Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यBundeli Lokkavya Ka Udbhav बुन्देली लोककाव्य का उद्भव

Bundeli Lokkavya Ka Udbhav बुन्देली लोककाव्य का उद्भव

बुन्देली लोककाव्य का उद्भव भाषा की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। बुन्देलखंड में लोक भाषा में सृजन 11वीं शती से होने लगा था और Bundeli Lokkavya Ka Udbhav कम-से-कम डेढ़-दो सौ वर्ष पूर्व हुआ था।

मौखिक परम्परा में प्रचलित ‘आल्हा’ गाथा की रचना 12वीं शती के अन्तिम चरण में 1182 ई. के बाद और 1203 ई. के पूर्व हुई थी। निश्चित है कि ऐसे लोकगाथात्मक प्रबन्ध का सृजन लोककाव्य के उत्कर्ष को प्रमाणित करता है। इससे यह भी सिद्ध है कि इस उत्कर्ष के दो सौ वर्ष पूर्व  Bundeli Lokkavya Ka Udbhav  हो गया  था, अर्थात्  982  ई. या 10वीं  शती  के  अन्तिम  चरण से लोककाव्य का उद्भाव मानना उचित है।

बुन्देली लोक भाषा सृजन 11वीं शती

चन्देलों का पराभव (पतन) 1300  ई. से होता है, किन्तु ग्वालियर के तोमरों का उदय 15 वीं शती के प्रारम्भ में ही होता है। यह एक सौ वर्ष का अन्तराल जहाँ एक ओर सांस्कृतिक पतन का काल है। 1402 ई. तोमर राज्य की नींव पड़ी, पर उसकी स्थिरता और दृढ़ता 1424 ई. से आई। जब डूँगरेन्द्र सिंह गद्दी पर आसीन हुए। इन तथ्यों के आधार पर लोकसाहित्य का आदिकाल ई. 1000 से 1400 या 1420 तक मानना सर्वथा उचित है।

चन्देल-काल की धार्मिक स्थिति
धार्मिक दृष्टि से भी चन्देल राज्य की स्थिति समृद्ध थी। चन्देल नरेशों ने वैष्णव और शैव दोनों सम्प्रदायों को राजाश्रय प्रदान किया था। पराक्रमी यशोवर्मन बड़ा धर्मात्मा था, उसने खजुराहों में बैकुंठ मन्दिर का निर्माण करवाया था। खजुराहो, महोबा, तथा अन्य स्थानों में विष्णु मन्दिर बनवाए गए, जिनमें विभिन्न अवतारों को भी महत्त्व मिला।

परवर्ती चन्देल नरेश शैव थे और उन्होंने अनेक शिवमन्दिरों की प्रतिष्ठा की, जिनमें खजुराहो का कन्दरिया, विश्वनाथ, मृत्युंजय, महादेव, नीलकंठ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। उन्होंने शैव होते हुए भी कट्टर शैवों और कट्टर वैष्णवों की एकता पर ध्यान दिया। शक्ति-पूजा और उपासना का विकास दुर्गा, काली, शारदा देवी के मन्दिर तथा चैंसठ योगिनी, मनिया देवी के मन्दिरों से स्पष्ट है। सूर्य-पूजा का भी प्रचार था।

परमर्दिदेव के समय रचित वत्सराज के रूपकों में भी शिवपरक स्तुतियों से शैव धर्म की प्रधानता सिद्ध होती है, क्योंकि ‘समुद्रमन्थन’ में  ‘विष्णु  और ‘लक्ष्मी’ तथा ‘रूक्मिणी हरण’ में ‘‘मुरारिकृष्ण’’ की स्तुति से शैवों और वैष्णवों के बीच स्थापना का संकेत मिलता है। धार्मिक सहिशुण्ता चन्देलों का भूषण थी।

वत्सराज के रूपकों में दान महत्त्व की स्वीकृति रही है। उनके मत में राजा को दानी होना चाहिए। दान से दोषों का शमन होता है। धार्मिक कर्मकांड भी अधिक प्रचलित थे और लोग उन्हें अधिक महत्त्व देते थे। स्त्रिायाँ धार्मिक कृत्यों का अनुसरण-पालन करने में अग्रणी थीं, उनके कारण ही विजातीय आक्रमणों से रक्षा हो सकी।

