Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिLoksahitya Me Rashtriya Sahitya  लोकसाहित्य मे राष्ट्रीय साहित्य

Loksahitya Me Rashtriya Sahitya  लोकसाहित्य मे राष्ट्रीय साहित्य

राष्ट्रीय साहित्य वह है, जो राष्ट्र का हो, राष्ट्र के सम्बन्ध में हो और राष्ट्र के हित में राष्ट्र को व्यक्त करता हो। राष्ट्र का हो अर्थात् राष्ट्र की किसी भी भाषा में रचित हो। राष्ट्र के सम्बन्ध में हो अर्थात् राष्ट्र के तन-मन और आत्मा के सम्बन्ध में हो। बुन्देलखंड के Loksahitya Me Rashtriya Sahitya  राष्ट्र का तन उसकी भूमि, प्रकृति, ऋतुएँ, उपज, नगर-गाँव और उनके निवासी होते हैं और मन उसके निवासियों का लोकमन होता है तथा आत्मा लोकात्मा। राष्ट्र के तन-मन-आत्मा का अर्थ राष्ट्र की समूची अस्मिता से है, जिससे राष्ट्र की पहचान होती है

बुन्देलखंड के लोकसाहित्य मे राष्ट्रीय साहित्य

हर राष्ट्र का एक विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, अपनी निजताओं से एक अलग छवि आलोकित करता हुआ। उसमें अपनी शक्ति और सीमाएँ होती हैं, शाश्वत और कालिक लोकमूल्य होते हैं, स्थिर और गतिशील आचरण होता है, लोकहृदय की निराली धड़कन होती है और लोकमन का विशिष्ट चिन्तन, अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है तथा इन सबको मिलाकर एक सम्पूर्ण आत्म बनता है, जिससे राष्ट्र खड़ा होता है। इसी राष्ट्र को राष्ट्र के हित में व्यक्त करता है राष्ट्रीय साहित्य।

लोकसाहित्य राष्ट्र के हर जनपद की लोकभाषा में लोकप्रचलित लोक का साहित्य है। बुन्देलखंड के लोक का लोकसाहित्य बुन्देली में है और ब्रज का ब्रजी में। कुछ विद्वानों का मत है कि इस तरह जनपदों में विभाजित लोक-साहित्य राष्ट्रीय साहित्य की संज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता। क्षेत्रवाद की भावना जिस प्रकार राष्ट्रीयता की विरोधी है।  

राष्ट्रीय हित के लिए अनिवार्य संकट, उसी तरह आंचलिक साहित्य भी राष्ट्रीय एकता में बाधक है। लेकिन लोकसाहित्य में आंचलिक कट्टरता की भावना को प्रश्रय नहीं मिलता, उदाहरण के लिए ऐसे कई लोकगीत, लोकगाथाएँ और लोककथाएँ हैं, जो एक अंचल से दूसरे अंचल में जाकर लोक प्रचलित हो गई हैं।

बुन्देली जनपद की लोकगाथा ‘आल्हा’ पूरे उत्तर भारत में गायी जाकर हर जनपद की अपनी बन गई है। जिस तरह हर जनपद या अंचल राष्ट्र का अंग है। उसी तरह अंचल की संस्कृति, साहित्य और कला भी राष्ट्रीय संस्कृति, साहित्य और कला के ही अवयव हैं। जनपदीय या आंचलिक संस्कृतियों के बिना राष्ट्रीय संस्कृति का स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता।

एक अंचल में प्रचलित सांस्कृतिक मूल्य जब अनेक अंचलों में व्याप्त हो जाता है, तब वह राष्ट्रीय संस्कृति का मूल्य बनता है। यही प्रक्रिया साहित्य और कला में स्वतः संचालित होती रहती हैं। आशय यह है कि लोकसंस्कृति, लोकसाहित्य और लोककला का आदर्श या प्रवृत्ति जो राष्ट्र के अनेक अंचलों में प्रचलित हो जाती है, राष्ट्रीय आदर्श या प्रवृत्ति बन जाती है।

