बुन्देलखंड मे भाँड़ों के लोकनाट्य को भँड़ैती या कहीं-कहीं नकल कहते हैं। प्रदेश में Bundelkhand ki Bhadenti के अलग मंच भी थे और अन्य लोक नाट्यों मे भी इनका प्रयोग होता था। ‘भाण’ लोकनाट्य भँड़ैती का ही शास्त्रीय रूप था और भाण का यह परिभाषित रूप ही आगे चलकर भँड़ैती-परम्परा में और भी विकसित हुआ है। भँड़ैती का प्रचलन काफी पुराना है, क्योंकि उसकी लोकधर्मी परम्परा ही नाट्यशास्त्र में उपरूपक के रूप में स्थान पा सकी।
बुन्देलखंड की भँड़ैती परम्परा
बुन्देलखंड मे भँड़ैती का उद्भव
आदिकाल में ‘स्वाँग’ उत्कर्ष पर रहा, पर चन्देल-नरेश कीर्तिवर्मनदेव-कालीन (1060-1100 ई.) श्रीकृष्ण मिश्र का नाटक प्रबोध चन्द्रोदय और परमर्दिदेव-कालीन (1165-1203 ई.) वत्सराज-कृत कर्पूरचरित से स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि भँड़ैती का अस्तित्व था। दिल्ली सल्तनत के समय दरबारों में भाँड़ों का महत्त्व बढ़ गया था, इसी वजह से मध्ययुगीन बुन्देलखंड में भी भँड़ैती का विकास हुआ, क्योंकि मुगल बादशाहों के दरबारी रिवाज बुन्देले राजाओं ने भी अपनाए थे।
तुलसीकृत दोहावली की पंक्ति चोर चतुर बटपार नट, प्रभुप्रिय भँडुआ भंड में भंड या भाँड़ को स्वामी का प्रिय बताया गया है। केशवकृत रामचन्द्रिका में कहूँ भाँड़ भाँड़यो करै मान पावैं। कहूँ लोलिनी बेड़िनी गीत गावैं। से पता चलता है कि भँड़ैती (भाँड़्यो) का 17वीं शती के प्रारम्भ में अधिक सम्मान था। हर राज्य या रियासत में प्रसिद्ध भाँड़ों को अनेक सुविधाएँ देकर प्रश्रय दिया जाता था। बाद में तो वे राजसी मनोविनोद के अनिवार्य अंग बन गए थे।
होली, दशहरा, वर्षगाँठ, विवाह आदि विशिष्ट अवसरों पर जब दरबार लगते थे, तब महफिल में भँड़ैती का प्रदर्शन अनिवार्य-सा था। यहाँ तक कि सामनतों, रईसों के घरों में भी कलाकारों के साथ भाँड़ों को भी उचित स्थान मिलता था। रियासतों के समाप्त होने पर ये लोकनाट्य समाप्त होते गये । प्रसिद्ध कलाकार या तो किसी संगीत, कीर्तन-मंडली में शामिल हो गए हैं या दूसरे व्यवसाय करने लगे हैं।
भँड़ैती का प्रदर्शन
भँड़ैती का मंच कोई भी खुला मैदान, चबूतरा या कुछ ऊंची सतह की जगह होता है। कभी-कभी बडे कक्ष या सभा-भवन में भी उसे मंचित किया जाता है। उसके लिए किसी सज्जा या सामग्री की आवश्यकता नहीं है। उसके पात्रा भाँड़ भी कोई श्रंगार नहीं करते। भाँड़ अपनी शिष्टता, वाक्पटुता, हाजिरजवाबी और चुटीले हास्य के लिए इतनी प्रसिद्धि रखते हैं कि उनके अभिनय पर सामान्यतः कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगता।
संगीत की लयकारी और नृत्य की गतियों तक में ऐसी महारत कि उनमें कुछ-न-कुछ ऐसी विशेषता फूटती जो हास्य की अनुभूति कराती। विदूषक और विट का समन्वित अवतरण, जिसमें कवि, नर्तक और संगीतज्ञ का हुनर हो।