चन्देल-काल मे ललित कलाओं की प्रगति
चन्देल-काल में ललित कलाओं की उन्नति चरम सीमा तक पहुँच गई थी। वास्तुकला और मूर्तिकला के नमूने और उनकी विशिष्ट अभिव्यंजन पद्धति ने ललित कलाओं के इतिहास में एक नवीन दिशा का उन्मेष किया था। खजुराहो की मूर्तियों में जहाँ जीवन और प्रकृति के विभिन्न रूपों का अंकन हुआ है, वहाँ उनका अंग-विन्यास, गठन, भंगिमा एवं अलंकरण, शिल्प के नए उपकरण प्रस्तुत करते हैं।

मान्मथ मूर्तियों में कामुक मुद्राएँ जीवन के आनन्द में लीनता की प्रतीक हैं, वह लौकिक आनन्द जो कि सूफियों की तरह आध्यात्मिक आनन्द की पहली सीढ़ी है। इन मूर्तियों के बाद एक साधु की आत्मानन्द में लीनता अंकित है, जो विकास की स्थिति का संकेत करती है।

वास्तव में, कलाकार ने वासना के अभिप्राय के लिए भी विविध मूर्तियों को गढ़ा है, जिनसे दुर्बल मानव का चित्रण हुआ है और कहीं सबल मानव का। मन्दिर के भीतर भी अकेली देव प्रतिमा आध्यात्मिक भावना का प्रतीक है। इस पर मन-मन्दिर का मनोवैज्ञानिक ढाँचा बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। मूर्तिकला में इन प्रतीकों एवं अभिप्रायों की निजी विशेषता है।

स्थापत्यकला भी धर्म से प्रभावित है, चन्देलों के प्रासाद, बैठक, स्तम्भ, तड़ाग, दुर्ग का स्थापत्य उनके कौशल का प्रमाण  है। अभिनय-कला के विकास के कुछ प्रमाण मिलते हैं। महोबा के मदन सागर के बीच में एक रंगशाला निर्मित की गई थी, जिसके अवशिष्ट आज भी उसके वैभव की कहानी कहते हैं।

‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक कीर्तिवर्मन की कलचुरी कर्ण पर विजय के उपलक्ष में अभिनीत किया गया था। मन्दिरों के महामंडपों में अभिनय, नृत्य और संगीत के आयोजन होते थे। खजुराहो की मूर्तियों में संगीत और नृत्य के दृश्यों से तत्कालीन उन्नति का परिचय मिलता है।

स्पष्ट है कि चन्देलयुग में सभी कलाओं का समानान्तर विकास हुआ है। उनमें कल्पना की सूक्ष्मता, भावना की सरसता और विचारों की प्रौढ़ता का अद्भुत समन्वय हुआ है और यह समन्वयवादी प्रवृत्ति भौतिक, दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टिकोणों में भी प्रकट होती है, जो चन्देलकाल की अपनी मौलिकता है।

इस युग में शिक्षा और साहित्य के विकास की खोज महत्त्वपूर्ण है। मन्दिर और अग्रहार ग्राम शिक्षा के केन्द्र थे तथा विद्वान ब्राह्मण विद्या की उन्नति के लिए प्रयत्नशील थे।  विद्वानों को राज्य का संरक्षण  प्राप्त था और विद्वत्ता के कारण उन्हें उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था। वेद, वेदांग, साहित्य, दर्शन आदि विषयों में उच्चशिक्षा की व्यवस्था थी।

शिलालेखों में वेदांग के ज्ञाता ब्राह्मण  अभिमन्यु, सूक्ति-रचनाकार राम साहित्य-रत्नाकर एवं श्रुतिपारदर्शन बलभद्र, कविचक्रवर्तिन नन्दन आदि का उल्लेख है।  अभिलेखों की प्रशस्तियों से संस्कृत साहित्य के विकास का पता चलता है।

रूपककार वत्सराज एवं कृष्ण मिश्र के रूपकों से भी स्पष्ट है कि संस्कृत विद्वानों की भाषा थी। चन्देलनरेश परमर्दिदेव ने शंकर की स्तुति संस्कृति में रची थी। शिलालेखों की उत्कृष्ट कविताओं से कवियों की काव्यमर्मज्ञता एवं काव्य-सौष्ठव का आभास हो जाता है। महाराज गंडदेव और जगनिक के काव्य से हिन्दी कविता का उद्भव चन्देलयुग की उपलब्धि है।

