कुमायूँगढ़ के राजा रतन सिंह की पुत्री राजकुमारी कलावती और वीर सुलिखान के विवाह के दौरान Kumayu Ki Ladai हुई जिसमे राजारतन सिंह के दोनो पुत्रो कुँवर सिंह, लाल सिंह को आल्हा ने बंदी बना लिया था। मलखान का ही छोटा भाई सुलिखान था। बच्छराज और माँ ब्रह्मा देवी उर्फ तिलका के ये दोनों वीर पुत्र थे। राजा परिमाल ने जस्सराज और बच्छाराज की मृत्यु के बाद उनके बच्चों का पूरी ममता और प्रेम से पालन किया था। रानी मल्हना ने सब बच्चों को भरपूर प्रेम दिया तथा बच्चों ने भी रानी मल्हना और राजा परिमाल को सदा अपने माता-पिता से बढ़कर सम्मान दिया था।
कुमायूँ की लड़ाई – सुलिखे का विवाह
महोबा के निकट ही दशपुरवा में बनाफरों ने राजनिवास बनाया था। मलखान सिरसा में राज करने लगा था, परंतु संकेत पाते ही राजा परिमाल और अग्रज आल्हा की सेवा में उपस्थित हो जाता था। एक बार सुलिखान ने निश्चय किया कि बदरीनाथ भगवान् के दर्शन करें तथा केदारनाथ में भगवान् भोलेनाथ पर जल चढ़ाएँ।
राह कठिन है, अतः आल्हा व राजा परिमाल ने मना किया। बनाफरों की तो यही आदत थी, जो ठान ली, उसे पूरा करने के लिए जुट गए, फिर मानी किसी की नहीं। मलखान को बुलवाया गया। उसने भाई की इच्छा में रोड़ा नहीं अटकाया। आल्हा ने फिर भाई देवपाल (ढेवा) को यह कठिन कार्य सौंपा। उन दोनों के साथ बहुत सा धन और कुछ सैनिक भेज दिए।
ढेवा सुलिखे को साथ लेकर पूरी तैयारी से तीर्थ करवाने को बदरीनाथ के मार्ग पर निकल पड़े। अनेक गाँव, शहर, नदी, पहाड़ों को पार करते हुए दोनों भाई तीर्थ में पहुँच गए। दर्शन किए, पूजा की, ब्राह्मणों को दान दिया। भगवान् भोलेनाथ पर भी जल चढ़ाया। विधिवत् पूजा की तथा फिर वापस चल पड़े। लौटते हुए राह में थोड़ी सी भूल के कारण वे कुमायूँगढ़ जा पहुँचे। शहर के बाहर ही डेरा डालकर ठहर गए। प्रातः चलने का विचार करके रात्रि को वहीं विश्राम किया।
सवेरे उठते ही सुलिखे ने भाई ढेवा को अपना सपना सुनाया। सपने में उसने एक सुंदर बाग देखा। बाग में सखियों के साथ एक राजकुमारी थी। राजकुमारी का नाम कलावती बताया। कलावती ने सुंदर सुमनों से गुंथी हुई माला सुलिखे के गले में डाली तथा विवाह के लिए आमंत्रित किया। सपना सुनकर ढेवा ने कहा, “यहाँ हमें रुकना नहीं है, सपने भ्रम होते हैं।
परंतु सुलिखान ने इसे भगवान् बदरीनाथ का आशीर्वाद माना। उसने कहा, “एक बार यहाँ की राजकुमारी को देखने की योजना बनाते हैं। सपने वाली कलावती वही हुई तो विवाह करना पड़ेगा। यदि वह न हुई तो चुपचाप घर को चले जाएँगे।” ढेवा को मानना पड़ा। अब राजकुमारी को देखने की योजना बनाई गई। दोनों ने अपने हथियार भीतर छिपाए तथा ऊपर से साधुओं का चोला पहन लिया।
