कौन हैं बनाफ़र ?
Banafar Vansh के राजपूतों का वर्णन बहुत ही सुन्दर शब्दों में चन्देल शासकों (खजुराहो , महोबा , कालिंजर, अजयगढ़ इत्यादि) में राजा परिमार्दिदेव (परमाल) के शासन काल में ‘मनियादेव’ (देवी) मनियागढ़ महोबा में काफी लोकप्रिय थे, ‘मानियादेवी’ चन्देल शासकों के सरदारों बनाफर वंश की कुलदेवी थी। ‘शारदा माँ’ चन्देलों की ईष्टदेवी थी।
चन्देलों की गौरव-गाथा
इस वंश की उत्पत्ति के विषय में भी अन्य वंशों की तरह अनेक भ्रान्तियों और विसंगतियाँ हैं। कर्नल विलियम्स टॉड ने इसे राठौड़ चैहान तथा गहरवार आदि वंशों की भाँति शक, हूण आदि विदेशी जातियों से उत्पन्न माना है। अन्य कई विद्वानों ने उसे सिसोदिया तथा राठौड़ों की एक शाखा होना लिखा है। ये ठीक नहीं है, क्येां कि कर्नल टॉड का राजपूतों की उत्पत्ति विषयक मत अब अमान्य सिद्ध हो चुका है और सिसोदिया तथा राठौड़ दोनों ही सूर्यवंशी हैं, जबकि चन्देल चंद्रवंशीय हैं।
इस वंश की उत्पत्ति के विषय में एक लोक कथा भी प्रचलित हैं। एक बार काशी के महाराजा इन्द्रजीत के राजपुरोहित हेमराज की सोलह वर्षीय कुँवारी कन्या हेमवती कमल पुष्पों से लद रतिपुष्प नामक तालाब में जलक्रीड़ा कर रही थी कि भगवान चंद्रमा उस पर मोहित हो गये। उन दोनों के संसंर्ग से उत्पन्न शिशु चंद्रबह्म कहलाया जिसके वंशज आगे जाकर चन्देल कहे जाने लगे।
पृथ्वीराज रासों में भी इसी मत को मान्यता दी गयी है। इस कथा का कोई भी ऐतिहासिक आधार नहीं है। क्षत्रिय वंश भास्कर में इस वंश की उत्पत्ति चंद्रवंशीय राजा शिशुपाल जिसे श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र द्वारा मारा था, के एक वंशज चन्द्रब्रह्मा या चन्द्रवर्मा से मानी गयी है। यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे पहले भी कई शासकों के विषय में चन्देल शब्द प्रयुक्त होता रहा है।
कालीदास ने अत्रि के नेत्र से चन्द्रमा और चन्द्रमा से इस वंश की उत्पत्ति होना लिखा है। खजुराहों से प्राप्त एक शिलालेख जो राजा धर्मदेव का वि.स. 1059 का लगाया हुआ है में वर्णित है कि अत्रि के नेत्र कमल से चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हुआ। उससे चन्द्रात्रेय तथा चन्द्रात्रेय से चन्देल वंश का उत्पत्ति हुई।
गौत्र-चन्द्रायण; प्रवर तीन-चन्द्रायण, वात्स, वत्स; वेद-यजुर्वेद शाखा मायन्दिनि; सूत्र-पारस्कर गृह्यसूत्र; कुलदेवी-मनियादेवी शारदा माँ, कुल देवता महादेवजी, गुरु गोरखनाथ जी है। शिलालेख में इस प्रकार लिखा हुआ है-
”आचन्द्र चन्द्रात्रेय वंसजाः क्षितिभुजः क्षितिम्।
मोक्ष्यन्तयक्ष दोदृदेड चंडि मानोत्रितेजसा।।“
इस शिलालेख के अनुसार इस वंश की प्रारम्भिक वंशावली इस प्रकार है-
विश्वसृक – (विश्व के निर्माता) – मुनि मरिच, अत्रि आदि।
मुनि-मरिच, अत्रि आदि
मुनि चन्द्रात्रेय
मुनि-भुभुजाम्
खजुराहों का दूसरा शिलालेख जो कोक्कल (वि.सं. 1058) के समय का है, भी इसी मत को प्रमाणित करता है। इस शिलालेख के अनुसार-अत्रि-चन्द्रमा-चन्द्रा-त्रेय। इस शिलालेख के अनुसार नन्नुक इसी वंश में उत्पन्न हुए। यशोवर्मन के पौत्र देवलब्धि के दुधही के शिलालेख में इस वंश को चन्द्र और इला की सन्तान माना है। कीर्तिवर्मन के देवगढ़ के शिलालेख में भी चन्देल शब्द के लिए चेन्दे्रल्क शब्द प्रयुक्त हुआ है।
