Homeबुन्देलखण्ड के त्यौहारBundelkhand ke Tyohar बुन्देलखण्ड के त्यौहार

Bundelkhand ke Tyohar बुन्देलखण्ड के त्यौहार

हमारा देश विविध परम्पराओं का देश है और इन परम्पराओं मे विभिन्न त्योहार होते  हैं। त्योहारों से हमारे जीवन में हर्ष और उल्लास का संचार होता है। बुन्देलखण्ड के त्योहार धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से समाज को बेहतर बनाने के लिये होते हैं। बुन्देलखण्ड के त्यौहार Bundelkhand ke Tyohar में कुछ परंपरागत कुछ धार्मिक अनुष्ठान और लोगों से भिन्न होते हैं। बुंदेलखंड की कुछ सांस्कृतिक परम्पराओं को आधार मानकर बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं।

त्योहार भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अवसरों पर मनाए जाते हैं। हर त्योहार का अपना विशेष महत्व और परंपरा होती है। उदाहरण के लिए, दीवाली खुशी और समृद्धि का प्रतीक है, जबकि होली रंगों और दोस्ती का त्योहार है। इसी तरह, रक्षाबंधन भाई-बहन के रिश्ते को मजबूत करता है

हिन्दुओं का नव वर्ष संवतसर से प्रारम्भ होता है। और चैत्र मास वर्ष का प्रथम मास होता है। होलिक दहन फाल्गुन की पूर्णिमा को सम्पन्न होता है।और चैत्र की प्रातिपदा से होली का रंगा रंग उत्सव प्रारम्भ हो जाता है।

भाई दूज-भ्रातृ दूज (भइया दोज)
यह त्यौहार चैत्र कृष्ण की द्वितीया को मानाया जाता है। इस उपलक्ष मे प्रत्येक घर के द्वार पर गाय के गोबर के द्वारा “दोजों” का निर्माण किया जाता है। इस दिन बहन भाई का तिलक कर मिठाइयां खिलाती हैं. और उनके दीर्घायु होने की मंगल कामना करती हैं। और भाई भी बहन का चरण स्पर्श कर उसकी सेवा का दायित्व अपने ऊपर लेता है।

गनगौर का पूजन 
चैत्र की शुक्ल त्रतीया को गनगौर का पूजन होता है. जिसमे स्त्रियां दिन भर व्रत करके शाम को पार्वती का पूजन करती हैं। और बेसन के विभिन्न आभूषण तथा गनगौर आदि बना कर पार्वती जी को चढाती हैं। बुंदेलखण्ड में यह त्यौहार बडी आस्था के साथ मनाया जाता है। सुहागवती स्त्रियां अपने सुहाग को कायाम रखने के लिये ये व्रत रखती हैं। और इस पूजन मे उनका अट्ल विश्वास रहता है। इस पूजन का प्रसाद पुरुषों को नही दिया जाता है। बुन्देलखन्ड मे यह कहावत भी प्रचलित है।
गनगौर के गनगौरा, पुरुष खाँय न एकउ कौरा।

पूजा के पश्चात बुजुर्ग स्त्रियां अन्य सुहागिनियों को कहानी सुनाती हैं। एक बार शिव-पार्वती वन मे विचरण कर रहे थे पार्वती को प्यास लगी वह पास ही एक सरोवर मे पानी पीने गयीं। अंजुली मे जल लेते ही उनके हाथ मे एक पुष्प आ गया।  जब दुबार जल लिया तो उनके हाथ मे दूर्वा (दूब) आ गई। यह देख वह आश्चर्य मे पड गई ,और बिना पानी पिये वापस आकर भगवान शिव को इस घटना के बारे मे बताया। तब भगवान शिव ने विचार मग्न हो पार्वती से कहा…।

आज तुम्हारे पूजन का दिन है। हर जगह सुहागिन स्त्रियां तुम्हारे पूजन को आतुर हैं। इस लिये आप इस वट-बृक्ष के नीचे बैठ जायें क्यों कि पूजन का समय हो गया है। भी स्त्रियों का समूह आपकी पूजा के लिये आने वाला है। पार्वती भगवान शिव बोली कि जो स्त्रियां मेरा पूजन करने आ रही है उनको देने के लिए मेरे पास कुछ नही है। तब भगवान शिव ने हंस कर कहा कि आप दाहिनी पैंती को कमंडल मे डाल दें कमंडल का जल अम्रित हो जायेगा। उस जल को पूजन को आई स्त्रियों के उपर छिड्क देना। जिससे उनको आजीवन सुहागिन रहने का वरदान मिल जायेगा।


