मनुष्य को मनुष्यता प्राप्त करने के लिये अच्छे संस्कारों की आवश्यकता होती है, और हमारे देश में प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने जन्म के पूर्व से लेकर मृत्यु उपरान्त तक संस्कार की विधियों का सृजन किया है। बुन्देलखण्ड में Janam Sanskar Aur Geet का अपना अलग महत्व है । लोक मानस अपने हृदय के सुख-दुःख, आनंद, विरह, मिलन, प्रेम और घृणा तथा करुणा की धारा से अभिभूत होकर अपने भावों को अपने शब्दों में बाँधकर लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त करता है।
अनिष्ट की आशंका के लिये वह अपने श्रद्धा और विश्वास में बँधे देवी-देवताओं का स्मरण कर जीवन की मंगल कामना करता है, वहीं मनोवांछित उपलब्धि प्राप्त होने पर झूम कर गा उठता है, और वह जो कुछ गाता है, अनायास ही लोक गीतों की सृष्टि कर लेता है।
जन्म से ही जहाँ उसका जीवन आरम्भ होता है, वहाँ जन्म पूर्व ही माँ के हृदय में मातृत्व जाग जाता है। पिता का वात्सल्य फूट पड़ता है, वहाँ सामाजिक सम्बन्ध ननद- -भौजाई भी अपनी आनंद की अभिव्यक्ति करने लगती हैं । यदि हम लोक गीतों को जन्म संस्कार से जोड़कर आरम्भ करें, तो यह जन्म के पूर्व से ही नवागत की तैयारी के, उसके मंगल की कामना, नवप्रसूता के स्वास्थ्य की हिदायतों व रक्षा के लिये देवी – देवताओं की मनौती के गीत गाये जाने लगते हैं।
बुन्देली लोकगीतों का स्वाभाविक सृजन यहाँ की प्रकृति, परिवेश व जनमानस की संवेदनाओं के आधार पर हुआ है। जन्म संस्कारों के अवसरों पर गाये जाने वाले गीतों में संचत, सोहरे, बधायें, सरिया, कुआँ पूजन, झूला गीत, पासनी, मुंडन आदि के गीत शामिल किये जा सकते हैं ।
संचत या अठमासी
संचत शब्द संतति का ही अपभ्रंश रूप है। मातृत्व स्त्री जीवन की सार्थकता है। इसलिये स्त्री के मातृत्व रूप को भव्य और कल्याणकारी माना गया है। गर्भविधान की अवस्था में बुन्देलखण्ड में सातवें, आठवें व नवे माह में ओली भरने का रिवाज है । इस अवधि में गर्भवती नारी के लिये विभिन्न प्रकार के पकवान बनाये जाते हैं । संचत गीत गाये जाते हैं। इस अवसर पर आस-पड़ोस की स्त्रियाँ एकत्र होकर मांगलिक गीत गाती हैं ।
इन गीतों में प्रमुख रूप से गर्भवती स्त्री को इस प्रकार की शक्ति दी जाती है कि इस समय वह विशेष सावधानी का आचरण करे और प्रसव वेदना को आनंद के साथ सहज रूप से सह ले । इस सन्दर्भ में बुन्देलखण्ड में जो गीत गाये जाते हैं तथा ओली भरने का जो नेग होता है, उसे ‘आगन्ने’ का नेग कहते हैं। वैदिक संस्कृति में इस संस्कार को ‘पुंसवन’ अथवा ‘सीमन्तोन्नयन’ कहा जाता है। इस अवसर पर बुन्देलखण्ड में अनेक प्रकार के गीत प्रचलित हैं, जो गर्भवती स्त्री को सावधानी बरतने, खुश रहने व अपना ध्यान रखने और उसकी कुशलता से सम्बन्धित है।
सुकुमारी धना दौजी की भरी
पैया तुमारे हो रहे भारी
झमक चढ़ौ न अटारी
सुकुमारी धना दौजी की भरी
कह दो पिया से जाये बजरिया
