Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिLoksahitya Aur Loksanskriti लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति

Loksahitya Aur Loksanskriti लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति

Loksahitya Aur Loksanskriti के अन्तर्सम्बन्ध की खोज के लिए दो महत्त्वपूर्ण सूत्र पर्याप्त हैं। पहला है लोक, जिससे साहित्य और संस्कृति जुड़कर लोक के हो जाते हैं और लोकहित में होने से लोक द्वारा गृहीत हो जाते हैं। लोक के होने का गुण लोकत्व है, जो साहित्य और संस्कृति को लोकमय बना देता है।

बुन्देलखंड के साहित्यिक इतिहास के लिए जब मैंने पुराने कवियों की पांडुलिपियों का अध्ययन से पता चलता है कि कई बारामासियाँ जो बारामासी-संकलनों में लिखित थीं, वे लोकमुख में भी थीं। कई ऐसी भी थीं, जो लिखित थीं, पर लोकप्रचलन में नहीं थीं। दोनों की तुलना से लोकत्व अर्थात् लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति का समन्वय स्पष्ट हो जाता है।

दूसरा सूत्र है लोकमानव, जिसने एक तरफ लोकसंस्कृति को जिया है, भोगा है और दूसरी तरफ लोकसाहित्य को रचा है। लोकमानव की संज्ञा मैंने जान-बूझकर चुनी है, क्योंकि मानव अकेले में उसकी वैयक्तिकता आड़े आती है, जबकि लोकमानव से वह लोक के एक सदस्य अर्थात् लोकचेतना को आत्मसात करनेवाले का बोध होता है। लोक और लोकमानव के सूत्रों से लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है।

लोकसंस्कृति वस्तु है, जिसे लोकसाहित्य पद्य या गद्य की किसी विधा में रूपायित कर अभिव्यक्त करता है। लोकजीवन के वैचारिक पक्षµलोकदर्शन, लोकधर्म, लोकमूल्य और लोकविश्वास तथा लोकाचरण के लोकसंस्कार, लोकरीतियाँ, लोकप्रथाएँ, लोकरंजन, लोकोत्सव, लोकक्रीड़ाएँ और लोकव्यवहार, जो लोकपरम्परा से प्राप्त हैं अथवा जो वर्तमान में लोकोपयोगी हैं, सभी लोकसंस्कृति के अंग हैं।

लोककवि लोकजीवन के किसी दृश्य-खंड को पहले भोगता है, फिर उससे प्राप्त अनुभव को अपनी स्मृति-पटल में टाँक लेता है और मन की प्रभावी स्थिति में उसे अपनी कल्पना में लाकर लोकशब्दों में अभिव्यक्त कर देता है। इस रूप में लोकजीवन में व्याप्त लोकसंस्कृति लोकसाहित्य की वस्तु है, जिसके बिना लोकसाहित्य का सृजन सम्भव नहीं है।

लोकसंस्कृति जब जिस रूप में लोकप्रचलन में होती है, तब उस रूप में उसकी अभिव्यक्ति लोकसाहित्य करता है। दूसरे शब्दों में, लोकसाहित्य तत्कालीन लोकसंस्कृति के प्रकाशन का एक लोकमाध्यम है। प्रश्न उठता है कि लोकसंस्कृति का हू-ब-हू अंकन या प्रतिबिम्न लोक-साहित्य में रहता है अथवा लोककवि या लोकसर्जक उसमें कुछ जोड़ता-घटाता है।

असल में, लोकसाहित्य के ‘लोकत्व’ को अधिकाधिक सुरक्षित रखने के लिए लोकजीवन के लोकव्यापार को यथारूप व्यक्त करने का प्रयास होता है और वही सजह उच्छन है। यह निश्चित है कि उसमें अनुभूति की वैयक्तिकता बाधा नहीं बनती। यदि वैयक्तिक अनुभूति का व्यक्तिकरण होता है, तो वह भी लोकीकृत रूप में बदलकर। एक उदाहरण देखें

अलगरजी भरे बेलाताल, गगर मोरी न डूबै रामा।
सासो की डूबै, ननद की डूबै, मोरी रई उतराय, गगर मोरी।
देवरानी की डूबै, जेठानी की डूबै, मोरी रई उतराय, गगर मोरी।।

उक्त पंक्तियों में नायिका की अनुभूति इसलिए वैयक्तिक है कि सरोवर में अपार जल है और उसकी सास, ननद, देवरानी, जेठानी, सभी की गागरें उससे जल भरती हैं, पर उसकी गागर नहीं भरती। लोककवि ने मन के अलग-अलग होने की उक्ति से उसे लोकीकृत कर दिया है। नायिका की मन गागर दूसरों से भिन्न है और मन की भिन्नता से उसे तृप्ति नहीं हो पाती।

लोकीकरण में लोक की मर्यादा, शील-संकोच, लज्जा और नैतिकता होती है, इसलिए लोककवि लोकमर्यादा, लोकलाज या लोकसंयम की लक्ष्मण-रेखा पार नहीं करता। शिष्ट साहित्य में अश्लील दृश्यों का अंकन सम्भव है, पर लोकसाहित्य में नहीं। राधाकृष्ण के सुमिरन के बहाने की बात अलग है। कभी-कभी कोई लोकोत्सव जैसे ‘होली’ या लोकनृत्य ‘राई’ में कोई शृँगारिक पंक्ति उभरती है, पर वह लोक की सहमति पाकर ही गाई जाती है।

दूसरा प्रश्न है कि क्या लोकसाहित्य की रचना लोकसंस्कृति में परिवर्तन करने की क्षमता रखती है। लोकसाहित्य की प्रभावी पंक्तियाँ तो व्यक्ति पर काफी प्रभाव छोड़ती हैं। उदाहरण के रूप में एक मजदूर की थकान जब उसकी कार्य-क्षमता पर हावी होने लगती है, तब एक मनरंजनकारी लोकगीत उस थकान को सुला देती है। ठीक इसी प्रकार बौद्धिकता से बोझिल बेचैनी को एक उपयुक्त लोकगीत दूर कर देता है।

इतना ही नहीं, लोकगीतों की भाषा रूढ़िबद्ध एवं शास्त्राय भाषावाली रचना को नई ताजगी देती है। साथ ही रूढ़िबद्ध काव्यधारा को लोकगीतों का प्रभाव एक स्वतन्त्राता, एक नयापन और एक रसवत्ताभरी जड़ी-बूटी लेकर आता है। लोकसाहित्य भाषा और साहित्य को उसकी शास्त्रायता और रूढ़िबद्धता से मुक्त करता है।

लोकसाहित्य के संस्कारपरक लोकगीत लोकसंस्कारों की रक्षा करते हैं तथा वीररसपरक लोकगीत और लोकगाथाएँ सैनिकों को उत्साहित कर देश की रक्षा में सहायक है। उदाहरण के लिए, बुन्देलखंड के आल्हा ने देश की सैनिक टुकड़ियों को हमेशा जगाया है। बहुत पुराने समय से आक्रामक विदेशी संस्कृति से सुरक्षा करने में और भारतीय संस्कृति को जीवित रखने में जितना लोकसंस्कृति का योगदान है, उतना ही सहायक रहा है लोकसाहित्य।

आज का इस वैज्ञानिक और भौतिक मूल्यों से घिरी परिस्थितियों में लोकजीवन की बौद्धिक बोझिलता और यान्त्रिकता को तोड़ने तथा जीवन में सरसता घोलने में लोकसाहित्य अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ है। लोकसंस्कृति का प्रचारक-प्रसारक होने में उसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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