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हमारो दान दैबे, तुम खड़ी रहहु ब्रजनारी

Hamaro Dan Daibe Tum Khadi Rahahu Brajnari
हमारो दान दैबे, तुम खड़ी रहहु ब्रजनारी।। टेक।।

नित प्रति आनि दही तुम बेचौ, जा ब्रज-गाँव मझारी।
को जाने कित जावो चली तुम, दान नित को मारो।। 1।।

ऐसी बात कहहु जिन मोहन, आवत जात सदाई।
कबहुं न दीन्हो दान दही को, तुम नई रीत संचारी।। 2।।

यौवन की रस माती ग्वालिन, कहै न बात सम्हारी।
सब दिन लिन्हों दान दही को, तुम नई बेचनहारी।। 3।।

हम जानी है तुम्हरे दिलकी, अब जो चाहत गिरिधारी।
तिन बातन से भेंट नहीं है, मैं बरसाने की नारी।। 4।।

जो तुम बसो गाँव बरसाने, तो तुम निपट गँवारी।
लैहों छीन सबै रस गोरस, लूटि लेऊँ यह सारी।। 5।।

लूटनहारे आज अनोखे, छैल भये गिरिधारी।
जाय कहौं मैं कंसराज सें, तुमहि बात बिंगारी।। 6।।

कंस कौ करौं विनाश क्षण में, यह कछु बात न भारी।
यह इतनो परताप लला को, चोरी करत चपारी।। 7।।

सब ग्वालिन मिलि हमहिं छुड़ायें, जब बाँधे महतारी।
लीला हेत उलूखल बाँधे, भक्ति हेत पग धारी।। 8।।

मसलि-मसलि भव-सागर तारों, दंत कथा विस्तारी।
इतनी सुनि नागरि हँसि के, लै गोरस कर-धारी।। 9।।

नागर नवल प्रेमसों लीन्हों, दोऊ कर-कमल पसारी।
जो यह शब्द सुनैं और गावैं, तात न तापन जारी।। 10।।

दास ‘मुकुन्द’ बिना जप योगे, मिले सो कुंज बिहारी।
हमारो दान दैबे, तुम खड़ी रहहु ब्रजनारी।। 11।।

नटखट कृष्ण गोपिकाओं से कहते हैं कि Hamaro Dan Daibe हमारा दान देने तक तुम यहीं खड़ी रहो। तुम सब प्रतिदिन ब्रज-गाँव के (मझारी-बीच में) बीच में आकर दहि बेचती हो। तुम हमारा हमेशा का दान मारकर जाने कहां चली जाती हो? तुम्हारा क्या भरोसा। गोपिकाएँ नाराज होकर कहती हैं – ‘हमने कभी भी किसी को दही का दान नहीं दिया। तुम ये नई रीति चला रहे हो।’

नटखट कृष्ण प्रतिउत्तर में कहते हैं – ‘अरी ग्वालिनों, तुम अपने यौवन के मद में बात सम्हाल कर नहीं कर रही हो। हमने सब दिन यहाँ दही का दान लिया है। तुम कोई नई बेचनहारी हो?’ गोपिकाएँ कहती हैं – ‘हमने तुम्हारे हृदय की बात जान ली है। हे गिरधारी! अब जो तुम चाहते हो हम जान गये हैं। हमसे अभी तक तुम्हारी मुलाकात न हुई थी। मैं (राधा) बरसाने गाँव की रहने वाली हूँ। समझे।’

कृष्ण कहते हैं – ‘बरसाने गाँव की हो! तो सचमुच तुम निपट गंवार हो। मैं तुम्हारा सारा रस, दूध एवं दही आदि लूट लूँगा।’ राधा कहती है – ‘आज अनोखे लूटनहार मिले हैं। इस लूट-पाट के लिए गिरधारी ही छैला हो गये। मैं कंसराज से तुम्हारी शिकायत करूँगी कि पहले तुमने ही बात बिगाड़ी है।’’ कृष्ण कहते हैं – ‘यह तो कोई बड़ी बात नहीं है। मैं तो क्षण भर में कंस का विनाश कर दूँगा।’ गोपिकाएँ कहती हैं-‘यदि इतना ही तुम्हारा प्रभाव है तो चोरी-चकारी क्यों करते फिरते हो? वो दिन भूल गये जब यशोदा मैया ने रस्सी से बांध दिया था, तब हम ग्वालिनों ने ही तुम्हें छुड़ाया था।’

कृष्ण कहते हैं- ‘वो तो लीला के लिए, खेल के लिए मुझे मैया ने उलूख से बांध दिया था और भक्ति के लिए मैं पग-पग चलकर उसे घसीटता रहा। इस तरह मैंने कई लोगों को भवसागर से पार किया। इन कथाओं का बहुत विस्तार है। इतना सुनकर गोपिकाओं ने हँसते हुए मोहन को दान देने की बात कही। श्याम सुन्दर ने बड़े ही प्रेम से अंजुरी भर कर दूध पिया। जो कोई भी इन शब्दों को सुनेगा उसे किसी भी प्रकार का ताप न तपायेगा और न जलायेगा। स्वामी मुकुन्द दास जी कहते हैं कि मुझे तो बिना किसी योग और तप के श्री कुंजबिहारी मिल गये हैं।

रचनाकार – श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय 

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