ल्यावे सौंठ गुर की परिया
सुकुमारी धना दौजी की भरी ।
मास गये फिंह के घर लालन
फूटें झिरे सूखे तालन
सुकुमारी धना दौजी की भरी ।।
उपर्युक्त गीत में गर्भवती स्त्री को सम्भल कर चलने, अटारी पर सावधनी से चढ़ने की सीख दी है, ताकि किसी प्रकार का अनिष्ट न हो सके। साथ ही इस गीत में उसके स्वास्थ्य की रक्षा के लिये आवश्यक वस्तुएँ बाजार से लाने को कही गई हैं। गोद भरने के अवसर पर गर्भवती महिला सोलह श्रृंगार कर दुल्हन की तरह शर्मीली, सजीले मनोभावों के साथ परिवारजनों के मध्य चौक में बैठती है ।
उसे मखाने व नारियल के गोले की माला उसकी ननद पहनाती है, फिर उसके ऊपर भीगे हुये चने को उड़ेला जाता है, उसे मिठाई खिलाई जाती है। परिवार और आस-पड़ोस की महिलाएँ बारी-बारी से टीका लगाकर उसकी मेवे, मिठाई व फल से गोद भराई करते हैं। महिलाओं द्वारा मंगल गीत गाये जाते हैं। देवर द्वारा उसके कान में बाँसुरी बजाई जाती है। सास द्वारा उसके कान में कोई अच्छी बात या मंत्र का उच्चारण किया जाता है । अन्य महिलाओं द्वारा मंगल गीत गाये जाते हैं-
होन लगी गोद भराई, लालन के आवन की
सुरहन गऊ के गोबर मंगाये
दिगधर भुअन लिपाई – लालन के….
चन्दन चौकी बैठकर दीनी
मोतियन चौक पुराई,
लालन के….
हीरा मोतियन के हरवा पहिनाये
रेशम धोती बहुरिया पेराई,
लालन के…..
नरियल बतेसा सेव मोसम्बी
सात बरन की मिठाई मंगाई,
लालन के…
मोहरे दो मोहरे ससुर लुटाबे
अंगना होन लगी है नचाई,
लालन के…
आठमासी गोद भराई का उद्देश्य बच्चे के जन्म के पूर्व से ही आगत का स्वागत करना, खुशियाँ मनाना व गर्भवती महिला को हर्ष पूर्ण वातावरण प्रदान करना होता है, ताकि वह शारीरिक व मानसिक रूप सुदृढ़ बने।
चरुआ
जब नवशिशु का आगमन हो जाता है, तब स्त्री ( जच्चा ) को चरुआ का पानी पिलाया जाता है । चरुआ या चढ़वा का है – कोरे मिट्टी के मटके के ऊपर हल्दी चावल उस पर गोबर लगाकर दूब चिपकाई जाती है, फिर उसमें पानी भरकर जड़ी-बूटियाँ (जायफल, अजवाइन, पीपरा) आदि डाली जाती हैं।
इस पानी को चूल्हा जलाकर उबाला जाता है, फिर ठण्डा होने पर इस पानी को जच्चा को पिलाया जाता है, और इस रस्म को घर की कोई बुजुर्ग महिला करती है, और इस अवसर पर महिलाओं द्वारा ढोलक की थाप पर ‘सोहर’ गाये जाते हैं । सोहर शब्द संस्कृत के ‘सूतिगृह और प्राकृत ‘सुरहर’ से बना है। जन्म के समय का आनंद इन गीतों की मूल प्रेरणा है। संसार में पुत्र जन्म से बढ़कर दूसरा कोई आनंद दायक समय नहीं होता ।
चढ़वा का दस्तूर सास मांगती है, अर्थात् नेग में अपनी बहू से कुछ उपहार माँगती है। इसी तरह ननद, देवरानी, जिठानी भी नेग माँगती हैं। इन गीतों में हँसी-मजाक का पुट ज्यादा होता है, ताकि महिला की प्रसव पीड़ा कम हो जाये और मन नवजात शिशु की ओर लग जाये । एक गीत-
तारो लगाये कुची ले गये बलम बम्बई खाँ चले गये ।
आई सास रानी चढ़आ चढ़ाई
चढ़आ चढ़ाई नेग माँगे, बलम बम्बई….
