डप महेन्द्र शैली के विकसित रूप को प्रकट करते हैं। इनकी कलात्मकता बराह, महिष तथा पच्चपाण्डव मण्डपों में स्पष्टतः दर्शनीय है।

रथ मंदिर महाबलिपुरम
मामल्ल शैली की दूसरी रचना रथ अथवा एकाश्मक मंदिर है। पल्लव वास्तुकारों ने विशाल प्रकृत चट्टानों को काटकर जिन एकाश्य पूजागृहों की रचना की उन्हीं को रथ कहा जाता है। इनके निर्माण की परम्परा नरसिंह वर्मन के समय से ही प्रारम्भ हुई। इसके लिये उस समय तक प्रचलित समाज वास्तु नमूनों से प्रेरणा ली गयी। इन्हें देखने से पता चलता है कि शिला के अनावश्यक भाग को अलग कर अपेक्षित स्वरूप को ऊपर से नीचे की ओर उत्कीर्ण किया जाता था।

रथ मंदिरों का आकार-प्रकार अन्य कृतियों की अपेक्षा छोटा है। ये अधिक से अधिक 42 फुट लम्बे, 35 फुट चौड़े तथा 40 फुट ऊँचे हैं तथा पूर्ववर्ती गुहा विहारों अथवा चैत्यों की अनुकृति पर निर्मित प्रतीत होते हैं। प्रमुख रथ द्रोपदी रथ, नकुल-सहदेव रथ, अर्जुनरथ, भीमरथ, धर्मराज रथ, गणेशरथ, जिडारिरथ तथा वलैयेकुटटे रथ। प्रथम पांच दक्षिण में तथा अंतिम तीन उत्तर और उत्तर-पश्चिम में स्थित है। ये सभी शैव मंदिर प्रतीत होते हैं।

द्रोपदी रथ सबसे छोटा है। यह सचल देवायतन की अनुकृति है जिसका प्रयोग उत्सव और शोभा यात्रा के समय किया जात है, जैसे पुरी का रथ। इसका आकार झोपड़ी जैसा है। इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा यह एक सामान्य कक्ष की भांति खोदा गया है। यह सिहं जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है। अन्य सभी रथ बौद्ध विहारों के समान समचतुस आयताकार हैं तथा इनके शिखर नागर अथवा द्रविड़ शैली में बनाये गये हैं।

विमान के विविध तत्वों-अधिष्ठान, पादभित्ति, प्रस्तर, ग्रीवार शिखर तथा स्तूप इनमें स्पष्टतः दिखाई देते हैं। गणेश रथ का शिखर वेसर शैली में निर्मित है। धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर बनाया गया है। मध्य में वर्गाकार कक्ष तथा नीचे स्तम्भयुक्त बरामदा है। कुर्सी में गढ़े हुए सुदृढ़ टुकड़ों तथा सिंह स्तम्भयुक्त अपनी डयोढ़ियों से यह और भी सुन्दर प्रतीत होता है।

भीम, सहदेव तथा गणेश रथों का निर्माण चैत्यग्रहों जैसा है। ये दीर्घाकार हैं तथा इनमें दो या अधिक मंजिल है, और तिकोने किनारों वाली पीपे जैसी छतें हैं सहदेव रथ ’अर्धवृत’ के आकार का है। पिंडारी तथा वलेयंकु है रथों का निर्माण अधूरा है। नीलकण्ठ शास्त्री के अनुसार ’इन रथों की दीर्धाकार आयोजना छोटी होती जाने वाली मंजिलों और कलशों तथा नुकीले किनारों के साथ पीपे के आकार वाली छतों के आधार पर ही बाद के गोपुरों अथवा मंदिरों की प्रवेश बुर्जियों की डिजाइन तैयार की गयी होगी।

मामल्लशैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिए भी प्रसिद्ध हैं। नकुल-सहदेव रथ के अतिरिक्त अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी-देवताओं जैसे-दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण मिलती हैं। द्रोपदी रथ की दीवारों में तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ की दीवारांे में बनी शिव की मूर्तियां विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। धर्मराज रथ पर नरसिंह वर्मा की मूर्ति अंकित है। इन रथों को ’सात पगोडा’ कहा जाता है। दुर्भाग्यवश इनकी रचना अपूर्ण रह गयी है।

राजसिंह शैली
राजसिंह शैली का प्रारम्भ पल्लव नरेश नरसिंह वर्मन द्वितीय ’राजसिंह’ ने किया। इसके अन्तर्गत गुहा मंदिरों के स्थान पर पाषाणविद आदि की सहायता से इमारती मंदिरों का निर्माण करवाया गया। इस शैली के मंदिरों में से तीन महाबलीपुरम से प्राप्त होते हैं। शोर मंदिर (तटीय शिव मंदिर) ईश्वर मंदिर तथा मुकुन्द मंदिर। शोर मंदिर इस शैली का प्रथम उदाहरण है। उनके अतिरिक्त पनमलाई (उत्तरी अकिट) मंदिर तथा काच्ची के कैलाशनाथ एवं वैकुण्ठपेरूमल मंदिर भी उल्लेखनीय है।

महाबलीपुरम के समुद्र तट पर स्थित शोर मंदिर पल्लव कलाकारों की अदभुत कारीगरी का नमूना है। मंदिर का निर्माण एक विशाल प्रांगण में हुआ जिसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है। इसका गर्भगृह धर्मराज रथ के समान वर्गाकार है जिसके ऊपर अष्ठकोणिक शुंडाकार विमान कई तल्लों वाला है। ऊपरी किनारे पर बाद में दो और मंदिर जोड़ दिये गये। इनमें से एक छोटा विमान है।

