Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारAashu Kavi Lala Pujari आशु कवि लला पुजारी

Aashu Kavi Lala Pujari आशु कवि लला पुजारी

श्री लला पुजारी का पूरा नाम राम लला था। आप मूलतः मल्लपुरा ग्राम जिला छतरपुर के निवासी थे। यह ग्राम धमौरा के पास स्थित है। Aashu Kavi Lala Pujari का जन्म ब्राह्मण कुल में लगभग सन् 1910 ई. में हुआ था। आप आजीवन अविवाहित रहे। आपके एक बहिन थी, उसका विवाह नौगांव-लुगासी के बीच अजनर के पास स्थित इन्द्राटा ग्राम में हुआ था।

राजनगर जिला छतरपुर के एक मंदिर में पुजारी के रूप में नियुक्त होने के कारण लोग इन्हें लला पुजारी ही कहते थे। छतरपुर के साहित्यक अखाड़ों में दो दल सक्रिय थे – पं गंगाधर व्यास पार्टी और पं. परमानन्द पाण्डे पार्टी। गुरु परमानन्द पाण्डे पार्टी को आशु कवि की तलाश थी।

लला पुजारी की जानकारी मिलने पर श्री भगवानदास कुशवाहा और श्री रामाधीन मिस्त्री राजनगर गये। लला पुजारी मंदिर में ठाकुर जी की पूजा के अतिरिक्त राजनगर में सोनी समाज और ढीमर समाज के दो कीर्तन मंडल का संचालन भी करते थे और उनके लिये कीर्तन भी लिखते थे।

श्री भगवानदास कुशवाहा और श्री रामाधीन मिस्त्री की अनुनय-विनय स्वीकार कर मंदिर की व्यवस्था अन्य व्यक्ति को सौंपने के उपरान्त संवत् 1980 के लगभग छतरपुर आ गये और पाण्डे जी के दल के लिये काव्य रचनायें करने लगे। आपका शरीर हृष्ट-पुष्ट था। सिर पर बाल नहीं रखते थे अर्थात् घुटा हुआ सिर। लगभग पाँच फुट लम्बाई और श्याम वर्ण शरीर वाले हँस स्वभाव के थे।

साधु वेश में साधारण रहन-सहन, सफेद धोती-कुर्ता और कभी-कभी भगवा वस्त्र धारण कर लेते थे। छतरपुर में आने पर गल्ला मण्डी में स्थित महावीर जी के मंदिर की पूजा सौंप दी गई थी। दस वर्ष छतरपुर में रहने के बाद लगभग 80 वर्ष की उम्र में अपनी बहिन के पास इन्द्राटा चले गये थे। वहीं पर लगभग 1990 में इन्होंने शरीर त्यागा था।

श्री लला पुजारी ने कीर्तन, गारी, फागें, ख्याल, सैरें बहुत लिखीं। केवल 72 गारियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ था। शेष रचनायें गायकों के कंठ में सुरक्षित हैं अथवा बस्तों में बंधी हैं। आशु कवि थे, प्रतिस्पर्धा में बहुत लिखा किन्तु एक जगह संग्रहित न होने के कारण आज भी शोध और संग्रह की आवश्यकता है। उपरोक्त जानकारी श्री भगवान दास कुशवाहा, सभापति कुशवाहा समाज सरानी गेट, छतरपुर से प्राप्त हुई है।

दोहा – बरछी दाव कटार हू छुरी तीर तलवार।
इन हथयारन से प्रबल होत नैन की धार।।

सैर – भरके त्रिपट दुनाली हिय जाकर मारी,
कै मरै भये घायल कै सुरत बिसारी

करके कटाक्ष घाव करत मार दुधारी
मन मृगन हेतु मनहु ये नैन सिकारी।। टेक।।

नैनन सें मुनी नारद ने मारी हारी,
नैनन के द्वार शंकर जी जुगत विचारी,

होकर कें कुपित कामदेव काया जारी,
मन मृगन हेतु……….।। 2।।

लावनी – झारें जिहिर उतरैं नहीं ऐसे विकट ये ब्याल है।
हथयार सें बच जाय पर नैना समझ लो काल हैं।।

