यशोवर्मन द्वारा बनवाया Laxman Mandir पंचायत शैली का सबसे सुरक्षित स्थिति में वर्तमान में स्थित है। मन्दिर के मण्डप में दाहिनी तरफ लगे हुए शिलालेख में वर्णन मिलता है कि लक्ष्मण मन्दिर राजा यशोवर्मन ने अपने पिता हर्षवर्मन के द्वारा कन्नौज के राजा महिपाल को पराजित कर भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करने के लिए 930 ई० बनवाया था ।
यशोवर्मन को लक्ष्मण वर्मन के नाम से भी जाना जाता था। इसलिए इसका नाम लक्ष्मण मन्दिर पड़ा। यशोवर्मन ने मथुरा से 16 हजार शिल्पकारों को बुलाया, उन शिल्पकारों ने इस मन्दिर को 7 वर्ष की अवधि में इस भव्य एवं सुन्दर कलाकृतियों से सुसज्जित कर इस मन्दिर का निर्माण किया। उसी का परिणाम है कि आज 1000 वर्ष से अधिक समय होने पर पूर्ण सुरक्षित है।
भगवान विष्णु को समर्पित यह Laxman Mandir उनके वैकुण्ठ धाम के समान प्रतीत होता है। विष्णु की प्रतिमा ऐसी जान पड़ती है मानो वह अपने धाम में विश्राम कर रहे हों पंचायत शैली का यह मन्दिर सांधार आकार का है। इसका चबूतरा भी अपनी पुरानी स्थिति में सुरक्षित है जिसके चारों कोनों पर एक-एक उप मन्दिर हैं तथा बीच में प्रमुख मन्दिर स्थित है इसी वजह से इसे पंचायत शैली का मन्दिर कहते हैं।
लक्ष्मण मन्दिर को नीचे से ऊपर तक दृष्टि डालने से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे बालू पत्थर का न बना होकर बल्कि चन्दन की लकड़ी का बना है। मन्दिर बनाने में छोटे-छोटे टुकड़ों का प्रयोग किया है यह टुकड़े शिल्पकारों द्वारा यहां से करीब 30 कि०मी० दूर केन नदी के तट पर निर्मित किये जाते थे तथा मानचित्र की सहायता से ये टुकड़े बनाते थे तथा उसमें नम्बर डालते जाते थे। जिन्हें श्रमिकों द्वारा खजुराहो लाया जाता था एवं मानचित्र की दूसरी प्रति के सहारे उन्हें नीचे से ऊपर की ओर जोड़कर मन्दिर का निर्माण किया जाता था।
इस प्रकार यह मन्दिर नीचे से ऊपर की ओर छोटे-छोटे टुकड़ों की सहायता से भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया। चबूतरे के दक्षिण पूर्व कोने पर उपमन्दिर निर्मित है जिसके गर्भग्रह में गज लक्ष्मी विराजमान हैं लक्ष्मण मन्दिर पूर्ण विकसित, विलक्षण, सुन्दर आकृतियों से सुसज्जित एवं कला की पूर्ण परिणति इस मन्दिर में देखने को मिलती है।
मन्दिर के प्रवेश द्वार पर भगवान सूर्य की एक सुन्दर प्रतिमा देखी जा सकती है जो रथ पर सवार हाथ में कमल के दो फूल लिये हुए हैं। मन्दिर की बाहरी परिक्रमा करने से सबसे पहले बांये से दाहिनी ओर गणपति की प्रतिमा है।
इसके बाद जगति से बेदी बन्ध तक वेलबूटी कीर्तिमुख एवं हाथियों की लाइन पूरे परिक्रमा में सुशोभित हैं। हाथियों की विशेष बात यह है कि प्रत्येक हाथी में शिल्पकार ने कहीं-न-कहीं अन्तर रखा है अर्थात् सभी हाथी एक-दूसरे से भिन्न हैं। हाथियों के ऊपर उस युग के मनुष्यों की जीवन झलक दिखायी गई है। छोटी-छोटी प्रतिमाओं की दो लाइनें हैं जिसमें नृत्य, संगीत, शिकार, युद्ध एवं मैथुन आदि के दृश्य अंकित हैं।