इतिहास में सबसे पहले कलचुरि के राजा लक्ष्मीकर्ण लिए चन्देल शब्द मिलता है। उसके बाद पृथ्वीराज चैहान के मदनपुर अभिलेख में (वि.स. 1239) में चन्देल शब्द मिलता है। अतः निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि अत्रि मुनि के उत्तराधिकारी चन्द्रात्रेय से ही इस वंश की उत्पत्ति हुई। प्रारम्भिक काल में इस वंश को चेन्द्रेल्क, चन्द्रेल, चन्दे्रला या चन्देला कहा जाता रहा और धीरे-धीरे चन्देल कहा जाने लगा।
‘चन्देरी नगर’, ‘खजुराहों के मंदिर’, ‘महोबा का मदन सागर’ इस वंश के कीर्तिस्तम्भ हैं। चन्देलों का धारावाहिक इतिहास नन्नुक से प्रारम्भ होता है। नन्नुक ने दक्षिण बुन्देलखण्ड में अपना राज्य स्थापित किया था। नन्नुक के बाद उसका पुत्र वाक्पति राज तथा फिर पौत्र जेजा ‘अजयशक्ति’ अपने राज्य के स्वामी बने। जेजा ने अपना राज्य खजुराहों, अजयगढ़, कालिंजर तथा महोबा तक बढ़ा लिया। उसने अपने नाम पर इस क्षेत्र का नाम जेजाक भुक्ति रखा जो बाद में ‘जुझौती’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह बात महोबा के निम्न षिलालेख से प्रमाणित होती है-
”जेजाख्यया अथ नुपतिः सर्वभुवजेजा कमुक्ति पृथु इव यथा पृथ्विव्यामासीत्“
चन्देल राजा यषोवर्मन ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर अपना राज्य राजस्थान से बंगााल की खाड़ी तक तथा उत्तर में तिब्बत तक विस्तृत कर लिया। मगध के अन्तिम गुप्त राजा जीवित गुप्त को हराकर उसका राज्य भी अपने साम्राजय में मिला लिया। पहले इस वंश की राजधानी चेदि वर्तमान में चन्देरी थी। वहाँ के चन्देलों ने परिहारों से महोबा छीन कर वहाँ अपनी नयी राजधानी बनायी। चन्देलों और चैहानों का किसी बात पर वैमनस्य हो गया जिसमें गहरवार राजा जयचंद ने चन्देलों का साथ दिया, तो चंदेलों ने फिर सिर उठाया और उन्होंने परमर्दिदेव (परमाल) के नेतृत्व में (महोबा) को अपनी राजधानी बनाया।
उस समय इनके सेनापति इतिहास प्रसिद्ध वीर सरदार आल्हा, ऊदल, मलखान और सुलखान थे। कुछ इतिहासकारो का मानना है कि आगरा का ताजमहल इसी नरेश ने बनवाया था। परमार्दिदेव के पुत्र ब्राह्म जिसे त्रैलोक्य वर्मन भी कहते थे, का विवाह पृथ्वीराज का पुत्री बेला के साथ हुआ था। जब ब्रह्म अपनी पत्नी बेला का गौना कराने दिल्ली गया तो उस समय की पिछली शत्रुता याद आने से फिर चैहानों और चन्देलों का युद्ध शुरु हो गया। जिसमें ब्राह्म सहित अनेक वीर वीरगति को प्राप्त हुए। जिससे बेला ब्रह्म के साथ सती हो गयी। बेला सती मन्दिर अभी तक दिल्ली में देखा जा सकता हैं तभी से राजपूतों में गौने की प्रथा बन्द हो गयी।
महोबा का दर्शनीय स्थल मदन सागर मदनवर्मन का कीर्ति- स्तम्भ है। कीर्ति-वर्मन का बनाया हुआ कीर्ति सागर है। इस वंश के त्रैलोक्य वर्मन ने तेरहवी शताब्दी के पूर्वाद्ध में फिर कालिंजर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद इसका पुत्र वीर वर्मन तथा वीर बर्मन के बाद उसका पुत्र भोज वर्मन कालिंजर के शासक बने। भोज वर्मन के बाद चन्देल राज्य चारों भागों में बँट गया है-