नर और मुनी विवुधान पर नित रहत करत कमाल हैं।
हर भांत अनुपम ये जुगल वाला के नैन विसाल हैं।

सैर – काहू को होत इनसें सुख अपरंपारी
मतवारन की दशा नहीं जात उनारी,

खो प्राण देत कोऊ करत ऐसी यारी,
मन मृगन हेतु……………..।। 3।।

 

गुण तीन प्रबल इनमें ये जानो भारी,
विधि ने अपार शक्ती दै इनको डारी,

रहियों इन्हें सम्हारे कहें लला पुजारी,
मन मृगन हेतु………….।। 4।।

युवती के नैनों का पैनापन बरछी, दाव, कटार, छूरी, तीर और तलवार आदि अस्त्र-शस्त्रों से भी अधिक होता है। भाव भरे तिरछे दोनों नेत्रों से रमणी जिसके भी हृदय पर प्रहार करती है तो या तो वह मर गया या घायल हो गया अथवा बेहोश हो गया।

तिरछी चितवन से वह बड़ा तीखा घाव करती है। मन रूपी मृग के लिये ये नयन मानों शिकारी हैं। इन नयनों से नारद मुनि भी हार गये थे। नयनों के प्रभाव से बचने हेतु शंकर जी ने युक्ति विचारकर क्रोधित हुए और कामदेव के शरीर को जला दिया था।

ये ऐसे भयंकर सर्प हैं कि इनका विष झारने से नहीं उतरता। अस्त्र-शस्त्र की मार से व्यक्ति भले ही बचे किन्तु ये नयन तो साक्षात् काल का रूप हैं। मानव, मुनि और देवों पर नित्य ही प्रभावी रहकर चमत्कार पूर्ण कार्य करते हैं। सब प्रकार से उत्कृष्ट (अनोखे) नवयौवना के ये दोनों नयन भव्य और सुन्दर हैं।

ये किसी-किसी को असीम सुख देने वाले होते हैं। मदान्ध लोगों की हालत वर्णन नहीं की जा सकती। कुछ लोग तो ऐसा प्रेम करते हैं कि प्राण तक दे देते हैं। इन नयनों के तीन प्रबल गुण हैं। विधाता ने इनको असीम शक्ति प्रदान की है। इसलिये लला कवि कहते हैं कि इनसे सम्हल के रहना।

ख्याल

टेक – मन मोहन की कीसें कहिये रोज रोज की हैरानी।
ब्रज में बसवो कठिन है भयो नन्दसुत नओ दानी।।

छंद – बली बड़े बातन के जानो जादू सौ कर देत छली,
वे खूबउ सें लड़बो जानत कड़वो मुस्किल भयो गली,

जबरईं पकर लेत जां पावै गलबहियां भर लेत भली,
कां लौ सइये सोचत रइये येसी जा अनरीत चली,

उड़ान – जान न देवै मन हर लेवै बोल बोल मीठी बानी।।
ब्रज में बसवो कठिन है भयो नन्द सुत नओ दानी।। 1।।

छंद – बरजोर दधि छुड़ा लेत है कहै मजा आबै खातन,
कछू रोस उर में आवत है कछू मजा उनकी बातन,

सजनी री मोय लाज लगत है सकल बात उनकी कातन,
मैं गई हार रहत न पकरें छुटक जात मोरे हातन,

उड़ान – करवें चाल ग्वाल बालन संग कर करकें सैना कानी।।
ब्रज में बसबो कठिन है…….।। 2।।

छंद – कंचुकी फार हार टोडारी, चूम कपोल करत मन की
ज्वानी में जाने का करनें यह हालत बालापन की

कबहउं मिलत अकेलौ बन में कबहउं सैन लयें लरकन की
नहीं सुनैया ब्रज में कोऊ कठिन बात जा उलझन की

उड़ान – कंस राजा खां जाय सुनैबी यही बात मन में ठानी।
ब्रज में बसवो कठिन है……..।।3।।

मनमोहन की शिकायत भला किससे की जाय, यह तो प्रतिदिन की कठिनाई (दिक्कत) बन गई है। नन्दलाल जी का पुत्र नई तरह का कर उगाहने वाला बन गया है। चतुराई से ऊँची-ऊँची बातें करने में बहुत ही निपुण है जिससे वह सब जादू-सा कर देता है, बस में कर लेता है। लड़ना भी उनको बहुत अच्छे से आता है। रास्ते से निकलना कठिन हो गया है।