बड़े हुए भागों के कारण मुख्य मंदिर की शोभा में कोई कमी नही आने पाई है। इसका शिखर सीढ़ीदार है तथा उसके शीर्ष पर स्तूपिका बनी हुई है। यह अत्यन्त मनोहर है। दीवारों पर गणेश, स्कन्द, गज, शार्दूल आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण मिलती है। इसमें सिंह की आकृति को विशेष रूप से खोद कर बनाया गया है। घेरे की अन्य दीवार के मुडेर पर उँकडू बैठे हुए बैलों की मूर्तियां बनी है। तथा बाहरी भाग के चारों ओर थोड़ी-थोड़ी अन्तराल पर सिंह-भित्ति-स्तम्भ बने हैं।

इस प्रकार यह द्रविड़ वास्तु की एक सुन्दर रचना है। शताब्दियों की प्राकृतिक आपदाओं की उपेक्षा करते हुए यह आज भी अपनी सुन्दरता को बनाये हुए है। कांची स्थित कैलाशनाथ मंदिर राजसिंह शैली के चरम उत्कीर्ण को व्यक्त करता है। इसका निर्माण नरसिंह वर्मन द्वितीय ’राजसिंह’ के समय से प्रारम्भ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन द्वितीय के समय में इसकी रचना पूर्ण हुई द्रविड़ शैली की सभी विशेषताओं जैसे-परिवेष्हित प्रांगण, गोपुरम, स्तम्भयुक्त मण्डप विमान आदि का इस मंदिर में एक साथ प्राप्त हो जाती है।

इसके निर्माण में ग्रेनाइट तथा बलुआ पत्थरों का उपयोग किया गया है। इसका गर्भगृह आयताकार है। जिसकी प्रत्येक भुजा 9 फुट है। इसमें पिरामिडनुमा विमान तथा स्तम्भयुक्त मण्डप है। मुख्य विमान के चारों ओर प्रदक्षिणापथ है। स्तम्भों पर आधारित मण्डप मुख्य विमान से कुछ दूरी पर है। पूर्वी दिशा में गोपुरम दुतल्ला है। सम्पूर्ण मंदिर ऊँचे परकोटों से घिरा हुआ है। मंदिर में शैव सम्प्रदाय एवं शिव-लीलाओं से सम्बन्धित अनके सुन्दर-सुन्दर मूर्तियां अंकित हैं जो उसकी शोभा को द्विगुणित करती हैं।

कैलाशनाथ मंदिर के कुछ बाद का बना वैकुण्ठपेरूमल का मंदिर है। उसका निर्माण परमेश्वरवर्मन द्वितीय के समय में हुआ था। यह भगवान विष्णु का मंदिर है जिसमें प्रदक्षिणापथयुक्त गर्भगृह एवं सोपानयुक्त मण्डप है। मंदिर का विमान वर्गाकार एवं चारतल्ला है। प्रथम तल्ले में विष्णु की अनेक मुद्राओं में मूर्तियां बनी है। साथ ही साथ मंदिर की भीतरी दीवारों पर युद्ध, राज्याभिषेक, अश्वमेघ, उत्तराधिकार चयन, नगर-जीवन, आदि के दृश्यों को भी अत्यन्त सजीवता एवं कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण किया गया है। ये विविध चित्र रिलीफ स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

नन्दिवर्मन शैली
नन्दिवर्मन शैली के अन्तर्गत अपेक्षाकृत छोटे मंदिरों का निर्माण हुआ। इसके उदाहरण काच्ची के मुक्तेश्वर एवं मातंगेश्वर मंदिर, ओरगड्म का वड़मल्लिश्वर मंदिर, तिरूवैन का वीरट्टानेश्वर मंदिर, गडिडमल्ल का परभुरामेश्वर मंदिर आदि हैं। काच्ची के मंदिर इस शैली के प्राचीनतम नमूने है। इनमें प्रवेश द्वार पर स्तम्भ युक्त मण्डप बने हैं। शिखर वृताकार अर्थात वेसर शैली का है।

विमान तथा मण्डप एक ऊँची चौकी पर स्थित हैं। छत चिपटी है। शैली की दृष्टि से ये धर्मराज रथ की अनुकृति प्रतीत होती है। इसके बाद के मंदिर चोल-शैली से प्रभावित एवं उसके निकट है। इस प्रकार पल्लव राजाओं का शासन काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध रहा। पल्लव कला का प्रभाव कालान्तर में चोल तथा पाण्डय कला पर पड़ा तथा यह दक्षिण पूर्व एशिया में भी पहुँची।

पल्लव शासकों ने (550 से 980 ई.) तक शासन किया। इस शासन के अन्तर्गत उन्होंने प्रशासनिक, धार्मिक, राजनैतिक, तथा साहित्यक क्षेत्रों में अपूर्व योगदान प्रदान किया। उनकी शासन व्यवस्था का स्वरूप मौर्यों तथा गुप्तों की शासन पद्धति से मेल खाता प्रतीत होता है। उन्होंने शासन संचालन के लिए उसको कई भागों में बांट रखा था।

धर्म के क्षेत्र में हम देखते है कि पल्लव काल में जैन व बौद्ध धर्म के स्थान पर शैव धर्म वैष्णव धर्म का ज्यादा विकास हुआ तथा इसी के अनुसार मंदिरों का निर्माण भी हुआ। स्थापत्य कला के क्षेत्र में नयी-नयी कला शैलियों का विकास हुआ। जिसका प्रभाव चोल कला में अधिक दिखाई देता है।

गुप्त कालीन संस्कृति 

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