बुन्देलखंड में लोक संस्कृति में प्रकृति का सानिध्य हमेशा से रहा है। प्रकृति जीवन का पर्याय है। प्रकृति और ऋतु-परिवर्तन एक दूसरे की पूरक हैं। जेठ मास की गर्मी से सब परिचित हैं। गर्मी के बाद वर्षा का आगमन होता है। असाढ़ का पहला दिन खुशी का दिन। बरसात का पहला पानी Varsha Ritu Ke Geet के साथ जेठ – दशहरा कृषि कार्य के प्रारम्भ का पूजन। असाढ़ी देवताओं का पूजन। वर्षा की आराधना का मौसम।
बुन्देलखंड में वर्षा ऋतु के गीत
मोरे राजा किवरियाँ खोलो, रस की बूँदें परीं।
पहले आँधी बैहर आई,
दूजे बादर देत दिखाई,
तीजें कठिन अँधेरी छाई,
उठी-उठी घटा घनघोर, रस की बूँदें परीं।
पहली बूंद परी अर्राई,
मोरे माथे आई जुरहाई,
मैंने चोली बहुत छिपाई,
मेरी देहिया भई सराबोर, रस की बूंदें परी।।
सावन का महिना, बहिनों का पवित्र महिना है। साथ ही सावन के सोमवार शिव की आराधना व्रत । भाइयों के आने की प्रतीक्षा बहिनों को रहती है। आकाश में उमड़ते-घुमड़ते मेघ और चमकती हई बिजलियाँ और बादलों का गर्जन विरहिणी की विरह-वेदना को उद्दीप्त करता है। बरसात भर गाँवों में आल्हा गाया जाता है।
आल्हा – अगल-बगल में आल्हा ऊदल भैयद चले अगारू आज।
या विधि भेटे हैं जयचंद सों, देखत वीर रहे हरसाय।
आज्ञा माँगी तब आल्हा ने, स्वामी सुनौ कनौजी राय।
भूल चूककर क्षमा हमारी, हँसि कै आयसु देहु सुनाय।
बोले जयचंद तब आल्हा सें, हैं सब सीस तुम्हारे भार।
विजय तुमारी महुबै होवै, औ मैदान फरै तरबार ।।
बुंदेलखंड में आल्हा-ऊदल की वीरगाथा से सभी परिचित हैं। जब बरसात में झड़ी लगती है तब आल्हा का गायन किया जाता है, ये सब Varsha Ritu Ke Geet हैं। जिसमें युद्ध क्षेत्र, विवाह आदि का वर्णन होता है। आल्हा का मुख्य घटना केन्द्र महोबा है। जो चंदेलों की राजधानी थी। आल्हा की गायिकी के विविध रूप बुंदेलखंड में प्रचलित हैं।
रंग महल माँ मल्हना दैवे, दोऊ जनी पहुँची आय।
ब्रह्मा आल्हा संगै आये, लागे होंन मंगलाचार।
मुँह से माँगो जो नेगिन ने, मल्हना तुरत दयौ मैंगवाय।
दूल्हा निकासी में आल्हा पै, दैवे आँचर डारौ जाय।
तब मल्हना ने आँचर डारौ, हमरो दूध लजैयो नाय ।।
ये बुंदेली गीत, बुंदेलखंड की संस्कृति के पोषक हैं। बुंदेली-धरा की धरोहर हैं। सौंधी माटी का चंदन हैं। मेघ की पहली वर्षा के साथ आल्हा-ऊदल की शौर्य गाथा की लोक-गायिकी में वीरता, शौर्यता भर देती है। लोक-लय का आनन्द ही अलग होता है। आसाढ़, सावन और भादौं की घनघोर बरसात में जब मल्हार राग गूंजता हो और बुंदेली की स्वर लहरियाँ, ददरियाँ, कजरी, सैरे – बुंदेलखंड के साँस्कृतिक पक्ष को समृद्ध करते हैं। रिमझिम फुहारों के साथ बरसात का आनंद दुगना हो उठता है। बुंदेली माटी की सौंधी-सुंगध की तरह ये गीत मन-आँगन को महका देते हैं।
उठी-उठी रे घटा घनघोर,
नभ में चमके बीजुरिया,
बन नाच रहे जोड़ा मोर,
छनन-छनन बाजे पायलिया।
प्रेमी और प्रेमिका का मन रंगीला होकर गाने लगता है… ।
कोरी रजइया के दरद बिछौना,
आजा धना, मौरी आ जा री।
मोय जाडौ लागत है।
उत्तर मिलता है
कैसे आऊँ ऊँची अटरिया
सावन भादों की लगी अँधियारी।
वियोगिनियाँ मल्हार गाने लगती हैं… । जात नगरिया मैं मूली रे डगरिया,
सो अब सुध लियों मोरे राम रे।
बागों की कोयल, बागों में बोले,
और बोलें पनमोर रे,
मक्के मदीने में बोले रे पपीहरा
सो लेत मोहम्मद नाम रे।।
जात नगरिया….
