Homeभारतीय संस्कृतिChol Kaleen Sanskriti चोल कालीन संस्कृति

Chol Kaleen Sanskriti चोल कालीन संस्कृति

दक्षिण भारत के राज्यों में नवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक Chol Kaleen Sanskriti का विशेष महत्व रहा है। चोल राज्य का प्रधान केन्द्र वर्तमान तंजाऊर और तिरूच्चिनापल्ली के जिले थे और यहीं क्षेत्र चोल मण्डलम या चोल देश नाम से विख्यात हुआ। चोल नरेश महान कला प्रेमी और निर्माता थे। उन्होंने अनेक बड़े भवन, राजप्रसाद, एवं भव्य मंदिर निर्मित किये सुन्दर नगर और सैनिक बस्तियाँ योजना पूर्वक बनायी।

Chola Period Culture

नदियों पर बाँध, कत्रिम झीलें निमार्ण की, सिंचाई के लिए छोटी-बड़ी नहरें निकाली तथा विस्तृत सड़कों और राजमार्ग बनवाये। चोल नरेश अपने विशाल भव्य भवनों, मंदिरों के निर्माण तथा धातु एवं पाषाण की बनी हुई देवी-देवताओं की मूर्तियों के लिए विशेष रूप से विख्यात हैं। परन्तु चोल संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसकी शासन व्यवस्था है। चोल सम्राटों ने एक विशिष्ट शासन व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें प्रबल केन्द्रीय नियंत्रण के साथ ही बहुत अधिक मात्रा में स्थानीय स्वयत्तता भी थी।

चोलकालीन सामाजिक दशा
चोलकाल में सामाजिक जीवन सुखी, सम्पन्न एवं संतोषजनक था। लोगों का आपस में प्रेम था। तथा सभी जातियाँ एक दूसरे के साथ सहयोगपूर्ण रहती थी। यद्यपि समाज वर्ण-व्यवस्था पर आधारित था। पर अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों का प्रचलन था, परिणामस्वरूप समाज में अनेक उपजातियों का प्रादुर्भाव हो चुका था। समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। पर्दा-प्रथा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियों के सामाजिक जीवन तथा कार्यों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था। उन्हें सम्पत्ति पर भी अधिकार था। वे अपनी इच्छानुसार सम्पत्ति बेच भी सकती थी।

सती प्रथा का प्रचलन कम था, पर परान्तक द्वितीय की रानी वन्तन महादेवी अपने पति की मृत्यु पर चिता में जलकर भष्म हो गयी थी। समाज में नर्तकियों/ द्वेवदासियों भी रहती थी। वे नृत्यगान में निपुण होती थी। अपने रूप एवं लावण्य से वे नवयुवकों को पथभ्रष्ट भी करती थी। अधिकांश देवदासियाँ मंदिर में रहती थी, और विशेष अवसरों पर नृत्य द्वारा देवताओं को प्रसन्न करती थी। कुछ देवदासियाँ विवाह कर कुशल गृहिणी बन जाती थी।

 चोलकालीन आर्थिक व्यवस्था
चोलकाल में कृषि और उद्योग धंधे जीविका के मुख्य साधन थे अधिकांश लोग ग्रामों में बसे हुए थे और कृषि कार्यों में लगे हुए थे। कृषक भूमि का स्वामी होता था और भूमि का स्वामित्व समाज में सम्मान का काम माना जाता था। भूमि पर व्यक्तियों और समुदायों का अधिकार रहता था। कृषि की उन्नति के लिए राज्य सचेष्ट रहता था।

कावेरी नदी से अनेक नहरें निकाली गई थी। करिकाल चोल के समय में कावेरी नदी पर बाँध बंधवाया गया था। सिंचाई के लिए कुँए, तालाब और जलाशय  खुदवाए गये थे। उत्तरमेररूर में वैरूमेघतड़ाग का निर्माण किया गया था। परान्तक ने वीरचोलन नामक तालाब खुदवाया था। ग्राम सभाएँ सिंचाई का प्रबन्ध भी करती थी।