चन्देल-काल मे लोकभाषा का विकास
लोकभाषा की उद्भावक परिस्थितियों, उसके आदिकालीन स्वरूप और विकास के इतिहास के सम्बन्ध में साहित्य के इतिहासकारों और भाषाविदों में कई भ्रान्तियाँ हैं। भारतीय संस्कृति और धर्म की गतिशीलता में ही लोकभाषा का उद्भव हुआ है। चन्देलों का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है।

चन्देलों के राज्यकाल में बुन्देलखंड की सभ्यता और संस्कृति अधोगति को प्राप्त नहीं हुई और न ही विजातीय संस्कृति का कोई प्रभाव पड़ा। अब तक सभी इतिहासकार यह मान चुके हैं कि काशी, कन्नौज और महोबा के दरबारों में भाषा-कविता का मान था।

इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के उपरान्त हिन्दी की लोकभाषाओं का उदय अपनी भाषा-सम्बन्धी विशेष परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। एक भाषा जब अत्यन्त परिनिष्ठित होकर शास्त्रीय और सीमाबद्ध हो जाती है, तो दूसरी भाषा तुरन्त विकसित होती है।

कला के उत्कर्ष में ग्वालियर तोमरकाल में एक प्रमुख केन्द्र था, जबकि मथुरा-वृन्दावन भक्ति और धर्म-भावना का स्फूर्ति केन्द्र था। जिस कला और साहित्य तथा उसके साथ भाषा का विकास ग्वालियर में हुआ, उसका धर्म में उपयोग मथुरा- वृन्दावन में हुआ और भक्ति के जागरणकाल में वह ब्रज से सम्बद्ध हो गया।

चन्देलों का राज्यकाल 9वीं से 13वीं शताब्दी तक पाँच सौ वर्षों की दीर्घ अवधि समेटे हुए है और इसी समय देशी भाषा का उद्भव और विकास हुआ। दूसरी बात यह है कि चन्देल साम्राज्य के अन्तर्गत लगभग पूरा मध्यदेश एवं दक्षिणी  भारत का कुछ भाग सम्मिलित था। तीसरे चन्देलों ने इस मध्यदेश की संस्कृति को जहाँ एकता और उत्कर्ष दिया, वहीं कला को अपने आश्रय में विकसित कर एक उत्कृष्ट ऊंचाई पर खड़ा कर दिया।

इसलिए उनके शासन-काल में देशी भाषा का विकास जल्दी हुआ और इतना ही नहीं, वह साहित्य या काव्य की भाषा के रूप में भी शीघ्र प्रतिष्ठित हुई।यद्यपि पश्चिम में भदावरी, ब्रजी और मालवी तथा पूर्व में बघेली बोलियाँ अपने स्वरूप धारण कर रहीं थीं, तथापि केन्द्र में बुन्देली का विकास हो चुका था। चन्देलों के राज्य की प्रमुख राजधानी महोबा, धार्मिक राजधानी खजुराहो और सैनिक राजधानी कालिन्जर थी। ग्वालियर (गोपगिरि, गोपाद्रि) और मथुरा तक का प्रदेश चन्देलों के अधीन था।

उस समय महोबा, खजुराहो और कालिंजर के क्षेत्रा की भाषा ही साहित्य या काव्य-भाषा के पद की अधिकारिणी हुई और पूरे राज्य में उसी का प्रचार-प्रसार हुआ। बाद में मध्यदेश की संस्कृति का केन्द्र ग्वालियर बना, जहाँ इस भाषा का द्वितीय उत्थान हुआ। भक्ति-आन्दोलन की चेतना से प्रभावित होने पर तीसरा केन्द्र मथुरा- वृन्दावन रहा, जहाँ इस भाषा को तृतीय उत्थान में एक व्यापक प्रसार मिला।

इससे सिद्ध है कि बुन्देलखंड के दोनों केन्द्रों में लगभग 16वीं शताब्दी तक जो भाषा पल्लवित, पुष्पित और परिष्कृत होती रही तथा काव्य-भाषा के रूप में मान्य रही, वही मध्यकालीन काव्य की भाषा कही जा सकती है। इसलिए उसे मध्यदेशीय न कहकर बुन्देली मानना ही न्यायसंगत है।

महाराज गंडदेव की 1023 ई. में देशी भाषा या बुन्देली में रचित एक कविता का उल्लेख इतिहास में मिलता है। जब 1023 ई. में बुन्देली भाषा में साहित्य की रचना होने लगी थी, तो यह निश्चित है कि उसके दो-डेढ़ सौ वर्ष पूर्व अर्थात 9वीं शती के प्रारम्भ में ही बुन्देली का आरम्भ हो गया था।