1 – केन्द्रीय साम्राज्य-इसकी राजधानी काजिंजर थी।
2 – भोज वर्मन के छोटे भाई वीर विक्रम का पूरब वर्दी राज्य।
3 – परमर्दिदेव के पुत्रों ने वरदी राज्य के पूर्व में अगोरीगढ़ (जिला मिर्जापुर) में अपना राज्य स्थापित किया था।
4 – अगोरीगढ़ के एक शासक ने विजयगढ़ परगने जो बड़हर के पूर्व में स्थित है, में अपना राज्य स्थापित किया था।
यहाँ से उन्होंने राज्य गिद्धोर (बिहार) तक विस्तृत कर लिया। ये राज्य चैदहवीं शताब्दी तक बने रहे। मुसलमानों ने सन् 1300-1500 के बीच कालिंजर पर अनेक आक्रमण किये, परन्तु फिर भी ये स्वतंत्र बने रहे। सन् 1547 में कालिंजर के चन्देल राजा कीरतसिंह ने शेरशाह सूरी का सामना किया। किरतसिंह के बाद इसके पुत्र रामचन्द्र के समय यह राज्य मुगलों के अधीन हो गया।
कीर्तिसिंह की एक पुत्री दुर्गावती तो गोंडवाना के राजा दलपतसिंह के साथ ब्याही गयी थी, जिसने अकबर का बड़ी वीरता से मुकाबला किया, परन्तु गढ़मंडला के स्थान पर पराजित हुई। इस वंश की रियासतें-गिद्धोर (बिहार), आलम नगर (बिहार), बगरहटा (बिहार), नालागढ़ (यू.पी) अगोरीगढ़ बड़हर, वजयगढ़, काषीपुर (नैनीताल) छोटे-छोटे ठिकाने बुन्देलखण्ड और रुहेलखण्ड में भी है।
इनके अतिरिक्त इस वंष के क्षत्रिय अब कानपुर मिर्जापुर, जौनपुर, बलिया, बाँदा, सीतापुर, फैजाबाद, आजमगढ़, इलाहाबद, गोरखपुर, बनारस उन्नाव, हरदोई आदि जिलों में बसे हुए हैं और पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश के भी कुछ जिलों में मिलते हैं। जो अधिकतर सिक्ख हैं। इस वंश की दो शाखाएँ – (1) चमरकटे (2) मोहबिये
बनाफ़र वंश की उत्पत्ति
बनाफर वंश (भीम पाण्डव+हिडिम्बापुत्र = घटोत्कच के वंशज)
गौत्र-कौण्डिन्य; प्रवर तीन-कौण्डियन्य, स्तिमिक, कौत्स, वेद-यजुर्वेद शाखा-वाजसनेयि माध्यन्दिनि; सूत्र-पारस्कर गृह्यसूत्र; कुलदेवी-शारदा; कुल-गुरु-गोरखनाथ। विजयादशमी को तलवार की पूजा होती है, दशहरे के दिन अन्य वंशों की भाँति इस वंश की उत्पत्ति के विषय में भी अनेक भ्रांतियाँ प्रचलित है। कर्नल टॉड ने इसे यदुवंष की शाखा माना है।
बुंदेलखण्ड के गौरव कहे जाने वाले विद्वान् श्री अम्बिका प्रसाद दिव्य इस वंश की उत्पति राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण से मानते हुए लिखते हैं, ”बनाफर जाति के लोग मूलतः लक्ष्मण जी के वंशज, इन्होंने भांडव यज्ञ किया था। उस यज्ञ में चिन्तामतिण नामक व्यक्ति ने वहिदेव (अग्नि) की अच्छी सेवा की थी वहि की सेवा के कारण ही चिन्तामणि को बनाफर की उपाधि प्राप्त हुई थी।
उपर्युक्त मत इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, क्योंकि बनाफर वंश विशुद्ध चन्द्र वंश की शाखा है, जबकि लक्ष्मण जी सूर्य वंश में हुए हैं। वास्तव में यह पाडु-पुत्र भीम का वंश है। भीम की रानी हिडिम्बा का पुत्र घटोत्कच तो कर्ण की अमोध शक्ति से मारा गया था, परन्तु उसका एक पुत्र अपनी माता हिडिम्बा के साथ वन में ही रह गया था।
