Bundelkhand Ka Tesu बुन्देलखंड का टेसू

बुन्देलखण्ड मे बच्चे  बांस और लकडी की डंडी, मिट्टी आदि से हास्यात्मक आकृति के पुतले बनाते हैं और घर –घर जाकर टेसू के गीत गाते है। न्योछावर स्वरूप  मुहल्ले में आस पड़ोस में घर-घर अनाज पैसा आदि मांगने की प्रथा है। Bundelkhand Ka Tesu बच्चे बड़े बूढ़े सभी को हर्षोल्लासित करता है।


बुन्देलखण्ड अपनी लोक परम्पराऔं की विविधता और जीवन्तता के कारण एक विशेष स्थान रखता है। अश्विन और कार्तिक दोनों ही माह यहां की लोक कलाओं की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। पितृपक्ष के आरंभ से ही लड़कियों द्वारा सांझी खेली जाती है और गांव व नगरों के मुहल्ले के मुहल्ले चित्र गलियारों का रुप लेते हैं।

दीवारें रंगीन कागज़ और रंगबिरंगे फूलों से सजी आकृतियों से भर जाती है। फिर नौ दिन के नौरते में लड़कियां सुआटा की प्रतिमा बनाकर खेलती है। और तब दशहरे से शुरु होता है उदण्ड और खिलन्दड़े लड़कों का खेल टेसू

यूं तो टेसू की धूम सारे बुन्देलखण्ड में मचती है। एक तरफ लड़कों की टोली में एक टेसू होता है वहां दूसरी ओर लडकियों की टोली में झांझी होती है सभी अपनी अपनी झांझी टोकरी में रखे रहतीं हैं और कपड़े से उसे ढॉक कर घर घर घूमती है। वहीं टेसू घर के दरवाजे पर ही रुक जाता है और झांझी घर के अंदर आंगन में जा पहुंचती हैं।

आमतौर पर टेसू का बांस का बनाया जाता है जिसमें मिट्टी की तीन पुतलियां फिट करदी जाती हैं। राजसी पोशाक पहने, पगड़ी धारण किये टेसू हुक्का पी रहा है। मिट्टी की बनी आकृति पर चमकदार पावडर रंग किये हुए हैं। कहीं घोड़े पर सवार टेसू हाथ में तलवार लिये है। तो कहीं एक ओर हाथ में बन्दूक थामे हुये है।


टेसू की उत्पत्ति और इस त्योहार के आरंभ के सम्बन्ध में यहां अनेक किवदंतियाँ प्रचलित है। टेसू का आरम्भ महाभारत काल से ही हो गया था। कुन्ती को कुंआरी अवस्था में ही उसे दो पुत्र उत्पन्न हुए थे जिनंमें पहला पुत्र बब्बरावाहन था जिसे कुन्ती जंगल में छोड़ आई थी। वह बड़ा विलक्षण बालक था वह पैदा होते ही सामान्य बालक से दुगनी रफतार से बढ़ने लगा और कुछ सालों बाद तो उसने बहुत ही उपद्रव करना शुरु कर दिया।

पाण्डव उससे बहुत परेशान रहने लगे तो सुभद्रा ने भगवान कृष्ण से कहा कि वे उन्हें बब्बरावाहन के आतंक से बचाएं, तो कृष्ण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन काट दी। परन्तु बब्बरावाहन तो अमृत पी गया था इस लिये वह मरा ही नही। तब कृष्ण ने उसके सिर को छेकुर के पेड़ पर रख दिया। लेकिन फिर भी बब्बरावाहन शान्त नहीं हुआ तो कृष्ण ने अपनी माया से सांझी को उत्पन्न किया और टेसू से उसका विवाह रचाया।

बब्बरावाहन, भीमसेन का किसी राक्षसी से हुआ पुत्र था जिसे घटोत्कच भी कहा गया है। यह परमवीर और दानी पुरुष था। उसकी यह आन थी कि वह हमेशा युद्ध में हारने वाले राजा की ओर से लड़ता था। जब महाभारत का युद्ध शुरु हुआ तो कृष्ण यह जानते थे कि यदि बब्बरावाहन कौरवों की ओर मिल गया तो पाण्डव युद्ध कभी नहीं जीत पायेंगे।

इसलिये एक दिन ब्राह्मण का वेश धरकर बब्बरावाहन के पास गये और उससे उसका परिचय मांगा। तब बब्बरावाहन कहने लगा कि वह बड़ा भारी योद्धा और महादानी है। तो कृष्ण ने उससे कहा कि यदि तुम ऐसे ही महादानी हो तो अपना सिर काट कर दे दो। और तब बब्बरावाहन ने अपना सिर काट कर कृष्ण जी को दे दिया परन्तु यह वचन मांगा कि वह उसके सिर को ऐसी जगह रखेंगे जहां से वह महाभारत का युद्ध देख सके।

कृष्ण ने बब्बरावाहन को दिये वचन के अनुसार उसका सिर छेकुर के पेड़ पर रख दिया जहां से युद्ध का मैदान दिखता था। परन्तु जब भी कौरवों पाण्डवों की सेनाएं युद्ध के लिये पास आती थी तो बब्बरावाहन का सिर यह सोचकर कि हाय कैसे-कैसे योद्धा मैदान में है पर मैं इनसे लड़ न सका, जोर से हंसता था। कहते है उसकी हंसी से भयभीत होकर दोनों सेनाएं मीलों तक पीछे हट जाती थीं।