जहाँ भी मिल जाय, बलपूर्वक पकड़ लेता है और गले में हाथ डालकर चिपका लेता है। मैं सोचती हूँ इस अनैतिक व्यवहार की चलन को कैसे सहन किया जाय ? मिल जाने पर जाने नहीं देता और मीठी-मीठी बातों से मन को भी मोह लेता है। बलपूर्वक (जबरदस्ती) दही छुड़ा लेता है और कहता है इसे खाने में बहुत आनंद आ रहा है। कुछ तो मन में क्रोध आने लगता है और उसकी चतुराई भरी बातों में आनंद भी आने लगता है।

हे सखी! उसकी सभी बातें बताने में तो मुझे लज्जा आती है (शर्म लगती है)। मैं यदि उसे पकड़ने का प्रयास करती हूँ तो हार जाती हूँ वह मेरे हाथों से छूटकर दूर पहुँच जाता है। फिर अपने ग्वाल सखाओं के साथ संकेत में कुछ कहकर नई चाल चलने लगता है। मेरी चोली फाड़ डाली, हार तोड़ दिया और गालों को चूम-चूम कर अपने मन की कर लेता है।

अभी बचपन में जब यह हाल है तब युवावस्था में न मालूम क्या करेगा? कभी वन में अकेले मिल जाता है, कभी-कभी अपने सखाओं की सेना सहित मिलता है। इस ब्रज में इस बात को सुनने-समझने वाला कोई नहीं है, यही सबसे बड़ी चिन्ता है। मैंने निश्चय कर लिया है कि राजा कंस को जाकर यह बात सुनाऊँगी।

सैर
दोहा – दे दिया होय उस्ताज में जो पिंगल का ग्यान है।
नाम नायका हर्षयुत कर दीजेगा ब्यान।।

सैर – सुबरन शरीर जाकौ पति पद नित ध्यावै।
अनुपम निकाई तन की लख रति लजावै।

रति सों सनेह रहवै पति आनंद पावै
नायका खोल बोल कान काहे दावै।। 1।।

कुन्दन समान सोहै सुकुमार दिखावै,
तन सौं सुवाय आवै दृग सजल सुहावै

है करत सूक्ष्म भोजन अति रोस जनावै,
नायका खोल बोल…….।। 2।।

भूलत ना एक छिन पति पद मन में ध्यावै,
नित ललित वचन बोलै सुमन सुमन झरावै,

निश वासर पति पद मुद अनुराग बढ़ावै,
नायका खोल बोल……………।। 3।।

खुश रहत मन हमेशा नीत निश दिन चावै,
जानै कुकर्म नाही कर्म सुन्दर भावै,

शुभ सैर लला कोविध रच नित नई गावै,
नायका खोल बोल…………।। 4।।

यदि आपके गुरु ने पिंगल का ज्ञान कराया हो तो प्रसन्नतापूर्वक यहाँ वर्णित प्रसंग में नायिका का नाम बताइये। सोने के समान कांतिमय देह वाली यौवना नित्य अपने पति के चरणों का ध्यान करती है। उसके तन का सौन्दर्य अनूठा जैसे देखकर रति को भी हीनता लगने लगती है। कामक्रीड़ा की चाह रहते वह पति संसर्ग पा लेती है। प्रश्न को क्यां नहीं सुनना चाहते? इस नायिका का स्पष्ट विवरण दीजिये।

कंचन-सी शोभा वाली वह कोमलांगी दिखाई देती है। उसकी देह से सुगंध आती है और आँखें जलयुक्त सुशोभित हैं। बहुत कम भोजन करने वाली और क्रोध दर्शाने वाली है। पति के चरणों का निरंतर ध्यान करती है। एक क्षण के लिये भी भूलती नहीं। सदैव मनोहर वचन बोलती है, लगता है जैसे पुष्प झर रहे हों। दिन-रात पति के चरणों में आसक्ति बढ़ाती है। सदैव प्रसन्न रहती है, नीतियुक्त आचरण चाहती है, बुरे कर्मों को जानती नहीं, उत्तम कार्य ही उसे अच्छे लगते हैं। कवि लला कहते हैं कि मैं कल्याणकारी सैर रचकर नित्य गाता हूँ।