अन्य प्रदेशों से लगभग 2000 वर्ष पहले लोकभाषा के उदय का कारण  यह भी हो सकता है कि चन्देलों के शासन-काल में 9वीं शती से ही एक परिवर्तन का प्रारम्भ होता है और चन्देलों के इतिहास में उन्नति का वास्तविक प्रारम्भ एवं नए युग का सूत्रपात 910  ई. से होता है था

यशोवर्मन से तो (930  ई.-950) एक व्यापक परिवर्तन उभर आता है। बुन्देलखंड में बाहरी आक्रमणों  का ताँता-सा लग जाता है, अतएव उन आक्रमनों से अपनी संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए लोकभाषा एक अनिवार्य माध्यम बन जाती है।

चन्देल नरेश महाराज धंग के काल में निर्मित जिननाथ के  जैन मन्दिर का सं. 1011 (सन् 954 ई.) का अभिलेख है, जिसमें कुछ वाटिकाओं की भेंट का उल्लेख है। उनमें से एक वाटिका का नाम ‘‘धंगवारी’’ है।  जिसमें वारी शब्द संस्कृत की वाटिका या वाटी के लिए प्रयुक्त हुआ है और वह लोकप्रचलित बुन्देली का ही शब्द है।

इसी प्रकार अजयगढ़ के सं. 1243  (1186  ई.) के अभिलेख में ‘चैंतरा’ (चैत्रो) बुन्देली का प्रयोग है। इसी तरह सं. 1372 का अभिलेख संस्कृत में नहीं है।  तात्पर्य यह है कि बुन्देली का उदय 954  ई. के पूर्व 9वीं शती में हुआ था, क्योंकि अभिलेखों में उन्हीं शब्दों का प्रयोग होता है, जो मान्य हो जाते हैं। लोकभाषा में अभिलेखों की परम्परा निरन्तर गतिशील रही है।

बुन्देली लोक काव्य सृजन 

चन्देल-काल मे काव्य का विकास
बुन्देलखंड में काव्य का विकास कब से प्रारम्भ हुआ, यह निश्चित करना कठिन है और प्रादुर्भाव-काल में उसका क्या स्वरूप था, यह निर्धारित करना तो और भी कठिन है। किन्तु इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि हिन्दी में काव्य की रचना 11वीं शती से होने लगी थीं।

चन्देलनरेश महाराज गंडदेव(1002-1025  ई.) में 1023  ई. में चन्देलों और महमूद गजनवी के बीच सन्धि के समय सुल्तान की प्रशंसा में एक हिन्दी कविता भेंट की थी और उस कविता के भावों एवं भाषा से स्वयं सुल्तान तथा उनके साथ आए हुए कवि बड़े प्रभावित हुए थे। इतिहासकार एस.के. मित्रा ने निजामुद्दीन कृत तबकात-ए-अकबरी के वी.दे. द्वारा अनूदित अंश को उद्धत किया है, जिससे स्पष्ट है कि नन्द जो कि मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा महाराज गंडदेव के लिए ही प्रयुक्त किया गया है, ही बुन्देली हिन्दी का प्रथम कवि था।

गंडदेव ने एक वीर और दूरदर्शी शासक के रूप में 22-23 वर्षों तक राज्य-भार सँभाला और उसके राज्य के अन्तर्गत एक विस्तृत भूभाग था। पश्चिम में चम्बल नदी तक उसका अधिकार था। कन्नौज भी चन्दोलों के संरक्षण  में था। दक्षिण का कलचुरी शासक भी उनसे पराजित हो चुका था। चन्देलों की शक्ति का इतना प्रभाव था कि इतिहासकार गर्दिजजी ने लिखा है कि आक्रमणकारी सुल्तान महमूद भी एक बार भय से आक्रान्त हो गया था।

गंड की प्रमुख विशेषता यह थी कि उसने महमूद के आक्रमण के समय राष्ट्रीय संकट को पहचानकर द्वितीय हिन्दू-राज्य-संघ में प्रमुख योगदान दिया था। इतिहासकार स्मिथ ने तो कालिंजर के राजा गंड के स्वयं सम्मिलित होने का उल्लेख किया है। इससे सिद्ध है कि गंड के शासन-काल में राष्ट्रीय चेतना की जाग्रति और एकता की भावना थी।

