Bundeli Loksahitya Aur Lokkala का असली कोश बुन्देलखंड के गाँवों में हैं और गाँववालों से बात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे गायन, वादन, नर्तन, आलेखन आदि में भेद नहीं करते। उदाहरण के लिए क्वाँर मास के शुक्ल पक्ष के प्रारम्भ से नवरात्रा में क्वाँरी लड़कियाँ जब नौरता खेलती हैं, तब वे चाहे चित्रांकन करें, चाहे मूर्ति बनाएँ और चाहे नृत्य करें, सभी क्रियाओं में लोकगीतों का गायन चलता रहता है।
दूसरे शब्दों में, सभी कलाएँ और साहित्य उनके नौरता को पूर्णता देते हैं। अगले से विभाजनकर आप भले ही व्याख्या कर लें, पर कन्याओं की ओर से विभाजन की कोई सार्थकता नहीं है। हर छोटे-बड़े लोकोत्सव से एक लोककथा जुड़ी है, लोककथा के कथानक को स्पष्ट करते हैं लोकचित्रों के आलेखन या लोकमूर्तियों की बनक अथवा लोकगीतों के बोल और उन पर आधारित लोकनृत्य।
वस्तुतः लोकजीवन से जुड़े सभी क्रिया-कलायों से जिस तरह एक गत्यात्मक प्रवाह बनता है, ठीक उसी तरह लोकसाहित्य के अंगों लोककथा और लोकगीतों, लोकचित्रकला (चतेउर), लोकमूर्तिकला (गढ़बौ), लोकसंगीत (गाबौ), लोकनृत्यकला (नाचबौ) आदि से एक काज अर्थात लोकोत्सव, व्रत-त्योहार, लोकखेल, लोकसंस्कार आदि बनता है, जिससे यह सिद्ध होता है कि लोकसाहित्य और लोककलाएँ एक दूसरे के पूरक हैं।
किसी भी व्रत-त्योहार और लोकोत्सव के केन्द्र में सर्वप्रथम लोककथा आई, फिर उसी के अनुसार आलेखन लिखे गए या लोकमूर्तियाँ बनी, जिन्होंने लोककथा को अर्थाने का सफल प्रयास किया है। चित्रा-प्रतीक या मूर्ति प्रतीक द्वारा। फिर हर प्रसंग को लेकर लोकगीत रचे गए। लोकगीत और लोकसंगीत अलग नहीं होते तथा लोकनृत्य भी लोकसंगीत के सहयोगी के रूप में कार्य करता है। इस प्रकार लोकसाहित्य और लोककलाओं का सम्बन्ध लोककाज से बँधा रहा है।
बुन्देलखंड में काज या कारज का अर्थ धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्रिया-कलाप के लिए आता है। उदाहरण के लिए, दिवारी की लक्ष्मी-पूजा एक काज हुआ और उसी काज से सम्बद्ध एक लोककथा प्रचलित हुई। फिर लोककथा के अनुरूप सुराता या सुरातू और सुराती अर्थात् विष्णु और लक्ष्मी के चित्र एवं कथानक के अनुसार अन्य चित्र गेरू से लिखे जाते हैं, जबकि दोज की लोककथा के अनुरूप गोबर से कई मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। जिसे ‘दोज धरना’ कहते हैं। विभिन्न देवियों की स्तुति में भक्तिपरक लोकगीत और लोकगाथाएँ लोकप्रचलित हैं और उनके साथ देवी का पूजन और भावात्मक वाचिक अभिनय प्रधान है।
संस्कारपरक लोकगीतों का गायन विशिष्ट संस्कार से बँधा रहता है। बधाए, लाकौर आदि में लोकनृत्यों की लड़ी जुड़ी रहती है। स्पष्ट है कि लोकसाहित्य और लोककलाओं का सम्बन्ध बहुत निकट का है। कई लोकगीतों में लोककलाओं का वर्णन भी है और कहीं-कहीं उन वर्णनों से भावावेग फूट पड़ता है और कहीं किसी अहितकर घटना का कारण बन जाता है।
सीता-बनवास की लोकगाथा में सीता-बनवास का कारण सीता द्वारा रावण का चित्र लिखना है (जिन बैरी के भैया नाँव न लीजे भौजी सोई लिखे मढ़ माँझ/सजाओ ना भैया लछमन पालकी अपनी भौजी खों देव पठाय), लेकिन बेटी अपने मायके और माता-पिता की स्मृति को पक्का करने के लिए अपनी चुनरी में मायके के दृश्य और माता के बोल लिखने का निर्देश देती है (ढिग-ढिग लिखियो मोरो मायको को मारे सुअटा, अँचरन माई के बोल), जो बेटी की भावुकता से जुड़ा हुआ है।
इस प्रकार लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनाट्यों द्वारा लोक कलाओं के लोकप्रचलन की साक्ष्य का पता चलता है। लेकिन यह भी सच है कि लोकनृत्यों (लोक कला) से लोकगीतों के शब्द अपने से अधिक कह गए हैं और लोकसंगीत के बिना तो लोकगीत की अस्मिता ही सुरक्षित न रह पायेगी। तात्पर्य यह है कि दोनों की पारस्परिक निर्भरता स्वयंसिद्ध है।