राजमहल के पास ही गाते-बजाते भिक्षाटन करने लगे। दासी ने उनका सुंदर रूप देखा तो जाकर अपनी रानी पद्मा को जानकारी दी। पद्मा ने दासी को भेजकर जोगियों को महल में बुलवाया। रानी ने उनका परिचय पूछा तो ढेवा ने उत्तर दिया, “हम कामरूप की कामाख्या देवी के दर्शन करके आ रहे हैं और अब देवी हिंगलाज के दर्शन करने जा रहे हैं।
रानी बोली, “सच बतलाओ! तुम पर क्या कोई ऐसी विपत्ति पड़ गई कि जोगी बनना पड़ा?” ढेवा ने उत्तर दिया, “रानीजी! तुम्हारा ज्ञान कहाँ गया? अरे जो भगवान् ने भाग्य में लिख दिया, उसे कौन मिटा सकता है? पूर्व जन्मों के कर्मों का फल ही तो इस जन्म में भोगते हैं। किसको कहाँ जन्म मिले तथा कैसे जीवन बिताना पड़े, यह सब विधाता के लेख के अनुसार ही भोगना पड़ता है।
रानी ने उन्हें भजन-कीर्तन सुनाने को कहा तो ढेवा ने खंजरी बजानी शुरू की और सुलिखे ने बाँसुरी की तान छेड़ी। फिर तरह-तरह के राग-रागिनी सुनाए। रानी बहुत खुश हुई और कहा, “अगर तुम दोनों महलों में भोजन कर लो तो कुछ पुण्य हमें भी प्राप्त हो जाए।” ढेवा ने उत्तर दिया। “रानीजी! आपका जीवन सफल करने के लिए क्या हम अपना योग भंग कर लें? हमें तो भिक्षा दे दो। डेरे पर हमारे गुरु प्रतीक्षा कर रहे होंगे। भोजन बनाकर ठाकुरजी का भोग लगाकर ही प्रसाद स्वरूप हम भोजन करेंगे।”
रानी पद्मा ने कहा, “अच्छा ठहरो! मैं जरा अपनी पुत्री को बुलवाती हूँ। उसे एक बार अपना प्रवचन सुना दो। फिर भिक्षा लेकर चले जाना।” बाँदी भेजी और राजकुमारी को बुलवाया। राजकुमारी कलावती अपने साथ पान का बीड़ा भी लेकर आई। रानी ने पलंग पर बेटी को बिठाया और फिर जोगियों से कुछ सुनाने का आग्रह किया। ढेवा ने डमरू बजाना शुरू किया और सुलिखे ने बाँसुरी की तान छेड़ी।
कजरी राग से महलों में मोहिनी छा गई। कलावती ने अपने हाथ से पान का जोड़ा सुलिखे को दिया। दोनों ने एक-दूसरे को निकटता से देखा। आँखें चार हो गई। पान का बीड़ा मुँह में दिया। सुलिखे और कलावती दोनों अचेत हो गए। पद्मा रानी ने कहा, “यह कैसा जोगी है। मेरी बेटी की सुंदरता देखकर अचेत हो गया? मैं अभी राजा को बुलवाती हूँ। पकड़कर जेल में डाल देंगे तो अकल ठिकाने आ जाएगी।”
ढेवा ने बात सँभाली—”राजकुमारी ने जो पान दिया, उसमें तंबाकू था। इधर जोगी ने प्रातः से अब तक पानी भी नहीं पिया। जगह-जगह गाते-बजाते बुरी तरह थक चुका था। इसीलिए चक्कर आ गया। मेरे साथी को कुछ हो गया तो शाप देकर तुम्हारे महल को भस्म कर दूंगा। हम कोई साधारण जोगी नहीं हैं, हम तपस्वी जोगी हैं।
रानी ने भिक्षा की सामग्री दिलवाई और जोगियों को विदा कर दिया। बेटी उठी तो माता ने पूछा कि तुम्हें क्या हो गया था? कलावती ने सच-सच बता दिया कि ऐसे सुंदर और जवान योगी मैंने कभी नहीं देखे। मैं तो उनके रूप पर मोहित हो गई थी। डेरे पर पहुँचने के बाद दोनों ने तुरंत महोबा जाने की तैयारी कर ली।