उस युग के मनुष्य के रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं परम्पराओं को दिखलाया गया है। इसके ऊपर मन्दिर की मुख्य दीवार शुरू होती है। प्रमुख दीवार पर ढाई फुट ऊंची प्रतिमाओं की 2 लाइनें बनी हुई हैं। पहली पंक्ति में शिव की प्रतिमा है, जो त्रिशूल, नाग, रुद्राक्ष माला एवं कमण्डल के साथ हैं तथा दूसरी लाइन में विष्णु शंख, चक्र, गदा, पद्म के साथ अभय मुद्रा में देखे जा सकते हैं। विभिन्न भाव-भंगिमाओं में देव-दासियों, नाग सुर-सुन्दरियों, कन्याओं को चतुर्मुखी देव प्रतिमाओं के दोनों तरफ देखा जा सकता है।
दक्षिण पूर्व के कोने में भगवान विष्णु के दाहिनी ओर नायिका है जो कि स्नान करने के बाद बाल निचोड़ रही है एवं इसी के कोने के ऊपर की लाइन में प्रेम पत्र लिखती हुई नायिका को दिखाया गया है। प्रेम-पत्र लिखते हुए इसलिए कहा जाएगा क्योंकि जब आप सूक्ष्म दृष्टि से देखेंगे तो पायेंगे कि नायिका प्रसन्न मुद्रा में है।
इस मूर्ति के आगे भगवान कार्तिकेय की प्रतिमा है। इसके बाद मन्दिर की मध्य दीवार शुरू होती है। यहां पर दो पंक्तियों के ऊपर अग्निदेव हैं। इनके नीचे देव गंधर्व तथा सबसे नीचे राजा रानी के साथ तांत्रिक, पुरोहित, राजा एवं रानी की आलिंगन मुद्रा बहुत ही प्रभाव छोड़ती है।
देव गंधर्व के दाहिनी ओर कालीदास की शकुन्तला का मन मोहक चित्रण चित्रत है। महाकवि कालीदास के ग्रंथ अभिज्ञान शाकुन्तलम में वर्णन किया गया है। कि शकुन्तला जब भी नहाने के बाद बाल निचोड़ती थी तो जो पानी की बूंदें गिरती थीं वह मोती जैसी प्रतीत होती थीं। इसीलिए शकुन्तला के पैरों के पास हंस बैठा हुआ है और जो भी बूंदें नीचे गिरती हैं मोती समझकर उसे चुगता है कालीदास ने शकुन्तला के सौन्दर्य को बड़े ही शृंगारिक ढंग से वर्णन किया है।
कालीदास की शकुन्तला इतनी सुन्दर है कि जब भी वह नहाती थी एवं स्नान करने के बाद सरोबर से बाहर आती थी तब पानी की बूंदें मोती के समान प्रतीत होती थीं इसी भ्रम में हंस शकुन्तला के पीछे-पीछे चलते थे। खजुराहो के शिल्पी ने इसी रूप को निखार कर छैनी एवं हथौड़ा से परम सौन्दर्य की प्रतिमा को मन्दिर की दीवार पर उकेरा है।
देव एवं गंधर्वों के दांयी ओर तांत्रिक योगिनी का चित्रण किया हुआ है। एक हाथ में भिक्षा पात्र एवं दूसरे हाथ में एक दण्ड लिये हुए है। यह नायिका उत्तरीय वस्त्र धारण किये हुये है बाकी नग्न है। इसी रूप को देखकर प्रतीत होता है कि यह तांत्रिक योगिनी है। ये योगनियां भिक्षाटन एवं विचरण करती रहती थीं।
इस मध्य दीवार के नीचे की ओर राजा-रानी के आलिंगन के बांयी ओर एक नायिका का बांह के नीचे पीठ पर नख चिन्ह देखते हुए दिखाया गया है। वात्सयान के कामसूत्र के अनुसार स्त्री एवं पुरुष द्वारा एक-दूसरे की कामवासना उत्तेजित करने के लिए नख एवं दन्त का उपयोग करने वाले सिद्धान्त को प्रमाणित करता है। इसके दाहिनी ओर शिव प्रतिमा के पास देवी दासी के हाथ के ऊपर तोता बैठा हुआ है। तोता 64 कलाओं से परिपूर्णता का प्रतीक है।
सैनिक एवं सम्मान आदि शांति के समय नगर भ्रमण के लिए निकलते थे और वह इन तोतों को देखकर देवदासी एवं नगर वधू के घरों को पहचान जाते थे। इसी लाइन के कोने में मैथुन के बाद नायिका कांटा निकालते हुए दिखाई गई है। दृश्य बहुत ही रोचक प्रतीत होता है। इनके उपरान्त भी कई दृश्य इसी दीवार पर अंकित हैं जो दर्शनीय हैं। दक्षिण पश्चिम कोने पर उप-मन्दिर स्थित है जिसमें शेष सैय्या पर भगवान विष्णु आसन्न हैं।