लरका तुमाये गये हैं परदेश में
मोय कछु नई दे गये बलम बम्बई…
आई जिठानी लड्डू बनाई,
लड्डू बनाई नेग माँगे, बलम बम्बई…
देवरा तुमाये जिठनी गये हैं परदेशन…
मोय कछू नई दे गये, बलम बम्बई…
आई देवरानी भोजन बनाई
भोजन बनाई नेग मांगे, बलम बम्बई…
जेठ तुमाये छोटी गये हैं परदेशन,
मोय कछु नई दे गये – बलम बम्बई…
ननदी आई काजर आंजी
काजर अंजाई ने मांगे, बलम बम्बई…
वीरन तुमाये बिन्ना गये हैं परदेशन मोय
कछु नई दे गये बलम बम्बई…
देवर आये गगरी उतारी,
गागर उतराई नेग मांगे, बलम बम्बई…
भैया तुमाय लाला गये हैं परदेशन,
मोय कछु नई दे गये बलम बम्बई…
संग की सखियाँ सब जुरआई
सोबर गबाई नेग मांगे, बलम बम्बई…
घर के घरैया गये हैं कमाउन
चार दिन की कै गये, बलम बम्बई…
बुन्देलखण्ड के इस ‘सोहर’ गीत में जच्चा अर्थात् बच्चे को जन्म देने वाली महिला कहती है कि सास, जेठानी, देवरानी, ननद, देवर, पड़ोसन आप सबको मैं क्या नेग दूँ, बच्चे के पिता तो तिजोरी में ताला लगाकर चाबी अपने साथ लेकर बम्बई चले गये हैं और मुझे कुछ भी नहीं दे गये हैं । उनके आने पर ही इस नेग को दिया जाएगा । बुन्देलखण्ड के गाँव में आज भी महिलाएँ ढोलक, मंजीरे की थाप पर इन गीतों का आनंद उठाती हैं, तथा लोक संस्कार को जीवित रखे हुए हैं।
दस्टोन
शिशु जन्म के सातवें या दसवें दिन चौक या दस्टोन की रस्म होती हैं, जिसमें कच्चा खाना बनाया जाता है। कढ़ी, चावल, बरा, दाल, रोटी, पापड़ आदि बनाया जाता है, और उसे जच्चा को खिलवाया जाता है। सारे सगे-सम्बन्धियों को बुलाया जाता है । माँ बच्चे को गोद में लेकर चौक में बैठती है । चौक से तात्पर्य है- जमीन गोबर से लीपकर आटा, हल्दी, कुमकुम से चौक पूरना, उसके ऊपर पटा रखकर बाजू में घी का कलश रखकर, पटे पर जच्चा शिशु को गोद में लेकर बैठती है । इस अवसर पर गाया जाने वाला गीत-
आज दिन सोने को महाराज
सोने को सब दिन सोने की रात
सोने के कलस घराओ महाराज
आज दिन सोने…
गइआ का गोबर मंगाओ बारी सजनी
ढिंग दे अंगन लिपाओ महाराज
आज दिन सोने को महाराज
ढिग गोबर लिपाओ बारी सजनी
मोतिन चौक पुराओ महाराज
आज दिन सोने को महाराज
मोतिन चौक पुराओ बारी सजनी
चंदन पटरी उराओ महाराज
आज दिन सोने को महाराज
चंदन पटरी उराओ बारी सजनी