पहाड़ी मार्गों से होते हुए कई दिन लग गए। महोबे पहुँचकर सुलिखे उदास दिखाई पड़े तो माता मल्हना ने ढेवा को बुलाकर उदासी का कारण पूछा। ढेवा ने कलावती का किस्सा सुना दिया और कहा सुलिखे की उदासी का उपचार है कुमायूँ गढ़ी की राजकुमारी कलावती से विवाह। मल्हना ने मलखे को बलवाया। मलखान ने सारी बात जानकर समस्या अग्रज आल्हा को बताई।
आल्हा ने समझाया, “कुमायूँ का राजा रतन सिंह है। वहाँ की लड़ाई कौन सँभालेगा? पहाड़ों पर न तोपें काम आती हैं, न हाथी काम आते हैं। घुड़सवार और पैदल ही लड़ पाते हैं। हमारे यहाँ के सैनिक भी पहाड़ी रास्तों में सफल नहीं होते। विवाह के इस विचार को छोड़ दो।” पर महोबेवालों ने तो इरादा करके कभी छोड़ा ही नहीं।
तभी ऊदल आ गए। सारी बात जानकर ऊदल ने आग में घी डाल दिया “कोई बात नहीं, राजा रतन सिंह भी तो राजा ही है। हम सुलिखे का विवाह कलावती से ही करके लाएँगे। भगवान् बदरीनाथ के आशीर्वाद से ही यह कार्य पूरा होगा।” पंडित को बुलाकर शुभ मुहूर्त पूछा और राजाओं को बरात के लिए निमंत्रित कर दिया गया।
घरेलू तैयारी मल्हना और दिवला, तिलका माताओं ने पूरी कर ली। हल्दी, कंगना, मंडप, पूजा, दक्षिणा सब नेग पूरे किए गए। फिर पंडित को बुलाकर राजा परिमाल ने पत्र लिखवाया। हरकारे के हाथ पत्र कुमायूँगढ़ को भेज दिया गया।
राजा रतन सिंह के दरबार में हरकारे ने पत्र पहुँचा दिया। पत्र पढ़कर राजा को क्रोध आ गया। उसने उत्तर लिखवाया-“नैनागढ़ के धोखे में मत रहना। मेरा नाम रतन सिंह है और इस ओर आने का साहस किया तो सबके सिर काट लिये जाएँगे।
पत्र हरकारे के हाथ वापस भेज दिया। पत्र आल्हा को मिला। पढ़ते ही माथे पर चिंता की रेखाएँ उभर आई। मलखान ने कहा, “दादा! सोच मत करो। चलने की तैयारी करो।” राजाओं को चलने की तारीख दे दी गई।
अपने वाहन और शस्त्र लेकर सब आ गए। पंचशावद हाथी पर आल्हा सवार हुए। दुल घोड़े पर ऊदल, कबूतरी घोड़ी पर मलखान, ढेवा ने अपना मनुरथा घोड़ा सँभाला। कामजीत और अपरजीत हथिनी पर सवार हो गए। सभी अपने-अपने हथियार और सवारी पर तैयार हो गए तो शुभ मुहूर्त देखकर राजा परिमाल का आशीर्वाद लेकर बरात रवाना हो गई। तब रूपन वारी को बुलवाया गया। रूपन ने घोड़ा पपीहा और ऊदल की ढाल-तलवार, योगी ब्रह्मानंद का भाला लिया और ऐपनवारी लेकर कुमायूँ गढ़ को चल दिया।
रूपन रतन सिंह के द्वार पर जा पहुँचा। दरबारी ने पूछा तो साफ कहा, “महोबे से बरात आ रही है। राजकुमारी कलावती और वीर सुलिखान के विवाह की ऐपन वारी लाया हूँ। राजा से जाकर कहो कि मेरा नेग भेज दें।”दरबान ने पूछा कि क्या नेग है तुम्हारा, तो रूपन ने कहा, द्वार पर चार घंटे तलवार से सामना करने के लिए वीर भेजो।
