बुन्देलखंड की बालिकाओं का खेलपरक पर्व मामुलिया/महबुलिया
भारतीय संस्कृति – बुंदेलखंड का खेल त्योहार
बुन्देलखंड मे मामुलिया के इस खेल में बालिकायें बेर अथवा बबूल की एक कँटीली टहनी लेती हैं और उसे किसी लीप-पोत कर स्वच्छ पवित्र किये हुए स्थान पर रखती है। Bundelkhand ki Mamulya इस कँटीली टहनी से ही स्थापित होती है और उस समय सभी बालिकायें समवेत् स्वर में गाती हैं-
‘‘छिटक मोरी मामुलिया
मामुलिया के दो दो फूल, छिटक मोरी मामुलिया।
कहाँ लगा दऊं मामुलिया, छिटक मोरी मामुलिया।
अंगना लगा दऊं मामुलिया, छिटक मोरी मामुलिया।’’
कँटीली टहनी की स्थापना के बाद उसका अलंकरण किया जाता है। उस टहनी पर जितने भी काँटे होते हैं उन सब पर तरह-तरह के फूल लगाये जाते हैं और देखते ही देखते उस कँटीली टहनी का कँटीलापन समाप्त हो जाता है और वहाँ मन मोहने वाले विभिन्न प्रकार के पुष्पों की अलौकिक छटा बिखर जाती है। मामुलिया के अंलकरण के समय सभी बालिकायें फूल सजाते गाती हैं-
‘‘ल्याइयो ल्याइयो रतन जड़े फूल, सजइयो मोरी मामुलिया
ल्याइयो गेंदा हजारी के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो चम्पा चमेली के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो घिया तुरैया के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो सदा सुहागन के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।’’
जब मामुलिया सज जाती है फिर रोरी अक्षत चन्दन से उसका पूजन किया जाता है। सभी बालिकायें बारी-बारी से जल छिड़क कर, प्रसाद चढ़ाकर पूजन करती हैं और मिलकर गाती हैं-
‘‘चीकनी मामुलिया के चीकने पतौआ
बरा तरें लागली अथैया
कै बारी भौजी, बरा तरें लागी अथैया
मीठी कचरिया के मीठे जो बीजा
मीठे ससुर जू के बोल
कै बारी भौजी, मीठे ससुर जी के बोल
करई कचरिया के करए जो बीजा
करये सासू के बोल
कै बारी भौजी, करये सासू के बोल।’’
पूजन के पश्चात फिर मामुलिया की परिक्रमा करते हुए बालिकायें गाती हैं-
‘‘चली चकौटी चली मकौटी, चंदन चौका करियो लाल
ऊ चौका में बैठे बीरन भइया, पागड़िया लटकावैं लाल
उन पागड़ियन के फूल मुरत हैं, बीनत हैं भौजइयां लाल
झिलमिल झिलमिल दिया बरत है, परखत है भौजइयां लाल
एक रुपइया खोंटो कड़ गओ, मार भगाई भौजइयां लाल।’’
परिक्रमा करते हुए मामुलिया को हाथ में उठाकर फिर नृत्य प्रारम्भ हो जाता है और लोकवाणी का प्रस्फुटन बालिकाओं की बोली में मुखरित हो उठता है-
‘‘मामुल दाई मामुल दाई
दूध भात ने खायें
बहुरी के धोखे
बिनौरा चबायें।’’
मामुलिया नृत्य के समय कई गीत गाये जाते हैं। एक बानगी इस प्रकार भी है –
‘‘नानों पीसों उड़ उड़ जाय
मोटो पीसों कोऊ न खाय
नई तिली कै तेल, तिलनियां लो लो लो
नये हंडा कौ भात, बननियां लो लो लो।’’
मामुलिया के खेल की समाप्ति के बाद उसे तालाब, पोखर अथवा नदी में विसर्जित करने के लिए सब लड़कियाँ जाती हैं और जल में प्रवाहित करते समय गाती हैं-
‘‘जरै ई छाबी तला कौ पानी रे
मोरी मामुलिया उजर गई।’’
इन पंक्तियों में भारतीय वेदान्त का सार तत्त्व निहित है। जीवन जल के समान है जिसमें नहाकर मामुलिया रूपी आत्मा और अधिक निखर उठती है। मामुलिया विसर्जन के पश्चात सभी लड़कियाँ अपने-अपने घरों को बापस लौटते हुए गाती जाती हैं-
‘‘चंदा के आसपास, गौओं की रास
चंदा के आसपास, मुतियन की रास
बिटिया खेले सब सब रात
चंदा राम राम लेव
सूरज राम राम लेव
हम घरैं चलें।’’
लड़कियाँ आपस में विदाई के समय भी ठिठोली करते हुए गाती हैं-
‘‘चूँ चूँ चिरइयां, बन की बिलैया
ताते ताते माड़े, सीरे सीरे घैला
सो जाओ री चिरैंया
उठो उठो री चिरैंया
तुमाये दद्दा लड़ुआ ल्याये।’’
मामुलिया देखने में बड़ा सहज और साधारण सा खेल दिखता है परन्तु इस खेल का मनोविज्ञान अति सुन्दर है। इस खेल के माध्यम से लड़कियों को जो शिक्षा दी जाती है वह लड़कियों के जीवन को सुखी बनाने एवं समाज में आनन्द की सरिता बहाने का कार्य करती है।
परिवार में, समाज में नित, निरन्तर नयी नयी कठिनाईयाँ, मुश्किलें, परेशानियाँ, उलझने आदि आती रहती हैं। इन सबको काँटों की संज्ञा यदि दे दी जाये तो हम पाते हैं कि मामुलिया में प्रत्येक काँटे को पुष्प द्वारा सजाया जाता है अर्थात् स्त्री अपने व्यवहार, कर्म, आदि से परिवार व समाज की सभी कँटीली समस्याओं को पुष्परूपी समाधानों द्वारा सजाकर, सुखमय, आनन्दमय वातावरण की सृष्टि करती है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
बहुत सुंदर ❣️