मुख्य मन्दिर की दीवार पर दक्षिण की ओर नीचे कोने में मग्न अवस्था में एक युगल को दिखाया गया है। आलिंगनबद्ध होते हुए प्रेमिका अपने प्रेमी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए दिखाया गया है। इसके दाहिनी ओर एक सुन्दर नायिका को गाना गाते हुए दर्शाया गया है। जब आप सूक्ष्म दृष्टि से देखेंगे तो पायेंगे कि नायिका के होंठ कुछ चलते हुए दिखाई पड़ते हैं। यहीं पर शिवजी के दर्शन होते हैं। शिवजी के दाहिनी ओर एक अप्सरा को मांग में सिन्दूर भरते हुए दिखाया गया है। एक हाथ में दर्पण एवं दूसरे हाथ से सिन्दूर साफ दृष्टिगोचर होता है।
इसके ऊपर की लाइन में अप्सरा को दिखाया गया है जो क्री ड़ारत है। शिल्पकार ने उपरोक्त अप्सरा की मांसल देह को बड़े ही रोचक ढंग से चित्रित किया है। इसी लाइन में भगवान विष्णु को देखा जा सकता है। उनके बायीं ओर एक अप्सरा को कपड़े पहनते हुए दिखाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय वस्त्र तो अच्छे किस्म के मिलते थे लेकिन सिलाई की कोई व्यवस्था नहीं थी नायिकाएं अपना वक्ष स्थल कुंचकी से नीचे से वस्त्रों को सोने चांदी आदि के कटिबंधों की सहायता से बांधा करती थीं।
इसी दीवार पर नीचे की लाइन में दक्षिण पश्चिम कोने पर कापालिक तांत्रिक समूह की नायिका को दिखाया गया है। इसी के पास आलसी युगल को दर्शाया गया है। उसी के पास नायिका को अंगड़ाई लेते हुए दिखाया गया है जिससे आलस्य दूर होता है इसी के कोने में नीचे छोटी लाइनों में आखेट के दृश्य, शिव पूजन, युद्ध एवं मैथुन करते हुए दिखाये गये हैं।
इसी मन्दिर के पीछे पश्चिम के आले में सूर्य भगवान के दर्शन होते हैं। उत्तर पश्चिम के कोने में एक उप-मन्दिर है जिसके गर्भग्रह में मर्ति नहीं है। मन्दिर के उत्तर पश्चिम कोने में भी बहुत ही सुन्दर मूर्तियां दिखाई गई हैं। स्नान के बाद पीठ मलती हुई नायिका को देखा जा सकता है। इसी के पास एक युगल दम्पत्ति को ताड़ी पीते हुए दिखाया गया है । ताड़ी एक विशेष प्रकार की शराब होती है जो खजूर के पेड़ से निकलती है।
शिल्पकारों ने इनके इस रूप को बड़े ही रोचक एवं स्पष्ट सजीव चित्रण किया है। इनकी आंखों को देखने से मालूम पड़ता है कि वाकई नशा शरीर में चढ़ रहा है एवं मदमस्त है। सिर्फ जान डालने की जरूरत है। उत्तर पश्चिमी दीवार पर पुताई करते हुए नायिका को दिखाया गया है। उसी के ऊपर वाली लाइन में काम मग्न नायिका को वस्त्र उतारते हुए दिखाया गया है।
इसके बाद उत्तरी मध्य दीवार शुरू होती है। जिसमें सबसे ऊपर अग्नि देव की प्रतिमा है। उनके बीच हेमावती व चन्द्रमा को दर्शाया गया है। हेमावती के बांये हाथ में दूज का चांद लिये हुए स्पष्ट देख सकते हैं। यह युगल लोक कथा को स्पष्ट इंगित करता है। कि हेमावती अति सुन्दर एवं यौवन की दहलीज पर थी। एक बार चन्द्रमा हेमावती के असीम सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गये और उन्हें पृथ्वी पर उतरना पड़ा और वह दूज की एक रात को अवतरित हुए यह युगल इसी लोक कथा को प्रमाणित करते हैं। इसी कारण हेमवती के साथ में दूज का चांद है।
इनके नीचे राजा रानी तांत्रिक एवं योगिनी का समूह आदि दृश्य देखने को मिलते हैं। इनके साथ हीएक-नायक एवं उप-नायिका भी स्थान रखते हैं। मैथुन सम्बन्धी अनुष्ठान की क्रियाओं को आगे बढ़ाते हैं। जैसे कि दक्षिण वाली मध्य दीवार पर कर रहे हैं। एकदम दाहिने कोने पर युगल एक छड़ी से बन्दर को भगाते हुए दिखाया गया है। यहां पर वन्दर मन का प्रतीक है जिसे पुरुष ज्ञान रूपी छड़ी से अपने चंचल मन को बस में करना चाहता है।