बाबुल दीन्हा मोह अदभुत गहना,
और मैया ने जोड़ा पचास रे,
भैया ने दीन्हीं मोय झिलमिल खिचड़ी,
और भाभी ने जनम सुहाग रे।।
जात नगरिया…..
घिस-पिस गहना अंग लगायौ,
और फट गये जोड़े पचास रे,
झींगुरों में चुन लीनी झिलमिल खिचड़ी,
सो रह गयौ जनम सुहाग रे।।
जात नगरिया…..
तालों की मछली तालों में चमकें,
रन चमके तलवार रे –
मरी रे सभा चमके पिया की पगड़िया,
और सिजिया पै बिंदिया हमार रे।।
जात नगरिया मैं मूली रे डगरिया….
बरसात के मौसम में बेला के फूलों की छटा और सुगंध निराली होती है। प्रकृति की मनोरमता प्रेम भावों का संचार करती है।
बेला फूले आधी रात,
गजरा की के गरे डारौं।
बुंदेलखंड में वर्षा ऋतु में ददरियाँ गाई जाती है। स्त्री और पुरुष दोनों गाते हैं… ।
सावन की लगी झड़ी,
पिया गये परदेस हो,
पियू-पियू बोलत पपीहरा,
मोरे हिय में लगत ठेस हो।।
इन गीतों में विरह की वेदना है। सुकमारता और माधर्य है। नई नवेली दुल्हन गुनगुनाती है
बरस रई कारी बदरिया,
आ जई मोरे तन पतरी चुनरिया।
मस्ती से भरे यह गीत बड़े मनमोहक और भक्ति भावना से भरे हुये हैं। ब्रज की थाप बुंदेलखंड में भी झूला गीतों के साथ ध्वनित होती है। झूला गीतों में कृष्ण, कृष्ण भक्ति, राधा कृष्ण प्रेम, गोपियों के साथ रास और कृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण होता है।
झूला डारौ कदम की डार.
झूलत नंद किशोर हो हारी,
राधा झूलें, कृष्ण झुलावै,
सखियों दै दें झुलावें री।।
बुंदेली कजरी का आनंद ही अलग होता है
हरे रामा आज ब्रज में श्याम बने,
मनहारी हो हारी।
काजर बूंदा, बिछिया लैलो गलियन,
देख मुरारी रे हारी।।
किसानों के फुरसत का समय होता है ये। थकान को दूर करने के लिये दो पालियाँ बनाकर सैरों का गायन करते हैं। इन सैरों में ओज, श्रृंगार तथा वियोगरस का संयोग होता है।
बैठी तौ रइयो रे sss
बैठी तौ रइयो रानी सतखंडा में,
खइयो डबा के पान,
जब हम आहे अरे रण-कूच से,
तोरी मोतियन भरा दैहों माँग….