इसका वंश के लोग गोण्डा, बहराइच, बस्ती, गोरखपुर, फैजाबाद, बारावंकी, सीतापुर, पीलीभीत स्टेट और बिहार प्रान्त में ‘घरुकावंशी ’ बंगाल में सेनवंशी , उड़ीसा में सोमवंशी , दक्षिण कोसल क्षेत्र में पाण्डववंशी , करवंशी -भौमकर वंश (उत्कल उड़ीसा कटक), मघवंशी, (दक्षिण कोशल) रानावंशी (उड़ीसा), बाहनवंशी (उत्तर गुजरात, पाटण), राजवंशी (गढ़वाल की तराई) एवं कछारी (आसाम) राजपूतों के रूप में पाये जाते हैं।
बर्बर क्षत्रिय सौराष्ट्र-कच्छ में पाये जाते हैं। उसी वंश में आगे ‘बनस्पर’ हुए जिसके वंशज आगे चलकर ‘बनाफर’ प्रसिद्ध हुए। नृप् वंशावली में कविवर मतिराम ने भी इसी वंश की पुष्टि की है-
भीम धुरन्धर के तनय, नाम घरुँका मानि।
तिन्हते क्षत्रिय प्रकट भों, जाति बनाफर खानि।।
जानि भास्कर में भी इस मत का प्रतिपादन किया गया है-
रहत किते दिन जब भयो, ता कनक के धाम।
पुत्र हिडिम्बा के भयो, धरष्च घरुकानाम।।
घटोत्कच ने श्रीकृष्ण से जब एक बार अपने वर्ण और जाति के विषय में पूछा तो श्रीकृष्ण ने उसे उत्तर देते हुए कहा था- ”तुम क्षत्रिय वीर हो, प्रथम अपनी देवी (शारदा देवी) की आराधना करो और कर्म विधिपूर्वक करने से तुम्हें बल प्राप्त होगा और पाँच यज्ञ को मत छोड़ो।“ इस वंश के प्रसिद्ध वीर दो भाई जस्सराज और बच्छराज महोबा के चन्देल राजा परमार्दिदेव (परमाल) के सेनापति थे।
इन दोनों भाइयों केा गढ़-मांडू के राजा ने धोखे से मरवा दिया था और इनके सिर माँडोगढ़ (माड़ोगढ़) में बट-वृक्ष पर टँगवा दिये थे। साथ में नौलखा हार, हाथी-पचशावद और राजनर्तकी-लाखा को को भी छीन ले गया था। इन दोनों भाईयों के दो-दो पुत्र थे। जस्सराज के आल्हा और ऊदल और बच्छराज के मलखान और सुलखान थे।
अंग्रेजों ने अपने गजटों में इन्हें बनफोडवा, बनफोड आदि लिखा है। इन चारों भाईयों में आल्हा बड़े थे जो बनाफर राय कहलाते थे। जब ये बनाफर जवान हुए तो इन्होंने सबसे पहले मांडोगढ़ विजय किया और वहाँ के राजा जम्बे और युवराज करिया जिन्होंने उनके पिता की निर्मन हत्या की थी, को बुरी तरह हराकर मार डाला और उसकी पुत्री विचक्षणा का डोला ले आये। विचक्षणा ऊदल से प्यार करती थी और इसी के भेद देने से बनाफर विजयी हुए थे, किन्तु मलखान ने विचक्षणा को मौत के घाट उतार डाला।
वीर आल्हा का विवाह नैनागढ़ के राजा राघोमच्छ की पुत्री मछला से हुआ था। आल्हा के पुत्र का नाम ‘इन्दल’ था, राज परमार्दिदेव के पुत्र का नाम भी ‘ब्रह्म’ था। इससे ब्रह्यजीत (ब्रह्या) का जन्म हुआ। ब्रह्या का विवाह पृथ्वीराज की पुत्री बेला से हुआ था। मलखान का विवाह जूनागढ़ के राजा गजराज सिंह की पुत्री जगमोहिनी से हुआ। ऊदल का विवाह नरवरगढ के नृपतिसिंह की पुत्री ‘चन्द्रकला’ से हुआ। इन चारों भाइयों की वीर गाथा जगनिक कृत ‘परमाल रासो’ ‘आल्हा खण्ड’ में वर्णित है।
‘परमाल रासो’ ‘आल्हा खण्ड’ महाकाव्य उत्तर भारत में बड़े ही चाव से गाया जाता है। सम्भवतः रामचरित मानस के बाद इसी ग्रंथ को सबसे अधिक लोकप्रियता मिली है। यद्यपि यह ग्रंथ आजकल मूल रूप में नहीं मिलता, किन्तु फिर भी इसके गीत बुंदेलखण्ड में घर-घर में गाये जाते हैं। मैं यानि डॉ. प्रो. चन्द्रिकासिंह सोमवंषी रिसर्च स्कालर जब मैं छोटा था तब ‘आल्हा’ की कुछ पंक्तियाँ गाया करता था। आल्हा को सुनने के लिए मैं दूर-दूर तक चला जाता था। मुझे मजा आता था। वीर रस की एक झलक देखिए-
