भारत में लगभग 20 करोड़ की आबादी ऐसी जनजातियों की है, जो घुमन्तू जीवन व्यतीत कर रही है। कंजर, बंजारा, कुचबंदिया, कबूतरा, मोघिया, सांसी, पारधी आदि ऐसी ही जनजातियाँ हैं, जो बुन्देलखण्ड में निवास करती हैं। Kabutara बुन्देलखण्ड की विमुक्त जनजाति समाज खानाबदोश है। अपने जीवन यापन के लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहना इनकी नियति है।
कबूतरा Kabutara समाज के पुरुष वर्ग ज्यादा दिखाई नहीं देते वे आदिकाल से चोरी डकैती जैसे कामों में लिप्त रहते थे और कबूतराय समाज की महिलाएं कबूतरी ज्यादातर कच्ची शराब बनाने और बेचने का काम करते हैं। घर-गृहस्ती और हाट-बाजार का सारा काम कबूतरी ही करती है। कुछ अपने अड्डों पर ही शराब बेचने का काम करती हैं और कुछ आस-पास के गांव में जाकर शराब बेचने का काम करती है
कहते हैं कि रानी पद्मिनी की सेना को जब सुल्तान अलाउद्दीन ने घेरना शुरू किया, उनका रसद पानी छीनना चालू किया तो रानी ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि बल नहीं तो छल उनकी रशद लूट लो । अलाउद्दीन ने युद्ध से बचे पकड़े गए लोगों से गुलामों की तरह व्यवहार किया। इसके बाद फिरंगियों ने इनको अपने काम का मोहरा बनाया। भूखे और खदेड़े गए लोगों की आन-बान सब खत्म हो गई। स्वतंत्रता के लिए पागल यह जनजाति फिर रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शामिल हो गई।
ब्रिटिश शासन काल में घुमन्तू जनजाति को 1871 में अपराधी जनजाति अधिनियम बनाकर उन्हें जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया गया था । सन् 1952 में भारत की आजादी के बाद इस अधिनियम को समाप्त कर दिया गया। इसके बाद इन्हें विमुक्त जातियों के नाम से जाना जाता है।
आज कबूतरा Kabutara विलुप्ति होने की कगार पर है, जो अपनी आजीविका के लिए गाँव-गाँव भटकती फिरती है। कबूतरा जाति की संख्या आज गिनी-चुनी रह गई है। यह जनजाति मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड के कुछ इलाकों में शेष है। ये लोग कोई निश्चित जगह न रहकर गाँव-गाँव घूमते-फिरते रहते हैं। किसी के खेत में डेरे डालकर अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं। ये सामूहिक रूप से बसने के बजाए फैले हुए होते हैं। कबूतरा जाति पुरुष प्रधान है।
कबूतरा Kabutara अपने पूर्वजों तथा ग्राम देवताओं की पूजा बड़े धूम-धाम से करते हैं। कबूतरा जाति के लोग वीर देवता की पूजा करते हैं। उनकी स्थापना बेर के पवित्र पेड़ की छाँव में होती है। लिपी हुई चबूतरी पर बेर के पत्ते, पान का पत्ता, गुड़ और बकरी का खून चढ़ाया जाता है। रोटी का चूरमा और लाल कपड़ा तथा शराब और तेल पास में रखकर पूजा सम्पन्न की जाती है। ये लोग वीर देवता में विश्वास रखते है।
जब भी उनकी जाति में कोई बीमार होता है तो गुनियावीर देवता की मूर्ति के सामने मंत्र पढ़कर देवता को पशु बलि या शराब पिलाने के लिये कबूल करवाता है। गुनिया स्वयं से प्रश्न पूछता है और स्वयं को ही जवाब देता है। जब सब साथ में होते है तो वे लोग आनन्द के साथ हँसते हुए त्योहारों को मना लेते हैं। वे लोग त्योहार में नृत्य करते हैं। इस नृत्य में दस से लेकर बीस-तीस नर्तक होते हैं। पुरुष ढोल बजाता है। पुरुष, स्त्रियाँ उसके चारों ओर घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। ढोल की लय पर गीत गाये जाते है-
कबूतरा जाति के लोग होली में गीतों का रस लेते हैं। रंगीली फाग भी गाई जाती है। आमने-सामने प्रश्न-उत्तर रखते वे लोग नृत्य करते हैं। वे एक दूसरे की ठिठोली करते रातभर गीतों पर नृत्य करते हैं। तीज-त्योहार एवं शादी के नृत्यगीतों भी होते है ।
कबूतरा जाति में मृत्यु के समय कुछ विधि-विधान करके विशेष प्रकार के करूण मरसिए गाए जाते हैं। जिसमें सर्वप्रथम कुँआरी लड़की से चबूतरा लिपवाया जाता है। अगरबत्ती, मोमबत्ती, कोरे कपड़े से देवताओं की मणी बनाई जाती है और वे मणी के सामने आकर मृतक के परिवार जन मृतक अमर रहे, कहते हैं। उसकी आत्मा को शांति मिले ऐसी कामना करते हैं। आस-पास के डेरे की स्त्रियाँ मृतक के वहाँ आकर गोल-गोल घेरे में घूमती-फिरती मरसिया गाती हैं-
आओ तो जाजो रे पन कुटो मत जातो रे घोड़ो धोड़ो घूमती,
मोर आवर्ती फुलवाड़ी केवड़ा आवर्ती- आवर्ती हमीर दे वेर दे..
पुराने जमाने में कबूतरा जाति में सती होने का चलन था। इस प्रकार कबूतरा जनजाति के लोकगीत, लोकनृत्य, लोक कथाएँ, मरसिये आदि से सम्पन्न होकर अपनी सांस्कृतिक विरासत को कायम रखे हुए है।