दोहा – आली वारी वैयस मम पिया गये परदेश।
भावै सूनी सेज ना निश दिन रहत अंदेश।।

सोरठा – भेजो नहीं संदेश ना पाती प्रेसित करी।
तासो खेद हमेश पिय वियोग आंसत अमित।।

सैर – मुरझाने ये उरोज ज्यो सरोजन लाली।
मैं रही कमल बदनी अब पर गई काली।।

भावै ना प्राण प्यारे बिन सिजिया खाली।
वारी वियस विदेश वसत बालम आली।।टेक।।

किम धरौं धीर बाण अतन मारत चाली।
रह बाग किम सुरिछित नहीं जिसका माली।।

मैं घर की बड़ी लोक लाज तासां पाली।
वारी वियस विदेश वसत बालम आली।।2।।

लावनी – मैं तलफत जिम मीन नीर बिन भई सिर्फ चैंया मैयां।
गहलेई ना बैयां चले गये वे वैयश हमारी लरकैयां।।

कियै पठाऊँ को जाय लिवावन उन्हें खबर मोरी नैयां।
मैं परूं पैयां कहूं सखीरी मिलवा दो मोरे सैयां।।

सैर – मालूम होत कोई उतै सौत रिझाली।
मन भली भांत भर गओ सोई प्रीत बड़ाली।।

हो गये अपन वाके वा अपनी बनाली।
वारी वियस विदेश वसत बालम आली।।3।।

चिन्ता अपार नगरी के लोग फदाली।
मोहि देखदेख हंसवै नित दै दै ताली।।

मिलवा दो लला प्रीतम मोहि बिछुरन साली।।
वारी वियस विदेश वसत बालम आली।।4।।

हे सखी! मेरी अभी छोटी उम्र है और प्रियतम विदेश चले गये हैं। सूनी सेज अच्छी नहीं लगती और दिन-रात डर लगा रहता है। प्रियतम ने न तो कोई संदेश दिया है और न कोई पत्र भेजा इसलिये दुख सदैव बना रहता है और प्रियतम का वियोग हृदय को शालता है। जिस प्रकार कमलों के मुरझाने पर लालिमा कम हो जाती है।

वैसे ही मेरे कुचों का हाल हो गया है। मेरा शरीर कमल के समान सुन्दर था किन्तु अब शरीर काला हो गया है। प्रियतम के न होने पर खाली सेज अच्छी नहीं लगती। हे सखी! मेरी उम्र अभी कम है और प्रियतम विदेश जाकर बस गये हैं। मैं किस प्रकार धैर्य धारण करूँ। दुष्ट कामदेव अपने बाणों से मुझे घायल करता है। जिस बगीचे का माली उपस्थित न हो उसकी सुरक्षा कैसे हो सकती है ?

मैं घर में बड़ी होने के कारण लोकमर्यादा से बंधी हुयी हूँ। मैं उस मछली की तरह तड़फ रही हूँ, जो बिना पानी के घूम-घूम कर प्राण दे रही हो। इस छोटी उम्र में उन्होंने मेरा हाथ न थामकर विदेश को प्रस्थान कर दिया। संभवतः उन्हें मेरी याद नहीं है, मैं उनको लाने के लिए किसको भेजूँ? मेरे कहने से भला कौन जायेगा? हे सखी! मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ किसी प्रकार मेरे प्रियतम को मिलवा दो।

ऐसा अनुमान है कि किसी सौतन ने उन्हें मोहित कर लिया है और प्रियतम के मन को भी बहुत अच्छी लगी, इससे उन्होंने प्रेम बढ़ा लिया है। इससे प्रियतम उसके हो गये और उसे अपना बना लिया। मुझे इस बात की चिन्ता है कि शहर के लोग बहुत दंदी-फंदी होते हैं। लोग मुझे देखकर ताली बजाते हैं और हँसी करते हैं। लला कवि कहते हैं कि वह सखि से विनय करती है कि मुझे किसी प्रकार मेरे प्रियतम से मिलवा दो।