भँड़ैती की विषय वस्तु
मंच पर दो या अधिक भाँड़ों के आते ही लोकनाट्य शुरू हो जाता है। एक भाँड़ आते ही कुछ कहने लगता है और उसकी बात पकड़कर दूसरा उसे आगे बढ़ाता है। इसी तरह कथा आगे बढ़ती रहती है। यद्यपि कथानक का सूत्र बहुत छोटा होता है, पर कथावस्तु बहुत गहरी और तीखी होती है।
हास्य-विनोद के भीतर चुटीला व्यंग्य छिपा रहता है और उस पर व्यंग्य-धारा में समाज, धर्म, राजनीति, श्रंगार, वीरता आदि के पाखंड, विसंगतियाँ आदि द्वीपों की शक्लों में उभरकर आदमी के मन में जम जाते हैं। कथा केवल विवरणो और संवादों के रूप में चलती है, पर पूर्णतया कल्पित और स्वच्छन्द होती है। संवादात्मकता अभिनय की रीढ़ बनकर आती है और भाँड़ मात्र वार्तालाप का सहारा लेता है।
कभी वह एकालाप (मोनोलोग) की तरह स्वयं उसके संवाद कहता है और कभी दो या तीन भाँड़ एक-दूसरे से संवादों के द्वारा लोगो का मनोरंजन करते हैं। कभी कथा में सरसता के लिए गीत या पद का गायन, विविध छन्दों का पाठ और हास्य व्यंगो का उपयोग किया जाता है, तो कभी प्रश्नोत्तर शैली में अनोखी मौलिकता गुँथी होती है।
भँड़ैती के पात्र,चरित्र और अभिनय
पात्र या पात्रों का अभिनय हाव-भाव के प्रदर्शन में होता है। यह सही है कि नाटक-जैसे कार्य-व्यापार भँड़ैती में कम होते हैं, पर आंगिक और वाचिक अभिनय में उसकी समानता मुश्किल है। कभी-कभी जब भाँड़ों की इच्छा होती है तब भँड़ैती के बीच स्वाँग की बुनावट कर दी जाती है। इस कारण नाट्य-शैली की दुर्लभ बानगी से दर्शक अभिभूत हो जाते हैं।
बहरहाल, भँड़ैती की प्रस्तुति में जितना भी अभिनय जरूरी है, वह बिना किसी रिहर्सल के लाजवाब होता है। सब कुछ प्रकृतिक और मौलिक। अगर एक भाँड़ के लड़के का विवाह दूसरे भाँड़ की लड़की से होता है, तो रात भर का अखाड़ा जमता है। मध्ययुग के अखाड़ों में भँड़ैती का प्रमुख स्थान रहा है। उस समय बुन्देलखंड में बहुत अधिक भाँड़ थे और दरबारी तथा लोक-स्तर पर भँड़ैती करने में कुशल थे।
दोनों रूपों में एक दिशा थी प्रशस्ति, बधाई आदि की और दूसरी थी विनोदमूलक प्रसंग या घटना के विवरण के माध्यम से किसी विषमता, विसंगति और भेदभाव के खिलाफ सूक्ष्म, किन्तु गहरे व्यंग्य की। भाँड़ों की कला इतनी मँजी हुई थी कि चोट चाहे व्यक्ति पर हो चाहे वर्ग या जाति पर, सब विनोद के मरहम से शीतल हो जाती थी, भले ही भीतर-ही-भीतर लम्बे समय तक कसकती रहे।
मतलब यह है कि भँड़ैती की धूर्तता, अशिष्टता और अश्लीलता के नीचे बैठा एक प्रभावी चेतना का अहसास उसे युग की सामाजिकता से जोड़ने के लिए पर्याप्त क्षमता रखता है, आधुनिक काल के व्यंग की तरह। लेकिन आज भँड़ैती के अर्थ का मतलब बदल गया है और उसका प्रचलन समाप्त-सा है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’