इमरत अरघ दुआओ महाराज
आज दिन सोने को महाराज
इमरत अरघ दुआर औ बारी सजनी
जसुदै चौक ल्याओ महाराज
आज दिन सोने को महाराज
चौके ल्याकै पूजा कराओ
लालन कठे लगाओ महाराज
आज दिन सोने को महाराज
बधायें
चौक या दस्टोन के अवसर पर ही बच्चे की बुआ बच्चे के लिये वस्त्र, आभूषण, लड्डू, बताशे, फल आदि व अपनी भाभी के लिये वस्त्र लाती है, इसे बधावा कहा जाता है। बुआयें मिलकर बधावे के साथ ढोल – बाजा लेकर घर आती हैं और इस अवसर पर महिलाएँ विशेष प्रकार का नृत्य करती हैं, यह नृत्य बधावा कहलाता है। बुन्देलखण्ड में बधावा नृत्य के समय न्यौछावर भी की जाती है, जिसे वहाँ उपस्थित बजाने वाले व अन्य मिलकर बाँट लेते हैं। इस अवसर पर महिलाएँ गीत गाती हैं-
ननदी मोरी आज छम-छम नाचे
ननदी मोरी सूते कपड़ा न लइयो
रेशम को है मोरे रिवाज
ननद मोरी पीतर के जेवर न लइयो
सोने को है मोरे रिवाज
ननद लोहे को पलना न लइयो
चंदन को है मोरे रिवाज
ननदी मोरी ढपला बजाऊत न अइयो ।
शहनाई को है मोरे रिवाज
ननदी मोरी रसगुल्ला न लइयो
बताशा को है मोरे रिवाज ।
काजर अंजारे
इस अवसर पर जो चौक पर दीया जलाया जाता है, ननद उसके ऊपर काँसे का बर्तन रखकर काजल बनाती है, फिर उसे बच्चे को लगाती है, जिसका भी नेग भाभी को देना पड़ता है, इस अवसर पर गाया जाने वाला गीत
निकरो भौजी रानी अंगना
लेओ लालन की बधाई ।
काजर अंजाई भौजी लेहो कंगना
रूपइया लेओ काजर अंजाई ।
न दैहो ननद बैया कंगना ।
जे कंगना मोरे ससुरा की कमाई,
न देहौ ननद बैया कंगना ।
अठन्नी ले लो ननदी काजर की अंजाई
चवन्नी ले लो ननदी, काजर की अंजाई ।
कंगना तो भौजी फिर मिल जेहै,
जुग-जुग जिये मोरे भाई भौजाई ।
दुबारा आहौ भौजी तोरे अंगना
लेओ लालन की बधाई ।
इस तरह ननद-भौजाई का हास-परिहास बुन्देलखण्डी गीतों में भरा पड़ा है, पर अंत में ननद बिना किसी मोह के भाई व भौजी के भलाई का ही आशीर्वाद देती है । परम्परानुसार जो बधावा लेकर आते हैं, उनका मान-सम्मान होता है, भोजन करवाया जाता है और जाते समय श्रद्धानुसार विदाई में उपहार दिया जाता है।
कुआँ पूजन