उत्तर मिलता है
जर जा बरजा रे,
जरजा – बरजा तोरे सतखंडा,
तोरे पानन में पर जाय तुषार,
तोरे अकेले अरे जियरा बिन,
मोहे सूनों लगै संसार।।
इस लोक गीत में भारतीय नारी की मनोदशा का सुंदर चित्रण है। मधुर प्रेम और समर्पण की भावना है। इन्हीं दिनों स्त्रियों के व्रत और उपवास चलते हैं। जैसे हरतालिका जिसे तीजा कहते हैं। में स्त्रियाँ गाती हैं।
कहाँ पाहौं अकउआ के फूल,
शिव के चढ़ावे खौँ।
रात को जागरण होता है। रास-परिहास में महिलायें एक दूसरे की चुटकी लेती हैं
दै लये कंकरी के ठाँसे हो, हम तीजा उपासे,
हम इतै करत शिव की पूजा, उतै पिया जू रुआँसे।
काली बदरियाँ, रिमझिम मेह, चमकती विजली, राजी-धजी हरियाली मेंहदी. नाचते-बोलते पपीहा, तीज-त्यौहार सब अपने-अपने करतब दिखाने लाई हैं। कजरियों के त्यौहार का ऐतिहासिक महत्व है। घर के बाहर या बाग में झूलों पर पैंग मारती बहिनों को भी अपना परदेश में रहना अखरता है । झूला-झूलते हुये ये राछरे गाती हैं। जिसमें भाई द्वारा बहिन को सावन में करने तथा अकोड़ी के युद्ध का वर्णन है। राछरों में बुंदेली लोक-संस्कार स्वरूप सुरक्षित है। राछरों में अमान सिंह, प्राण धंधेरे और चन्द्रावली के राछरे गाये जाते हैं।
सरग उड़त है एक चील री,
आधे सरग मड़राय।
जाय जो कहियो मोरे ससुर सों
सासो सें कहियो समझाय,
जाय जो कहियो बारे बलम सो,
बन्दी है तेरी चन्द्रावली,
जाके हैं लम्बे-लम्बे केस,
चन्द्रावली कौ राछरौ।।
ये राछरे संघर्ष या गृह क्लेश की कथाओं को सहेजे हुए हैं। अमान सिंह का राछरा इतिहास प्रसिद्ध है। ये त्याग, करुणा और वीरता की अभिव्यक्ति करते हैं।
सदा न तुरैया फूले अमान जू, सदा न सावन होय।
सदा न राजा रन चढ़े, सदा न जीवन होय।
राजा मोरे असल बुंदेला कौ राछरौ।।
राछरों में लोक का यथार्थ है, जो उस समय के इतिहास बताता है। भुजरियों का त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। लड़किया ‘चपेटा’ खेलती हैं। यह खेल वर्षा रितु विशेषकर सावन में खेला जाता है। विवाह के बाद पहल सावन में वरपक्ष की ओर से बहू के मायके में वस्त्र, आभूषण, मिठाई एव खिलौना भेजने का रिवाज है। इसे ‘सांवनी’ कहते है। सावनी में चपेटा भेजना आवश्यक है। ये चपेटा लाख के होते हैं।
समय-समय के गीत हैं। लोकगीतों के आधार पर किसी प्रदेश का साँस्कृतिक इतिहास लिखा जा सकता है। लोक की तरह सस्कृति भी जीवन के पारस्परिक समवाय का बोधक है। ये सभी लोक गीत दिखावा से दूर हैं।
सैरे- अबै अरी एक हओ हाँ हाथ के,
कंकन अबै छूटे हरद के दाग,
अबै अरी ये हओ हाँ तेल की,
फरिया न मैली भई अब फूटे,
हमाये भाग।।
कारसदेव की गोटें भादों के महिने में गाई जाती हैं।
गोट- एक वन चाली ऐला दे दो रे जहाँ,