दरबार में सूचना पहुँची। राजा ने वारी को बुलवाने की आज्ञा दी, पर रूपन तो दरबार में स्वयं ही पहुँच गया था। कुँवर सिंह को आदेश हुआ कि इस वारी को पकड़ लो, पर यह पकड़ में कहाँ आनेवाला था। रूपन ने तलवार खींच ली और ऐसी चलाई कि सबको घायल करता हुआ फाटक पार निकल गया। घोड़ा और रूपन दोनों खून में रँग गए।
इधर राजा रतन सिंह ने फौज तैयार कर ली और दोनों बेटे कुँवर सिंह, लाल सिंह को आदेश दिया कि फाटक पर ऊँचे बाँस गाड़कर उन पर बाज की मूर्ति लगा दो। आल्हा को खबर भेज दो कि दरवाजे पर स्वागत से पहले बाज गिराने होंगे। तभी मंडप में प्रवेश हो सकेगा। आल्हा ने अपने वीर तैयार करवाए और गढ़ के द्वार पर जा पहुँचे। ऊँचे बाँस पर बाज टाँग रखे थे। बाँसों पर चढ़कर बाज उतारने थे।
मलखान ने समरजीत को बाज उतारने को कहा। लाल सिंह ने आगे बढ़कर युद्ध शुरू कर दिया। दोनों ओर के वीर लड़ने लगे। वीर ऊदल ने लाल सिंह को अपने साथ युद्ध के लिए ललकारा। तब तक मलखान आगे आ गया। लाल सिंह ने ऊदल पर तलवार चलाई। ऊदल तो बच गया, पर मलखे ने लाल सिंह पर वार कर दिया।
धरती पर गिरते ही ऊदल ने घोड़ा कुदाया और बाज उतार लिये। लाल सिंह को बंदी बना लिया गया। फिर कुँवर सिंह को भेजा गया। समरजीत कुँवर सिंह से भिड़ गया। समरजीत के वार से कुँवर सिंह बच गया, पर कुँवर सिंह का वार वह नहीं झेल पाया और समरजीत को बंदी बना लिया गया।
कामजीत ने भी कुँवर सिंह पर तलवार का वार किया, परंतु तलवार टूट गई। तभी ऊदल वहाँ पहुँच गए। ऊदल का वार कुँवर सिंह की ढाल नहीं झेल पाई। वह गिर गया और ऊदल ने तुरंत कुँवर सिंह को बंदी बना लिया। तब तो रतन सिंह आल्हा के पास पहुँच गए। बड़ी दीनतापूर्वक कहने लगे, अब हमें पता चल गया कि बनाफरों से कोई नहीं जीत सकता। मेरे दोनों पुत्र लाल सिंह और कुँवर सिंह को छोड़ दो। मैं अपनी कन्या की भाँवर डलवाने को तैयार हूँ। आल्हा तो उदार ठहरे। तुरंत उन दोनों को छोड़ने का आदेश कर दिया।
फिर रतन सिंह ने कहा, “दूल्हे को अकेले मंडप में भेज दो। मैं फेरे डलवाकर विदा कर दूँगा।” अकेले सुलिखान की पालकी मंडप में भेज दी गई। लड़के को महल में ले जाते ही फाटक पर ताले लगा दिए। अंदर सुलिखान को कैद करने की योजना बनाई। कुँवर सिंह बंदी बनाने आया तो सुलिखे ने पालकी का बाँस निकाल लिया। कुँवर सिंह की तलवार बाँस के वार से गिर गई। सुलिखान ने अपनी तलवार निकाल ली और अकेले ही बारह शूरवीरों को मार गिराया।
तब राजा ने ध्यान बँटाकर उसे बंदी बना लिया और जमीन के नीचे खंदक में डालकर ऊपर पत्थर रखवाकर बंद कर दिया। कलावती को जब यह समाचार मिला तो उसने अपनी मालिन को बुलवाया। एक पत्र लिखकर उसे दिया। मालिन को आदेश दिया कि इसे परिवार के लोगों से छिपाकर आल्हा के पास पहुँचा दो। मालिन को पहले ऊदल मिल गए। ऊदल ने जान लिया कि मालिन आल्हा के लिए पत्र लाई है तो ऊदल उसे साथ लेकर आल्हा के पास पहुँचे। पत्र पढ़कर आल्हा ने ऊदल को पकड़ा दिया।
