बुन्देलखंड की लोक विधा Rai Geet कोयलिया के गीत हैं, जो कोयल की कूक के साथ शुरू होते हैं और कूक के बंद होने पर समाप्त हो जाते हैं। कूक की मिठास और व्यंजना इन गीतों में इतनी समायी है कि इन्हें कोयलिया के गीत कहना उचित है।
राई गीत लोकनृत्य की रानी ’’राई‘‘ से आत्मा की तरह जुड़े हैं, इसलिए वसंत ऋतु में या किसी भी ऋतु के कोई उत्सव या आयोजन पर जहाँ भी राई नृत्य होता है, राई गीत के बोलों की तरह पहले ही गूंज उठते हैं। अब तो इन गीतों के बसेरे गाँव और शहर सब जगह हैं, परन्तु चंदेल-काल में यह गाँव का ही गीत था। उसका स्वरूप एक पंक्ति का ही था, जो आज भी प्रचलित है। मध्ययुग में अवश्य वह दो या तीन अंतरों में जुड़ गया, क्योंकि गीत के साथ-साथ अभिनय योग्य संवादों को भी संग्रहित करना था।
चंदेल युग में ’’राई‘‘ गीत कब जन्मे, पहले ’’राई‘‘ गीत जन्मा या राई नृत्य, ये प्रश्न अपने आप उठ खड़े हो जाते हैं। अबार (जिला छतरपुर) के मेले में राई प्रश्नोत्तर शैली में भी होती है उसमें राई का एक दल गीत गाता है, तो दूसरा दल उसी जोड़ का राई गीत गाकर उत्तर देता है। इस राई की फड़बाजी का रूप स्पष्ट हो जाता है, जो रचनाकारों के बिना नहीं चल सकता।
इस क्षेत्र के देहातों में आज भी रचनाकार मिलते हैं, जो बात की बात में राई रच देते हैं। यह बात अलग है कि इन गीतों को साहित्य में कोई स्थान नहीं मिला और वे अब तक उपेक्षित रहे। इतना निश्चित है कि राई गीत राई नृत्य के बोलों की तरह पहले जन्मे थे, बाद में राई नृत्य ने अपना रूप पाया था।
राई गीत तीनों रूपों में प्रचलित है। पहला और सबसे पुराना रूप है एक पंक्ति का, जो टेक जैसा लगता है। यदि उसे सखयाऊ फाग की दुम या लटकनिया माना जाय, तो वह उतना पुराना नहीं ठहरता। वस्तुतः यह गीत अपनी रचना प्रक्रिया में एक पंक्ति का ही था और फसल कटकर आने के समय कृषकों के आनंदोत्सव में गाया जाता था। इस दृष्टि से वह प्राचीनतम सिद्ध होता है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं …
छिटकी चारउँ ओर, छिटकी चारउँ ओर, सूरज की बैन जुँदइया। अँधयारी है रात, अँधयारी है रात, बिन्नू को बूँदा दमक रओ। सपने में दिखाय, सपने में दिखाय, पतरी कमर बूँदावारी हो।
दूसरा रूप वह है जिसमें राई के साथ अंतरे के रूप में दो या तीन दोहे जोड़े गये हैं। साखी की फाग या सखयाऊ फाग का रूप भी ऐसा ही होता है। अंतर इतना है कि राई में राई केन्द्रविन्दु होती है और दोहा उसका अनुसरण करता है, जबकि सखयाऊ फाग में दोहा केन्द्र में होता है और उसकी दुम उसके पीछे चलती है। इसका एक उदाहरण इस प्रकार है …
बज रई आधी रात, बज रई आधी रात, बैरिन मुरलिया जा सौत भई।
बन सें तू काटी गयी, छेदी तोय लुहार।
हरे बाँस की बाँसुरी, मनो निकरो नइँ सार।।बैरिन।।
पोर-पोर सब तन कटे, हटे न औगुन तोर।
हरे बाँस की बाँसुरी, लै गई चित्त बटोर।। बैरिन।।
तीसरे प्रकार की राई झूलना की राई है, जिसकी अर्द्धपंक्ति में पहली राई की अर्द्धपंक्ति होती है और दूसरी अर्द्धपंक्ति लम्बी होती है। लम्बी होने से उसकी लय झूलती लगती है। इसीलिये उसे झूला की राई कहते हैं। इसका एक उदाहरण इस प्रकार है …
ऐसी जाँगाँ चलौ, ऐसी जाँगाँ चलो,
गहरी नरइया, घने मऊआ, जमुनियाँ के छाँयरे।
झूलना की राई में थोड़ा-सा परिवर्तन स्पष्ट है। जब यह राई गायी जाती है, तब नर्तकी नृत्य भी झूले की लय में करती है। कभी-कभी राई की चार-पाँच पंक्तियाँ जोड़कर ’’राई की फाग‘‘ बना ली जाती है, जो चैकड़िया फाग में अधिक मधुर और नृत्य के अधिक उपयुक्त होती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है….