यहां स्त्री को कामना का प्रतीक माना है जो पुरुष को हमेशा जकड़े रहती है अर्थात् ज्ञान से दोनों मन एवं कामना को बस में किया जा सकता है। स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उपरोक्त दृश्य देखकर इसी लाइन में युगल मदिरा पान नृत्य करते हुए दिखाया गया है। इसी के नीचे हाथियों की लाइन है उसी के पास कोने में तांत्रिक की नायिका के साथ विशेष मुद्रा में सम्भोग करते हुए दिखाया गया है। इस विशेष मैथुन क्रिया को देखते हुए हाथी का हंसना भी विशेष महत्व रखता है।
उपरोक्त मैथुन प्रतिमा में तांत्रिक नायिका की पीठ पर कामविन्दु खोज रहा है। जिसे दबाने पर काम पूर्ण उत्तेजित होता है। यह काम विन्दु प्रत्येक प्राणी के शरीर में होता है जो चन्द्रमा के साथ-साथ शरीर में चढ़ता एवं उतरता है। अमावस्या की काली रात को यह विन्दु पांव में होता है। पूर्णिमा की रात्रि को यह बिन्दु सिर पर पहुंच जाता है क्योंकि पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा पूर्ण यौवन पर होता है।
ऐसा विचार है कि तांत्रिक लोग उस बिन्दु को खोजकर एवं उकसाकर काम का पूर्ण आनन्द लेते हैं तथा एक उतेजित काम की क्रिया होती है। इस प्रतिमा में तांत्रिक उसी विन्दु को खोज रहा है। अपनी शिल्प विशेषता के कारण यह प्रतिमा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। उत्तर पूर्व कोने पर उस मन्दिर है जिसमें भगवान विष्णु की चतुर्भुज मूर्ति गर्भग्रह में स्थापित है। मुख्य मन्दिर के अन्तिम आले में महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा दस भुजी प्रतिमा जो कि अभय मुद्रा में है देखी जा सकती है ।
खजुराहो के मन्दिरों में दो प्रकार की प्रतिमाएं देखने को मिलती हैं। प्रथम प्रतिमाएं वो हैं जो बड़े-बड़े बाल रखती हैं दूसरे प्रकार की प्रतिमाएं छोटे-छोटे बाल रखती हैं। छोटे बाल अक्सर तांत्रिक लोग ही रखते थे जिन्हें दूर से ही जाना जाता था और वह हाथ में दण्ड एवं कमण्डल आदि लिये रहते थे। वह गांव-गांव एवं शहर-शहर विचरण करते थे इसी वर्ग विशेष से उन्हें पहचाना जाता था। राजा रानी जन साधारण बड़े-बड़े बालों वाले हैं। तांत्रिक आदि छोटे-छोटे बालों वाले प्रत्येक मन्दिर में दृष्टव्य हैं।
मन्दिर के प्रवेश द्वार पर पत्थर का बना हुआ मकर तोरण है। जिसकी नक्कशी देखते ही बनती है यह शुभागमन का प्रतीक प्रत्येक मन्दिर में देखने को मिलता है यह बहुत ही सुन्दर एवं बरबस ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है। मन्दिर के भीतरी भाग को पांच भागों में बांटा जा सकता है। (1) मण्डप (2) महा मण्डप (3) अंतराल (4) गर्भग्रह एवं (5) प्रदक्षिणा पथ ।
प्रवेश द्वार के बाद ही मण्डप में पहुंचा जा सकता है। मण्डप में एक शिला लेख विक्रम सम्वत् 1011 सन् 933 ई० देखने को मिलता है। शिलालेख के प्रथम भाग में मन्दिर के अधीष्ठ देव भगवान विष्णु का वर्णन है तथा दूसरे भाग में धंगदेव वर्मन द्वारा अपने पिता श्री यशोवर्मन के गुणों का वर्णन किया गया है।