दूसरे शब्दों में, जानपदीय लोकसाहित्य की राशि में व्याप्त समान तत्त्व राष्ट्रीय लोकसाहित्य के तत्त्व के रूप में ख्यात हो जाते हैं। इस दृष्टि से एक अंचल के लोकसाहित्य और राष्ट्रीय लोकसाहित्य में विरोध की समस्या नहीं है, वरन् अंचल का लोकसाहित्य राष्ट्रीय लोकसाहित्य का अंगभूत रूप है।

लोकभाषा का अर्थ है लोक की भाषा अर्थात् लोक की कल्पनाओं, भावनाओं, विचारों, विश्वासों और कर्तव्यों की भाषा। लोक से बहुत गहरे जुड़ी हुई, लोकात्मा तक प्रसरित और लोक की समस्त चेतना, संस्कृति और लोकत्व को प्रतिबिम्बित करती हुई। क्या ऐसी लोकभाषा को संकीर्ण और विघटनकारी कहा जा सकता है ? यदि राष्ट्रीय साहित्य में राष्ट्र व्यक्त होता है, तो सभी लोकभाषाओं के साहित्य में भी राष्ट्र व्यक्त होगा।

लोकभाषा में रचित साहित्य राष्ट्र के साहित्य का एक अनिवार्य अंग है। लोक से ज्यादा सम्बद्ध होने के कारण वह राष्ट्रीय भी अधिक है। सच्चा राष्ट्रीय साहित्य वही है, जो लोक का हो, लोक को व्यक्त करता हो और लोक की समझ में आकर लोकमान्य हो। इस दृष्टि से लोकभाषा का साहित्य खरा उतरता है और लोकसाहित्य तो एक तरह से आदर्श ही है।

लोकभाषा की समझ-सम्बन्धी कठिनाई को भी आड़े हाथों लिया जाता है, क्योंकि सीमित क्षेत्र की होने से पूरे राष्ट्र को बोधगम्य होना कठिन है। लेकिन ऐसा सोचा जाए, तो प्रान्तीय भाषाओं मराठी, गुजराती, बंगला, तमिल, तेलगु आदि के साहित्य को समझना तो और भी कठिन है।

बहुभाषाई राष्ट्रीय साहित्य के सम्बन्ध में यह एक समस्या है, लेकिन उसका समाधान भी है। पहला यह कि हिन्दी की बोलियों को सीखने के लिए हिन्दीभाषियों को अधिक समय नहीं लगेगा। प्रत्येक नागरिक को एक प्रान्तीय भाषा का ज्ञान भी अर्जित करना चाहिए। तीसरे, हर प्रान्तीय भाषा के साहित्य का अनुवाद अनिवार्य होना जरूरी है। संकीर्णता, पक्षधरता और सामन्ती होने के आरोप भी गाहे-बगाहे चस्पा किए जाते रहे हैं।

लोकसाहित्य और उसमें अभिव्यक्ति लोकसंस्कृति में साम्प्रदायिकता, वर्गवाद, सामन्तवाद और पुरस्कार या शिविर-धर्मिता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। लोकदर्शन, लोकधर्म और लोकभाव में किसी भी तरह की व्यक्तिवादी प्रवृत्ति नहीं पनपती।

सामन्तवादी या सामन्तीय अवशिष्ट का तर्क इस आधार पर दिया जाता है कि पहले की सामाजिक संरचना सामन्तवादी थी। कुछ लोककथाओं में राजा, सेठ-साहूकार, मन्त्रा आदि उच्च वर्ग के नायक आये हैं, लेकिन समग्रतः लोकसाहित्य जातीय जीवन का साहित्य है, इसलिए उसमें सभी वर्गों को महत्त्व दिया गया है।