दोहा- देख घटा घनश्याम की पहुँच अटा पर बाल।
विनय करत करजोर कर और नवावत भाल।।

सोरठा- और नवावत भाल प्रीतम मम परदेश में।
तासें हूँ बेहाल कछु सहाय तुमहूँ करौ।।

सैर – तुम चले जाव जहां बसत प्राण प्यारे।
उनसों संदेश कहौ काये जुलम गुजारे

पाहौ न सुयस ब्रजबालन सुरत विसारे
घनश्याम जाव जहां पर घनश्याम हमारे।।टेक।।

ब्रज कोप कियो जब तुम उन गिरवर धारे।
उत जाय कोप करियो डट शाम सकारे।।

गिरवर न उतै करहैं का नन्ददुलारे।
घनश्याम जाव जहां पर घनश्याम हमारे।।2।।

लावनी – सानयाव के पास जाय तुम हाथ जोर उनसों कैयो।
जैसें बनें उन्हें संग ल्याकर दरसन हमें करा जैयो।।

तुम्हरी कही न माने तो तुम अपने मन की कर लैयो।
मूसल धार नीर बरसाकर मधुपुर सिंधु बहा दैयो।।

सैर – दीजो बहाय मधुपुर हम होंय सुखारे।
सब बालन के नैनन इत बहत पनारे।।

कल पल को नहीं बरसें हम वरसें हारे।
घनश्याम जाव जहां पर घनश्याम हमारे।।3।।

जुर मिलो जाय दोऊ जने कारे कारे।
कारे से हम हैं हारे सब मजा बिगारे।।

ब्रजराज दरस हेतु लला सैर उचारे।
घनश्याम जाव जहां पर घनश्याम हमारे।।4।।

बादलों की शोभा देखकर महल की ऊपरी छत पर पहुँचकर उनसे हाथ जोड़कर विनय करती है और सम्मान में सिर झुकाती है। वह सिर नवाकर बादलों से कहती है कि मेरे पति विदेश में हैं इसलिए मैं बहुत दुखी हूँ, ऐसी स्थिति में तुम मेरी कुछ सहायता करो। जहाँ मेरे प्रियतम रहते हैं, वहाँ पर जाकर तुम उनसे मेरा संदेश देकर पूँछना कि उन्होंने ऐसा अत्याचार क्यों किया? उनसे कहना कि ब्रजबालाओं की सुध भूलकर तुम यश प्राप्त नहीं कर सकते।

हे घनश्याम (बादल)! तुम वहाँ जाओ जहाँ हमारे घनश्याम (श्रीकृष्ण) हैं और हमारा संदेश उन्हें सुनाओ। जब तुमने ब्रज पर कोप करके मूसलाधार वर्षा की थी तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण कर ब्रज की रक्षा की थी। उधर जाकर अब तुम उसी प्रकार का सुबह शाम नित्य कोप करना, वहाँ गोवर्धन पर्वत तो है नहीं, फिर देखें नन्दलाल (श्रीकृष्ण) क्या करते हैं? अर्थात् वहाँ की रक्षा कैसे करते हैं? अपने साथी के पास जाकर उनसे हाथ जोड़कर हमारी विनती कहना और जिस प्रकार भी बन सके अपने साथ लाकर हमें दर्शन करा दो।

यदि वह तुम्हारी बात न माने तो तुम अपने मन की करना और घनघोर वर्षा करके मथुरा बहाकर समुद्र में डुबा देना। तुम मथुरा को बहा देना तो हम बहुत सुखी हो जावेंगे। यहाँ सब ब्रजबालाओं की आँखों से नित्य अश्रु की धारायें बह रही हैं। एक क्षण को भी चैन नहीं मिलता, नेत्रों से नीर बह रहा है, हम प्रियतम से हार मान चुके हैं। तुम दोनों एक ही रंग के अर्थात् दोनों काले रंग के हो इसलिए जाकर एक दूसरे से मिलन कर लो। काले (श्रीकृष्ण) ने हमारा आनंद नष्ट कर दिया है। अतः हम तो उनसे हार मान चुके हैं। ब्रजराज श्रीकृष्ण के दर्शन पाने के लिए लला कवि कहते हैं कि यह सैर लिखी है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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