राज्य की ओर से समय-समय पर भूमि का माप तथा वर्गीकरण कराया जाता था। चोल नरेश दुर्भिक्ष के रोकथाम के लिए भी सचेष्ट रहते थे, फसल नष्ट होने पर भू-राजस्व की वसूली नहीं होती थी। कुछ लोग पशुपालन में लगे हुए थे। पशुपालन का व्यवसाय करने वाले मंचादि कहलाते थे। मंचादियों का एक व्यवसायिक वर्ग बन गया था।

चोल शासक अपने साम्राज्य में राजमार्गों का प्रयोग कराते थे, जिससे आंतरिक व्यापार को बड़ा प्रोत्साहन मिला। पेरूबलि या राजमार्गों द्वारा आन्द्र, पश्चिमी चालुक्य और कोंगू देश एक दूसरे से मिलते थे। व्यापारियों की अनेक श्रेणियाँ रहती थी जो व्यापार का निरीक्षण करती थी। नाना देश तिसैयारित्तु अयन्नुरूवर नामक एक विशाल व्यापारिक श्रेणी का उल्लेख मिलता है।

इस व्यापारिक श्रेणी के सदस्य समुद्र पार के देशों से व्यापार करते थे। चीन, मलाया, पूर्वीद्वीप समूह तथा फारस की खाड़ी इत्यादि देशों से दक्षिण भारत के निवासियों का व्यापारिक सम्बन्ध था। 1077 ई. में कुलोतुंग ने 72 सौदागरों का एक दूत मण्डल चीन में भेजा। महाबलिपुरम, कावेरीपट्टनम, शालपुर, कोरकोय तथा क्वीलान बड़े-बड़े बंदरगाहों में परिवर्तित हो गये और चोलों की नौसैनिक शक्ति काफी मजबूत हो गयी।

चोल प्रशासन
चोल प्रशासन संगठित, दृढ़ एवं अत्यन्त कार्यकुशल था। चोल प्रशासन के अध्ययन के लिए हमें मुख्यतः लेखों पर निर्भर रहना पड़ता है। साथ ही साथ इस काल के साहित्य तथा विदेशी यात्रियों के विचरण से भी यथोचित जानकारी मिलती है चोल प्रशासन में अधोलिखित विभिन्न अंग थे।

सम्राट
चोल साम्राज्य अपने उत्कर्ष काल में सम्पूर्ण दक्षिण भारत में फैला हुआ था। अन्य युगों की भांति इस समय भी शासन का स्वरूप राजतंत्रात्मक ही था, किन्तु राजा के अधिकारों, आचरण एवं उनकी शान-शौकत में पहले से अधिक वृद्धि हो गयी। उसका अभिषेक एक भव्य राजप्रसाद में होता था और यह एक प्रभावशाली उत्सव हुआ करता था।

शासक ’चक्रवर्तिगल’, त्रिलोक सम्राट जैसे उच्च सम्मानपरक उपाधियां ग्रहण करते थे। मंदिरों में सम्राट की प्रतिमा भी स्थापित की जाती थी तथा मृत्यु के बाद दैव रूप में उनकी पूजा होती थी। तंजोर के मंदिर मे सुन्दर चोल (परान्तक द्वितीय) तथा राजेन्द्र चोल की प्रतिमायें स्थापित की गयी थी। सम्राट का आदेश अक्सर मौखिक होता था जो उसके पदाधिकारियों द्वारा विभिन्न प्रान्तों में सावधानीपूर्वक लिखकर पहुँचा दिये जाते थे।

सम्राट प्रायः अपने जीवनकाल में ही युवराज का चुनाव कर लेता था जो उसके बाद उसका उत्तराधिकारी बनाता था। सम्राट के कार्यों में सहायता देने के लिए परिचारकों तथा शासन के प्रमुख विभागों का प्रतिनिधित्व करने वाले मंत्रियों का एक वर्ग होता था।

चोल सम्राट निरंकुश नहीं होता था तथा धर्म तथा आचार के विरूद्ध कार्य नहीं करता था। वह कानून का निर्माता न होकर सामाजिक नियमों एवं व्यवस्था का प्रतिपालक होता था। सार्वजनिक हित के कार्यों, जैसे-मंदिर निर्माण, कृषि योग्य भूमि तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था, विद्यालयों तथा औषधालयों की स्थापना आदि में उसकी विशेष रूचि होती थी।

पल्लव कालीन संस्कृति 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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