इस प्रकार यह युद्ध कभी भी नहीं हो पायेगा यह सोचकर कृष्णजी ने जिस डाल पर बब्बरावाहन का सिर रखा हुआ था उसमें दीमक लगा दी। दीमक के कारण सिर नीचे गिर पड़ा और उसका मुख दूसरी ओर होने के कारण उसे युद्ध दिखाई देना बन्द हो गया। तब कहीं जाकर महाभारत का युद्ध आरम्भ हो सका।

दूसरी किवदंती है कि किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था, परिवार में लगभग साठ सत्तर व्यक्ति थे जो सभी रुप से सम्पन्न थे। इनमें से सबसे छोटे भाई की पत्नी मर चुकी थी, उसे बड़े भाइयों की पत्नियाँ बहुत परेशान करती थी इससे दुखी होकर वह अपनी पुत्री को लेकर घर छोड़कर दूसरे गांव चला गया यह गांव जंगल के किनारे एक सुन्दर गांव था।

उस जंगल में एक राक्षस रहता था। ब्राह्मण की रुपवान कन्या जब एक दिन पानी भरने गई थी तब उस राक्षस ने उसे देख लिया और वह उस पर मोहित हो गया। उसने लड़की से उसका परिचय लिया और उसके पिता से मिलने की इच्छा प्रकट की, तब लड़की ने कहा कि उसके पिता शाम के समय घर मिलते है।

राक्षस शाम को ब्राह्मण के घर पहुंचा और उसकी लड़की से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। ब्राह्मण घबराया उसने सोचा यह राक्षस मना करने पर मानने वाला नहीं। इसलिये उसने राक्षस से कहा कि विवाह तो हो जायेगा परन्तु कुछ रस्में पूरी करनी पड़ेगी इसलिये कुछ दिन का समय लगेगा। पहले मेरी लड़की सोलह दिन गोबार की थपलियां बनाकर खेलेगी तब राक्षस ने कहा ठीक है मैं सोलह दिन बाद आऊंगा।

इस बीच ब्राह्मण ने अपने परिवार के लोगों को सहायता के लिये बुलाने का पत्र लिख दिया। क्वार माह के यह सोलह दिन सोलह श्राद्ध के दिन माने जाते हैं। और इन दिनों ब्राह्मण की लड़की जो गोबर की थपलियों से खेल खेली वह सांझी या चन्दा-तरैयां कहलाया और तभी से सांझी खेलने की परम्परा का आरम्भ हुआ।

सोलह दिन बीतने पर राक्षस आया परन्तु ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं पहुंच पाये इस लिये उसने फिर बहाना बनाया कि अब उसकी लड़की नौ दिन मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी। राक्षस नौ दिन बाद वापस आने का कह कर फिर चला गया। तभी से यह नौ दिन नौरता कहलाये और इन दिनों सुअटा खेलने की प्रथा शुरु हुई।

नौ दिन भी खत्म हो गये पर ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं आ पाये और राक्षस फिर आ गया, तब ब्राह्मण ने उससे कहा अब केवल आखरी रात रह गई है। अब पांच दिन तुम और मेरी बेटी घर घर भीख मांगोगे तब शरद पूर्णिमा के दिन तुम्हारी शादी हो सकेगी। राक्षस इस बात के लिये भी मान गया। तभी से दशहरे से शरद पूर्णिमा तक उस राक्षस के नाम पर टेसू और ब्राह्मण की लड़की के नाम पर सांझी मांगने की प्रथा का आरंभ हुआ।

इस प्रकार जब भीख मांगते पांच दिन बीत गये और ब्राह्मण के परिवार के लोग नहीं आये तो ब्राह्मण निराश हो गया और उसे अपनी पुत्री का विवाह राक्षस से करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो शरद पूर्णिमा के दिन उसने विवाह निश्चित कर दिया। लेकिन अभी विवाह के साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे कि ब्राह्मण के परिवार के लोग आ गये और उन्होने उस राक्षस को मार डाला। और उनकी लड़की का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था इसलिये उसे भी भ्रष्ट मान कर उन्होने उसे भी मार डाला इसी लिये टेसू और सांझी का पूरा विवाह नहीं होने दिया जाता।

इमली की जड़ से निकली पतंग
नौ सौ मोती झलके रंग
एक रंग मैने मांग लिया
चल घोड़े सलाम किया
मारुंगा भई मारुंगा
दील्ली जाय पछाडूंगा
एक रोट खोटा
दे सांझी में सोटा
सोटा गिरा ताल में
दे दारी के गाल में
टेसू के भई टेसू के
पान पसेरी के
उड़ गए तीतर रह गए मोर
सड़ी डुकरिया लै गए चोर
चोरन के जब खेती भई
खाय डुकटटो मोटी भई।

मेरा टेसू झंई अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में पन्नी
घर दो बेटा अठन्नी
अठन्नी अच्छी होती तो ढोलकी बनवाते
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाते
यार का दुपट्टा साड़े सात की निशानी
देखो रे लोगे वो हो गई दिवानी।
आगरे की गैल में छोकरी सुनार की
भूरे भूरे बाल उसकी नथनी हजार की
अपने महल में ढोलकी बजाती
ढोलकी की तान अपने यार को सुनाती
यार का दुपटटा साड़े सात की निशानी
दखो रे लोगो वो हो गई दिवानी।

सेलखड़ी भई सेलखड़ी
नौ सौ डिब्बा रेल खड़ी
एक डिब्बा आरम्पार
उसमें बैठे मियांसाब
मियां साब की काली टोपी
काले हैं कलयान जी
गौरे हैं गुरयान जी
कूद पड़े हनुमान जी
लंका जीते राम जी।

टेसू भैया बड़े कसाई
आंख फोड़ बन्दूक चलाई
सब बच्चन से भीख मंगाई
दौनों मर गए लोग लुगाई।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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