तीजें वन पोज गई सकरी खोर।
जा पै राजन को गदै गज मंगल सपर खोर,
बदल बदल ऐला दे मावती खो रई समझाय।।
सैरे गीत और नृत्य पावस का आनंद बढ़ाते हैं। महोबा में भुजरियों की लड़ाई, पृथ्वीराज की पराजय है। बुंदेलखंड के जीत का पर्व है यह। इसी ऋतु में ढीमर, काछी रावला गाते हैं। किसी भी जनपद की लोक संस्कृति उसके लोक मानस और लोकाचरण से निर्मित होती है।
मध्ययुग में कजरियों में फिर एक नया आदर्श जुड़ा और वह था पति-पत्नी का संजोग और वियोग परक प्रेम। सावन का महिना एक सार्थक उद्दीपन बन गया। लोक नायिका काले बादल देखकर कह उठी… ।
गरज-तरज घनघोर के उनई जाव सुनाव,
जौ विरहिन-सी बीजुरी उतई जाव चमकाय।
मो दुक्खिन की तुम करौ इत्तौ कउँ सहाय,
तौ आँखिन में राखिहौं कजरा तुमें बनाय।।
चंदेलराजा परमाल की बेटी चन्द्रावती को प्राप्त करने हेतु पृथ्वीराज चौहान ने महोबा को श्रावण की पूर्णिमा को घेर लिया था। जव आल्हा, ऊदल आये तो पड़वा को चन्द्रावली भुंजरियाँ विसर्जित करने जा सकी। इसके पहले कीर्तिसागर पर आल्हा, ऊदल तथा पृथ्वीराज के बीच भीषण युद्ध हुआ। पूरे बुंदेलखंड में सावन की पूनों को भुंजरियाँ जल में विसर्जित कर बाँटी जाती हैं। भाई-बहिन के प्रेम का प्रतीक है यह महिना। वह पवित्र प्रेम जो कजरियों की रक्षा के लिये भाई की वीरता का दलिदान माँगता है। लोक कवि गा उठा –
सबकी बैन माई खोट हैं कजरियाँ,
मोरी बहिन परदेस।
लोक गीत की अनेक पंक्तियाँ आज भी बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में रची बसी हैं ।
नगर महोबो न देखौ न देखौ किरतुआ ताल,
सावन कजरियाँ न देखीं, न देखीं चंदेलन फाग।
भाई बहिन का मीठा अनमोल रिश्ता। इस रिश्ते की गर्माहट किसी देशकाल या सीमा में नहीं बंधती। बस इस रिश्ते की सोंधी – स्नेहिल मर करने की जरूरत है। वर्षा ऋत हमारे जीवन के लिए वरदान है। पानी है तो जीवन है तो खुशियों है।
काले मेघा पानी दे,
पानी दे गुड़ धानी दे।।
पानी माँगने की प्रार्थना साथ ही “कच्ची नीम की निबौरी सावन : अइयो रे का आह्वान सुखद अनुभूति का द्योतक है। प्रकृति भी इसी सौंदर्य और शबाब से भरी होती है।
गोरी असड़ा बरस रये रस बुंदना,
नीके लागन लगे अब जुतना।।
कारी बदरिया रे अरे तोय मना लाऊँ।
मेघन के बल जाऔं।
आज बरस जा मोरे अंगनवा
कंता रैन एक रै जाए।।
इन गीतों में लोक जीवन की सजीव झाँकियाँ – बंदेलखंड के प्रति अगाध प्रेम दर्शाती हैं। साथ ही ऋतुपरक रचनाओं में बुंदेलखंड का सौंदर्य साकार हो उठता है।
ऐसौ जौ बुंदेलखंड है, सो नोंने सें नौंनों
ई माटी में आधी माटी और आधी में सोनों।।
बातों-बातों में ऋतुओं के माध्यम से जीवन निरंतर गतिशील बना रहता है। लोकगीत उनमें सुगंधि और लास्य का संचार करते रहते हैं ।