शिशु जन्म के लगभग एक माह पश्चात् कुआँ पूजन किया जाता है। कुआँ पूजन के दिन से प्रसूता को घर से बाहर निकलने की मिल जाती है। इस दिन घर व बाहर की पाँच या सात सुहागिनें उसके साथ पानी भरने कुएँ पर जाती है । प्रसूता के पुत्र होने पर कुएँ की जगत पर गोलाकार सात बार लीपती हैं और पुत्री होने पर पाँच बार, फिर उस पर चौक पूरती हैं – हल्दी, गुड़ व चावल से पूजा करती हैं ।
प्रसूता अपने स्तन से पाँच, सात बूँदे कुएँ में दूध निचोड़ती एवं प्रार्थना करती है, जैसे आप भरे पूरे हैं । वैसे मेरे ये स्तन भी बच्चे के लिये दूध से भरे-पूरे हों। इसके बाद कुएँ से पानी भरती हैं। इस समय कुआँ पूजन के गीत गाये जाते हैं।
इस अवसर पर पानी लेकर जब अपने घर जाती हैं, तो रिवाज है कि देवर गगरी उतारता व नेग माँगता है, घर के अन्य पुरुष नहीं जाते। प्रसूता अपनी गगरी देवर से उतारने का आग्रह करती है, देवर उनसे अपना नेग माँगता है, यह रस्म बड़ी रसिक होती है, तब महिलाएँ गाती हैं-
बुलाये दइयो लाला खाँ सैया ।
गगरी उतारें आयें।
जब लाला मोरी गगरी उतारें,
सो देतौ नेग तुमायें।
गगरी तुमारी जबई उतारें,
जब देह मुहरै हजार ।
हजार मुहरै लाला कुछ नाहीं
सोने की हमेल देऊँ गढ़वाये
तुम वीरन राजा बुन्देला के
काहै खाँ मन भरमाये ।
बातन में भौजी हम न आवी ।
ऐसेन में ठाड़ी रेहौं बोझ उठाये।
परसाल ब्याव करवा दें तुमारे,
अब काहे खाँ शरमाये ।
हमें चाने प्रेम तुमारी,
तुम हम खाँ दये हम पाये।….
बुलाये दइयो लाला खाँ सैया,
गगरी उतारै आये।
बुन्देलखण्ड में बच्चे की बुआ पहली बार बच्चे को झूले में लिटाती है, तब उसे उसका नेग दिया जाता है । यहाँ का प्रसिद्ध लोरी या झूला गीत है-
सोजा-सोजा बारे वीर,
वीर की बलैयों लें गई जमुना के तीरे
सोजा – सोजा बारे वीर….
काहे से बाँधों पालना, काहे की बाँधी डोर,
को जो झूला झूलन बैठो, कैसे टूटी डोर।
सोजा – सोजा बारे वीर……
आम से बाँधों पालना, पीपर से बाँधी डोर,
मोरो कनैया झूलना बैठो, टूट परी लम डोर ।
सोजा-सोजा बारे वीर…..
ताती – ताती खीर बनाई, ओई मैं डारो दूध,
दो कौर खाने भैया मोरा, जुड़ा जाये जी ।
सोजा – सोजा बारे वीर…
ताती-ताती खिचड़ी बनाई, ओई में डारो घी,
दो कौर खाले भैया मोरो जुड़ा जाये जी।
सोजा – सोजा बारे वीर…
को जो सोबे कौन सोवाबे, कौन लेत बलईयाँ
कनैया सोबे सखियाँ सुवाबे, मैया लेत बलईयाँ
सोजा- सोजा बारे वीर..