खट-खट-खट-खट तेगा बाजै, धरी लोथ पै लोथ बिछाय।
संड-मुंड नाचै रण खेतन, नदी रक्त की उमड़ी जाय।।
चले सिरोही सन-सन-सन-सन, बरछी करै गजब की मार।
धुँआधार हो रही खेतन में, कर-कर-कर रही कठिन कटार।।
श्री जार्ज ग्रियर्सन जैसी विदेशी विद्वान ने भी इस ग्रंथ की खूब प्रशंसा की थी। आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व फर्रुखाबाद के कलेक्टर इलियट ने भिन्न-भिन्न लोग गायकों को बुलाकर इसकी पांडुलिपि तैयार करवायी थी और उसे प्रकाषित कराया था। इसकी एक प्रति आज भी नागरी प्रचारिणी सभा, वारासणी में सुरक्षित है।
इस वंश का कभी भी स्वतंत्र राज्य नहीं रहा और इन दो पीढ़ियों के अतिरिक्त इनका कही से भी कभी प्रकाश में नहीं आये। अब इस वंश के क्षत्रिय उत्तर प्रदेश के जालौन, हम्मीरपुर, बाद बनारस गाजीपुर और बिहार के गया, राँची जिले में मिलते है। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश के जिलों में भी इस वंश के क्षत्रिय निवास करते हैं।
शाखाएँ
पठानिया-यह शाखा पठानकोट (पंजाब) में रहने से उपर्युक्त नाम से प्रसिद्ध हुई। अब वे पठानकोट के आस-पास बसते है। बनाफर क्षत्रियों का कुल-घराना घटोत्कच वंश से रहा है। ‘बनाफर’ इनके घराने का नाम था। ये क्षत्रिय बहुत ही वीर थे। इनकी तुलना तीसरी से चैथी शताब्दी में राज्य करने वाले, अजेय शक्ति कहे जाने वाले वीर गण ‘यौधेयों’ सी की जाती रही है। नालान्दा शिलालेख में ‘बनाफरों’ की गौरव-गाथा भरा पड़ा है। मैंने इस वंश पर काफी गहरायी एवं संषोधनात्मक रूप् से कार्य किया है।
सहायक ग्रंथ (Bibliography)
1 – Early History of Rajpoot (1750 to 1000 A.D.) by Dr. Chinta Mani Vinayak Vaidya M.A, LL.B., page 130 to 133, Epic 1995 M.M. Publishers and Distributors S.M.S. Highloag, Jaipur (Raj)
2 – Indian Antiquary Vo. XXVII page-137.
3 – राजस्थान का इतिहास, दो भाग १६२५ ई. की छपी श्री वेंकेटेश्वर स्वाम प्रेस, मुम्बई
4 – राजपूत वंशावली, लेखक ठाकुर ईश्वर सिंह मडाढ़ राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर सोजती गोट, जोधपुर (राज) चतुर्थ संशोधित संस्करण २००८ ।
5 – धर्मयुग, १५ जुलाई, १९८४ ई.
6 – महाभारत by राजा सबलसिंह चौहान कृत दोहा – चौपाई में ।
7 – जातिभास्कर by पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र ।
8 – स्कन्द पुराण माहेश्वरखण्ड, अध्याय – ६०, श्लोक – ६३.
9 – अधिक जानकारी के लिए देखिए, मेरे नेशनल और इन्टरनेशल इम्पैक्ट फैकटर रिसर्च जरनलों में प्रकाशित लेख ।
10 – Dynasties History of the Kali Age, By Retired Justice, Kolkata High Court के माननीय जज श्री एफ. जी. पार्जिटर की पुस्तक देखिए ।
Dr. C.S. Somanvanshi
M.A. (4th Subjects), Ph.D., M.R.P./M.R.P. (U.G.C)
Research Scholar, Ph.D. Recognized Guidel Research Supervisor, Adipur (Kutch)