आल्हा ने आदेश दिया कि फौज तैयार करो और कुमायूँ राजमहल पर आक्रमण कर दो। सुलिखे को छुड़ाकर भाँवर डलवाओ और महलों में लूटमार कर दो। फिर क्या था, सब सैनिक अपने हाथियों और घोड़ों पर सवार हो गए। दोनों ओर की सेनाएँ हथियारों सहित भिड़ गई। तोप और तीर-कमान पीछे रह गए। भाले और तलवारें खटाखट चलने लगीं। पग-पग पर शूरों की लाशें गिरने लगीं। चहुँ ओर मारो-मारो की आवाजें आ रही थीं। कटोरा भर पानी भी कहीं नहीं मिल रहा था। अपने-पराए की पहचान ही नहीं रही, जो सामने पड़ गया, वही तलवार का शिकार हो गया।
ऊदल का वैदुल घोड़ा हर तरफ, हर मोरचे पर नाचता दिखाई दे रहा था। ऊदल वीरों को प्रेरणा दे रहे थे, “खाट पर पड़कर मर गए तो संसार में कोई नहीं पूछेगा। रणखेत में मारे गए तो तुम्हारी पीढ़ी ही अमर हो जाएगी। मारो-मारो, आगे बढ़ो।” फिर तो कुमायूँ के सैनिक भागने लगे। कुँवर सिंह ने आगे बढ़कर ऊदल का सामना किया।
कुँवर सिंह ने तीन वार किए, जो ऊदल ने बचा लिये, परंतु ऊदल ने जो ढाल से धक्का दिया, कुँवर सिंह के गिरते ही ऊदल ने बंदी बना लिया। लाल सिंह आगे बढ़ा तो मलखान से सामना हो गया। उसे मलखान ने कैद कर लिया। रतन सिंह आगे बढ़े तो आल्हा अपने पंचशावद हाथी पर सामने अड़ गए।
आल्हा ने कहा, “राजा! अभी कुछ नहीं बिगड़ा। अभी भाँवर डलवा दो, दोनों ओर का धर्म रह जाएगा। नहीं तो राज्य का नाश निश्चित है।” राजा रतन सिंह की समझ में बात आ गई। उसने फिर अपने पुत्रों को कैद से छुड़वाने का आग्रह किया। आल्हा ने मलखे को साथ भेजा और सुलिखे को खंदक से निकलवाया। पंडितजी को बुलवाकर विधि-विधान से भाँवर डलवाई।
ढेवा और ऊदल ने गहनों का बक्सा रंगमहल में भिजवा दिया। कलावती का श्रृंगार कर दिया गया। सब नेग-जोग और दान-दक्षिणा दी गई। राजा रतन सिंह ने बिना देर किए कलावती को पालकी में बिठाकर विदा कर दिया। उन सभी को लग रहा था कि विलंब हुआ तो फिर कोई बाधा आ सकती है। अत: आल्हा ने भी लश्कर को महोबे के लिए कूच करने का आदेश तुरंत कर दिया।
पंद्रह दिन की लंबी यात्रा करके आल्हा का लश्कर महोबे पहुँचा। पहले ही सूचना भेज दी गई थी। रानी मल्हना ने सभी रानियों और अन्य महिलाओं को बुलवाकर मंगल गीत गाने शुरू कर दिए। वीर सुलिखान तथा दुलहन कलावती को तिलक करके आरती उतारी गई। इतना ही नहीं, महोबे के सभी ब्राह्मणों को दान दिए गए।
जितने राजा बरात में आए थे, उन सभी को उचित सम्मान देकर विदा कर दिया। आल्हा, ऊदल, मलखान और ढेवा ने राजा परिमाल की जयकार करते हुए जाकर प्रणाम किया। राजा परिमाल ने अपने सभी लाड़लों को आशीर्वाद दिया। इस प्रकार सुलिखान और कलावती का विवाह संपन्न हुआ।