सामन्ती संस्कृति में जिस भोग-विलास, ऐश्वर्य, ताम-झाम, निरंकुशता आदि की प्रधानता रहती है, वह रत्तीभर भी लोकसाहित्य की लोकसंस्कृति में नहीं है। लोकसाहित्य अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से सामन्तवाद का विरोधी है, क्योंकि वह स्वच्छन्दता, सहजता, प्रेम, सहानुभूति आदि प्रवृत्तियों को महत्त्व देता है।

सामन्तवाद में थोड़े से लोगों का प्रभुत्व रहता है, जबकि लोकसाहित्य में पूरा जनपदीय लोक है। अब आप ही विचार करें और निर्णय लें कि ऐसा लोकसाहित्य, जो तमाम संकीर्णताओं, भेदभावों और पक्षधरताओं से दूर है, राष्ट्रीय साहित्य का सही प्रतिनिधि है कि नहीं।

हर जनपद के लोकसाहित्य में कुछ ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जो दूसरे जनपदों, प्रदेश और राष्ट्र के साहित्य से मेल खाती हैं और सभी में जुड़ाव की स्थिति लाती हैं। सभी में संस्कारों की एकरूपता है, एक-से मानवीय रिश्तों की व्यंजना है और लोककल्याण का एक ही लक्ष्य है।

प्रेम, त्याग, शौर्य, बलिदान, कर्म, पातिव्रत्य, शील जैसी लोकमूल्य सभी में प्रधान हैं। सभी में एक-सा लोकदर्शन और लोकधर्म है। कुछ लोकगीतों, लोकगाथाओं और लोककथाओं की संवेदना हर अंचल में समान है, जिससे ऐसा लगता है कि कुछ लोकभाव हर अंचल में एक-से हैं। इस प्रकार समानताओं के अनेक बिन्दु अंचलों के लोकसाहित्य में विद्यमान हैं।

लोकसाहित्य का राष्ट्रीय साहित्य खोजने से महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक साक्ष्य मिले हैं। 1857 ई के प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम के प्रमाणस्वरूप मुझे तीस-इकतीस बुन्देली लोकगीत और दो कटक ‘पारीछत कौ कटक’ और ‘झाँसी कौ कटक’ हैं, जिनमें जैतपुर के अंग्रेजविरोधी युद्धों से लेकर झाँसी के युद्ध तक के विवरण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट है कि स्त्रियों ने भी युद्ध किया था और अंग्रेजों के दमन का सामना हर वर्ग ने किया था।

बहरहाल, इन साक्ष्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि 1857 ई. का युद्ध सेना की गदर न होकर भारतीयों की आजादी की लड़ाई थी। बहुत-सा लोककाव्य तो नष्ट हो चुका है, लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रीयता अभिव्यक्त करनेवाली गीत अधिक संख्या में प्राप्त हुए हैं, जो पुनरूत्थान काल से 1947 ई. तक की लोकसंकृति की कथा कहते हैं । 

जिनमें सांस्कृतिक समस्याओं, जैसे बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, परिवार की टूटन, अनाचार, भ्रष्टाचार आदि की प्रभावी अभिव्यक्ति हुई है। भीतर के यथार्थ को व्यंग्य-शैली में परत-दर-परत खोलने का कार्य इन गीतों ने किया है। लोककवि तो लोककाव्य की शक्ति को बुन्देले हरबोलों के मुख से कहलाता है….
काऊ नें सैर भाषे काऊ नें लावनी।
अबके हल्ला में फुँकी जात छावनी।।

इसी ऊर्जा को शिष्टसाहित्य के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अच्छी तरह समझा था और अपने राष्ट्रीय साहित्य में लोककाव्य की सहज-सरल अभिधात्मक शैली अपनाई थी, जिसने उन्हें अहिन्दीभाषियों में भी लोकप्रिय बना दिया था और ‘भारत-भारती’ ‘गीता’ की तरह लोकमुख में प्रचलित हो गई थी। गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से आने के पूर्व ‘भारत-भारती’ ने राष्ट्रीय चिन्तन का वातावरण खड़ा कर दिया था। इस रूप में भी शिष्टसाहित्य लोकसाहित्य का ऋणी है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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