नामकरण
यह रस्म आदिकाल से प्रचलित है । परम्परानुसार नामकरण बच्चों को संस्कारवान बनाता है। नाम के अनुरूप बच्चे में सद्गुणों के संस्कार आते हैं । इस रस्म में बुन्देलखण्ड में गाया जाने वाला गीत
आज अवध में पंडित आये,
दशरथ सुत के नाम धराये ।
माथे तिलक देत रघुवर
रामलला नाम धराये ।
लखन, भरत, शत्रुघन नाम धराये।
देवी-देवता सबई हरसाये ।
नर-नारी उठ सज आये ।
आज ललन के नाम धराये ।
दुआरे – दुआरे बंधे बंधन वारे ।
कौसल्या दसरथ के सुत कहाये ।
आज अवध के पंडित आये ।
नामकरण की प्राचीन परम्परा है। आज भी यह रस्म बरकरार है, अब यह रस्म उत्सवों में बदल गयी है ।
पासनी और मुण्डन
बुन्देलखण्ड में बच्चा जब अपने मामा के घर जाता है तो वहाँ उसका अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है, जिसे पासनी कहा जाता है। सामान्यतः पासनी छह माह के बाद कभी भी की जा सकती है। बुन्देलखण्ड में जनमानस में यह विश्वास है कि मामा के घर पासनी होने पर बच्चा कभी भूखा नहीं रहता है ।
पासनी के बाद मुण्डन संस्कार होता है । बुन्देलखण्ड में चूड़ाकरण संस्कार को मुण्डन कहते हैं । प्राय: एक वर्ष होने के पूर्व ही बच्चे का मुण्डन कर दिया जाता है। कभी-कभी देवी देवताओं के स्थान पर ले जाकर (विशेष मनौती होने पर) या फिर घर पर ही बुलऊआ देकर नाऊ को बुलाकर मुण्डन करवाया जाता है। आस-पड़ोस की महिलाएँ गाना बजाना करती हैं, बताशे बँटवाये जाते हैं। यहाँ विशेषतः एक वर्ष के पूर्व अथवा तीसरे वर्ष की आयु में मुण्डन संस्कार अवश्य करवा दिया जाता है ।
मुण्डन पूर्व बच्चे के सिर बालों को झालर कहते हैं । मुण्डन होने के पश्चात् बच्चे की झालर को आटे की लोई लपेटकर किसी नदी में सिराया जाता है । पासनी मुण्डन के अवसर पर विशेष तौर पर सोहरें ही गाये जाते हैं, किन्तु कभी-कभी मुण्डन के विशेष गीत भी सुने जाते हैं-
ललन की झालर उतराई,
भौजी ले हो मैं सोनो को कंगना ।
आओ ननद बैया बैठो अंगना,
तोय हाथन पैहराहाँ मैं कंकना
कहना सिराई लालन की झालर
कौना ले गई ककना ।
बेतवा नदिया सिराई लालन की झालर,
ननद बैया लै गई ककना ।
कौना उतारी लाला की झालर,
कौना दये ककना।
गाँव के नाई ने झालर उतारी,
जुग-जुग जिये मोरे भैया भौजइया,
जुग-जुग जिये भौजी व ललना ।
पट्टी पूजन
बालक-बालिका जब चलने-फिरने लगते हैं, बोलने लगते हैं, तब विद्यालय भेजने के पूर्व पट्टी पूजन की परम्परा है, जिसका उद्देश्य बच्चे में पढ़ाई के प्रति रूचि जाग्रत करना है।
पठन चले रिसी घर रघुराई
अल्पायु विद्या सब पाई
छोटी-छोटी पइयाँ ठुमक चले रघुराई,
मातु कौशल्या बलिहारी लेवे
छबि मन में समाई
दशरथ गोद रघु आन बिराजे
मनई – मनई मुसकाई
पढ़न चले रिसी घर रघुराई
अल्पकाल बुद्धि सब पाई
ललना खाँ पट्टी मंगाई स्कूल जावे खों।
हरदी कुमकुम से पट्टिका पूजई ज्ञान जात जराई ।
पढ़न चले रिसी घर रघुराई अल्पकाल बुद्धि सज पाई ।
कनछेदन
बाल्यकाल में बालक-बालिकाओं के कान में स्वर्ण या चाँदी तथा ताँबे की तारनुमा बाली से छिद्र किया जाता है, तथा बालिकाओं के नाक में नथ पहनाई जाती है । बुन्देलखण्ड में यह संस्कार बड़ी धूमधाम से होता है। आस-पड़ोस की महिलाओं को बुलाकर वसंत पंचमी, दशहरा या किसी अच्छे दिन पर यह संस्कार करवाया जाता है ।