1018 ई. में महमूद के कन्नौज के आक्रमण से भयभीत होकर भागने वाले कन्नौज-नरेश राज्यपाल को दंडित करने के लिए चन्देलनरेश ने राजकुमार विद्याधर को भेजा था। स्वयं चन्देलनरेश ने कालिंजर में महमूद का सामना किया। यद्यपि वह पराजित हुआ, किन्तु मुसलमानों के आक्रमण का अवरोध केवल चन्देल ही कर सके। इसमें सन्देह नहीं कि चन्देलों ने जिस ऐतिहासिक शौर्य का परिचय दिया, उससे दो सौ वर्षों तक मुसलमानों को चन्देलों पर आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ।

गंडदेव के उपरान्त चन्देलनरेश परमर्दिदेव (1165-1203  ई.) हिन्दी के विख्यात कवि माने गए हैं।  कालिंजर-शिलालेख (1201  ई.) के अन्त में उल्लेख है कि परमर्दिदेव ने भगवान मुरारि की स्तुति स्वयं लिखी थी। 13 वीं शती में रचित पाश्र्वदेव के ग्रन्थ ‘संगीतसमयसार’ से पता चलता है कि परमर्दिदेव मध्यदेशीय-संगीत-पद्धति में विख्यात थे, क्योंकि पाश्र्वदेव ने इस ग्रन्थ में कश्मीर के राजा मात गुप्त, धार के राजा भोज, अनहिलवाड़ के चालुक्यनरेश सोमेश्वर और महोबा के चन्देलनरेश परमर्दिदेव को प्रमाण  रूप में उद्धवत किया है।

अतएव परमर्दिदेव ने हिन्दी में पद-रचना अवश्य की थी, क्योंकि संगीत के आचार्य को पदरचना में भी दक्ष माना जाता है। यह भी निश्चित है कि परमर्दिदेव के राजाश्रय में पद रचनाकार थे, किन्तु उनकी रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं।

बुन्देली लोकभाषा में लोकगीतों का लोकप्रचलन भी 11वीं शती से हो गया था। सर्वप्रथम कथनशैली को केन्द्र में रखकर लोकगायकी के वे उदाहरण मिलते हैं, जो मानव की दैनिकचर्या से सम्बद्ध थे अथवा इष्टदेवता की भक्ति व्यक्त करते थे। इस शैली की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति कारसदेव की गोटें थीं, जिनमें चरागाही लोकसंस्कृति का वास्तविक वर्णन मिलता है।

दोहा को केन्द्र में रखकर दिवारी गीत, सखयाऊ फागें और उसकी लटकनिया को लेकर राई गीत प्रचलित हुए। ‘गाहा’ के आधार पर देवी गीत, राछरे और भक्तिपरक गाथाएँ रची गईं। चरागाही, ऐतिहासिक और वीरतापरक गाथाओं से इस युग को लोकगाथा-काल कहना अनुचित नहीं है।

मुक्तकों की परम्परा में संस्कारपरक, रक्षापरक और प्रेमपरक गीत अधिक लिखे गए, लेकिन परिस्थितियों के कारण वीररसपरक लोकगाथाओं की प्रधानता रही। ‘कारसदेव की गाथा’ में वीरता ही केन्द्रीय तत्त्व के रूप में महत्त्वपूर्ण रही है, लेकिन वह आल्हा गाथा की तरह सार्वजनिक नहीं हो सकी। जनकवि जगनिक भाट द्वारा रचित आल्हा गाथाएँ एक वीरगाथात्मक लोकमहाकाव्य का रूप ग्रहण कर लेती हैं, जिसे साहित्य के इतिहासकारों ने ‘आल्हखंड’ कहा है।

मौखिक परम्परा और विकसनशील प्रवृत्ति के कारण उसमें अनेक क्षेपक भले ही जुड़ गए हों और उसके स्वरूप में परिवर्तन भले ही आ गया हो, परन्तु यह सत्य है कि 12वीं शती में रचित यह कृति बुन्देली लोकभाषा में लिखी जाने के कारण सर्वोपरि महत्त्व रखती है और उसी को हिन्दी का प्रथम ग्रन्थ मानना समुचित है। वस्तुतः अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त यह कृति और उसके रचयिता जगनिक, दोनों बुन्देली और हिन्दी की उपलब्धि है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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