मन्दिर के दूसरे भाग महामण्डप चार स्तम्भों की सहायता से बना हुआ है जहां नृत्य आदि के लिए बड़ा-सा चबूतरा बना हुआ है। इसके बाद मन्दिर के तीसरे भाग में पहुंचा जाता है जिसे अन्तराल कहते हैं। यहां पर मन्दिर का पुजारी बैठकर मन्दिर में आने वाले भक्त लोगों की पूजा-पाठ आदि में सहायता करते थे। धार्मिक अनुष्ठान विधिपूर्वक कराते थे। इसके बाद मन्दिर का चौथा गर्भग्रह आता है।
प्रवेश द्वार पर अन्य मन्दिरों की भांति इस मन्दिर में भी तीन लोक का चित्रण देखने योग्य है। इसमें मृत्यु लोक एवं भगवान विष्णु के दश अवतारों का चित्रण मुख्य रूप से देखने योग्य है। प्रवेश द्वार के दायें ओर जय एवं बाई विजय की मूर्तियां हैं। गर्भग्रह में भगवान विष्णु की त्रिमुखी प्रतिमा स्थापित है। अन्य दो मुख्य नरसिंह एवं बराह के हैं। लोकमत के अनुसार इसे कश्मीर के राजा ने लक्ष्मण वर्मन को भेंट किया था।
इसके बाद मन्दिर का अन्तिम भाग प्रदक्षिणा पथ हैं आंतरिक मन्दिर एवं बाह्य मन्दिर को जो अलग करता है। उस बीच के भाग को प्रदक्षिणा पथ कहते हैं जिसे गर्भग्रह की परिक्रमा के लिये बनाया गया है। मन्दिर की आन्तरिक शिल्पकारी बड़ी ही मनमोहक है एवं जिस प्रकार से बाह्य भाग की सज्जा एवं सुन्दरता है उसी आंतरिक भाग को देखते बनता है।
यहां प्रतिमाओं की दो लाइनें हैं नीचे की लाइन में अष्ट दिक्पाल प्रत्येक आठ कोनों में दर्शाया गया है। इन्द्र, अग्नि, यम, नैनृत्य, वरुण, वायु, कुबेर तथा ईशान के दर्शन होते हैं। ऊपर की लाइन में भगवान कृष्ण की लीला दर्शायी गयी है जिसमें कालिया मर्दन, चाणूर बध एवं कुवलय पीठ का बहुत की सजीव चित्रण किया गया है।
मन्दिर के उत्तरी भाग में भू-वरहा रूप में नरसिंह, ह्यग्रीव के दर्शन होते हैं। लक्ष्मण मन्दिर ही एक ऐसा मन्दिर है जो अपने मूल में स्थित है। एक हजार वर्ष होते हुए भी ज्यों का त्यों विद्यमान है। मन्दिर से उतरकर भी पूरे मन्दिर की बाह्य परिक्रमा की जा सकती है। दायें से बायें परिक्रमा करने पर लगभग एक फिट भी प्रतिमायें प्लेटफार्म के चारों तरफ देखने को मिलती हैं। जिसमें उस समय के जीवन एवं रहन-सहन आदि देखने को मिलता है। इसमें लगभग साढ़े चार फीट लम्बे पेनल बने हुए हैं। उस काल के जीवन से सम्बन्धित कृत्यों की झाकियां प्रस्तुत की गई हैं। शिकार के दृश्य, व्यापारियों को व्यापार करते हुए दिखाया गया है।
दक्षिणी-पूर्व कोने के दृश्य में पूर्णिमा की रात्रि में सामूहिक सम्भोग के दृश्य का अवलोकन किया जा सकता है जिसे तीन खण्डों में दर्शाया गया है। दूसरे खण्ड में पंचमकार का दृश्य विशेष उल्लेखनीय है। पंचमकार के सेवन के बाद सामूहिक सम्भोग विभिन्न मुद्राओं में दृष्टिगोचर होता है । अध्यापक द्वारा नृत्य एवं संगीत की शिक्षा की जा रही है। घोड़ी के साथ सम्भोग दिखाया गया है जो कि युद्ध के दौरान सैनिकों की मनःस्थिति की झलक स्पष्ट देखने को मिलती है।
युद्ध के दौरान सैनिक स्त्रियों से बहुत दूर युद्ध के मैदान में रहते हुए जहां स्त्री नहीं जा सकती है। युद्ध के दौरान सैनिक अपनी वासना तृप्ति के लिए छोटे कद की घोड़ियों का उपयोग करते थे। आगे धर्मगुरु अपने शिष्यों को धर्म की शिक्षा देते हुए दिखाया गया है। विवाह आदि के दृश्य सैनिक सामन्तों आदि को दिखाया गया है। उत्तर पूर्व के खण्ड मन्दिर निर्माण कर्ता उन शिल्कारों को देखा जा सकता है। जो अपनी छैनी हथौड़ी से सुन्दर विशाल एवं अनूठे मन्दिरों को गढ़ रहे हैं।