कैसो नौनो लगै, कैसो नौनो लगै, जंगल में इतै-उतै घूमबौ।
सेर चीता फिरैं, सेर चीता फिरैं, तिंदुअन को घात भरो हेर बौ।।
रोझ साँझर की सान, रोझ साँझर की सान, झुंडन में फदर-फदर दौरबो।
कऊँ भैंसा फिरें, कऊँ भैंसा फिरें, सुँगरा को घुर्र-घुर्र घूरबौ।
सुगर मिरगन की चाल, सुगर मिरगन की चाल, मोरन को पंखा मरोबौ।।
आदिकाल के राई गीतों में विविधता कम है, श्रृंगारी गीतों की अधिकता है। असल में, इन गीतों का संबंध लोकनर्तकी अर्थात् बेड़िनी या नटनी से है, इसलिए श्रृंगार ही इनका अंगी रस रहा है। श्रृंगार में भी संयोग की भोगपरक लालसा अधिक है, वियोग की पीड़ा कम। इस युग का परिवेश और आक्रमणकारियों का खतरा दोनों ने कविता की दिशा निश्चित कर दी थी।
वीरता का मूल्य इतना व्यापक था कि उसमें श्रृंगारी भावनाओं को संयमित और नियंत्रित कर लिया था। इसी वजह से राई गीतों में अश्लीलता और कामुकता नहीं आ पायी। राई की प्रधान विशेषता है उसकी रसवत्ता। गीत के बहुत संक्षिप्त आकार में भाव का एक टुकड़ा ऐसा असर करता है जैसा दाल में नमक। उसकी वामन देह में तीन पगों से धरती नापने की क्षमता है।
राई की एक पंक्ति में समाया भाव इतनी तीव्रता से फैलता है कि सुई लगते ही श्रोता की नस-नस में फैल गया। कुछ पंक्तियों में सहज वक्रता होती है और कुछ में अन्य चमत्कार, जो अंदर तक गुदगुदा देते हैं। अविधात्मक पंक्तियों में अर्थ के फैलने की गुंजाइश होती है। उदाहरण के लिए एक गीत है…
’’छिटकी चारउँ ओर, सूरज की बैन जुदइया‘‘
और उसमें नायिका का संकेत चाँदनी तो चारों तरफ प्रकाश फैलाती हुई सूरज की बहन हो रही है अर्थात् सूरज दिन में रहता है, तो मिलन नहीं हो पाता और अब चाँदनी सूरज की बहन हो रही है, तो रात को भी मिलन संभव नहीं है।
बुंदेलखण्ड के राई गीतों की लोकप्रियता का कारण उनकी चुटीली व्यंजना है। भीतर तक असर करने वाली और रस में डुबोकर स्वयं किनारे खड़ी रहने वाली। राई की एक पंक्ति किसी भी बंधन के बिना सहज ही चल पड़ती हैं। और शब्दवेधी तीर-सी अचानक हृदय बेध जाती है। निश्छल और स्वस्थ मानसिकता से सहज ही फूटे ये राई भरे शीतसुमन न जाने कितनी अर्थगन्धों को छिपाये रहते हैं। इसका एक उदाहरण इस प्रकार है…
’’मर जैहौं गँवार, मर जैहौं गँवार, झुलनी कौ झूला न पाइहौं।
‘‘ झुलनी सोने, मोतियों आदि की बनी लटकन है, जो नथ में लटकायी जाती थी, और कपोलों पर झूलती रहती थी। अर्धपंक्ति में सीधी चुनौती और दूसरी अर्धाली में समर्पण की तीव्र ललक। पौरूष को सीधा ललकारना नारीत्व का पूर्ण समर्पण है। गंवार कहने में आशय न समझने का उपालम्भ है, जो प्रिय की बुद्धि की प्रतिभा को कौंचता है और ’’मर जैहौं‘‘ में साहसी प्रयत्न को। सीधी उक्तियों में न जाने कितने अर्थ भरे हैं।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’