यहाँ ऐसा माना जाता है कि अगर बच्चा बहुत जिद्दी है, उसे बहुत गुस्सा आता है तो कनछेदन से उसके जिद्दीपन व गुस्से में कमी आती है । बालिकाओं में कनछेदन व नाक में छेदन का प्रमुख उद्देश्य सुन्दरता बढ़ाना होता है। साथ ही विवाह होने के पूर्व यहाँ लड़कियों की नाक छिदी होना आवश्यक होता है । यह रस्म उत्सव के रूप में सम्पन्न होता है। महिलाओं को बताशे बाँटे जाते हैं, तब महिलाएँ यह मंगल गीत सुखद जीवन की कामना करते हुये गाती हैं-
रूई फोहा से कान लला के मखमल से हाथ लयो ।
छिदना होले होले करियो
तनकई ने लला रूलैयो ।
मखमल से हाथ लगैयो ।।
सोने की सूजी अतर में डूबी ।
खुशबू सुधा बहलैयो।
मखमल से हाथ लगैंयो ।।
जनेऊ संस्कार
बुन्देलखण्ड में पासनी, मुण्डन, कनछेदन संस्कारों के बाद लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया जाता है, जिसे बरुआ भी कहते हैं। यज्ञोपवीत में सभी रीति-रिवाज विवाह के समान होते हैं, बस बारात नहीं जाती । यह संस्कार विशेष रूप से ब्राह्मणों में किया जाता है। लगभग सात से ग्यारह वर्ष की उम्र में होता है। आजकल यह संस्कार विवाह के समय एक दिन पूर्व ही किया जाने लगा है।
बरूआ के अवसर पर आस-पड़ोस की महिलाएँ रिश्तेदार सभी सीधे का सामान लेकर आती हैं (आटा, दाल, चावल व पैसा)। लड़के के कानों में गायत्री मंत्र फूंका जाता है और वैरागी का वेश धारण करवाया जाता है, पैर में खड़ाऊँ पहनाई जाती है, पंडित के कर्म-धर्म निभाने की शिक्षा दी जाती है। लड़का वैरागी बन कर जब घर से जाने लगता है, तो सभी उसे दान देते है, जिसमें दाल, चावल, आटा, दान-दक्षिणा आदि दी जाती है।
फिर बहिनें व भाभियाँ मिलकर उसे मनाती हैं कि तुम वैराग्य मत धारण करो । बहिन ( शादी-शुदा ) कहती है कि हम तुम्हारी शादी करवायेंगे, तुम घर छोड़कर वैराग्य मत धारण करो, इस तरह यह संस्कार बड़े ही रोचक ढंग से सम्पन्न होता है। और यह संस्कार वर्तमान में मात्र एक रस्म बनकर रह गयी है महिलाएँ यह गीत गाती है-
वीरन राजा कमण्डल लै, घर से निकरन न दैहौं ।
काशी के लोग बड़े अविश्वासी काशी नगरी जान न देहौं ।
माथे हौं खोरे काढ़ो राजा वीरन, चंदन तिलक लगान न देहौं ।
वैजयंती माला गरे में डारो । तुलसी के माला पहिरन न देहौं ।
हाथों में घड़ियाँ बाँधो राजा वीरन, कमंडल हाथन में लेन न देहौं ।
घर लौट आओ वीरन हमारे काशी नगरी जान न देहौं
इतई पाठ शाला पढ़न जइयो काशी पढ़न जान न देहौं ।
यह गीत बतलाता है कि वेदशास्त्रों को पढ़ने तुम बाहर न जाकर इसी घर में रहकर शास्त्रों का ज्ञान लो और मन, वचन कर्म में जनेऊ धारण करके नियमों का पालन करो। अपने माता-पिता की सेवा करते हुये गृहस्थ जीवन का पालन करो ।आज भी बुन्देलखण्ड के गाँव-गाँव में यह संस्कार किये जाते हैं । आज जरूरत है इन गीतों को सहेजने की, इनका मनन चिंतन करने की, ताकि समाज में व्याप्त विकृति दूर हो सके ।
बुन्देली लोक संस्कार