श्री नवदुर्गा पूजन 
चैत्र शुक्ल 1 से 9वीं तक मन्दिरों और घरों मे नव दुर्गा का पाठ कराया जाता है। नौ दिन तक पूजन हवन किया जाता है। साथ ही जवारों का अधिक मह्त्व है। जो कि शक्ति का प्रातीक माने जाते हैं। साफ सुथरे घर मे जवारे बोये जाते है नौ दिन तक इनकी अर्चना-पूजा की जाती है। हवन और व्रत करते है। इन्हे दुर्गा का स्वरूप मान कर इनकी विशेष पूजा होती है।

नौ दिन की साधना के बाद नवें दिन इन जवारों का विशल एवं भव्य प्रदर्शन किया जाता है। लोग अपने-अपने जवारे शाम को बडे निराले ढंग से निकालते हैं स्त्रियां अपने सिर पर मिट्टी, ताम्बे,पीतल के कलश जवारों से सुसज्जित।भव्य श्रंगार के साथ लेकर चलती है। अलग-अलग दल के अलग-अलग जवारे निकलते हैं सबसे आगे दल का झंड होता है।

घर का मुखिया एक थाली मे जलता हुआ चौमुखा दीपक रख कर जवारों के आगे चलता है। इनके पीछे व्यक्ती अपने गालों और जीभ को छेद कर देवी जी का त्रिशूल(सांग) को लेकर चलते है। इन्हे गालों और जीभ पर छेदना एक प्राचीन कला है। इस कला मे एक आलौकिक विशेषता है कि उसमे रक्त की एक बूंद भी नही निकलती। और न ही दर्द होता है।

इन दलों का अखाडा भी होता है जिसमे लोग अनेक प्राकार के आश्चर्य् जनक प्रदर्शन करते है। जवारों के सम्बंध मे लोगों का विश्वास है कि जवारों की उत्पत्ति के अनुसार ही खेती का भविष्य होता है। लम्बे और हरे जवारे उत्तम उपज के सूचक माने जाते हैं। छोटे और पीले जवारे निम्न उपज के सूचक माने जाते हैं। जवारों के जुलूस मे गाये जाने वाले गीतों मे भक्ति भाव और आस्था का स्वरूप होताा है।

कैसे के दर्शन पाउं री,माई तोरी संकरी दुअरियां
माई के दुआरे एक भूको पुकारे,
देऔ भोजन घर जाउंरी
माई तोरी संकरी दुअरियां
माई के दुआरे एक अंधरा पुकारे,
देऔ नैना घर जाउंरी
माई तोरी संकरी दुअरियां
माई के दुआरे एक कोडी पुकारे,
देऔ काया घर जाउंरी
माई तोरी संकरी दुअरियां
माई के दुआरे एक बांझ पुकारे,
देऔ लालन घर जाउंरी
माई तोरी संकरी दुअरियां
कैसे के दर्शन पाउं री,माई तोरी संकरी दुअरियां
चैत्र सुदी अष्ट्मी को घर-घर दुर्गा देवी का पूजन होता है।और नवमी को जवारों का विसर्जन नदी और तालाब मे होता है।

रामनवमी 
चैत्र मे नवें दिन रामनवमी का पर्व मनाया जाता है। राम के जन्मोत्सव स्मृति मे इस दिन लोग व्रत रखते हैं। और मन्दिरों मे जन्मोत्सव बडी धूम धाम से मनाया जाता है। चैत्र शुक्ल 9 पुनर्वसु नक्षत्र मे दिन के 12 बजे मन्दिरों मे हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है।



अक्षय त्रतीया 
यह त्यौहार बैशाख शुक्ल की त्रतीया को मनाया जाता है। इसे अक्ती या अकतीज भी कहते हैं। इसमे घडा भरा जाता है तथा सत्तू,पंखा,जल,पूर्णघट दक्षिणा के साथ दान दिया जाता है। स्वनिर्मित गुड्डे-गुडियों की पूजा होती है। इस त्यौहार का पौराणिक स्वरूप है।

भगवान शिव समाधि मे लीन थे।कामदेव ने उन्हे समाधि से विचिलित कर दिया। तब भगवान शिव ने क्रोध मे आकर अपना तीसरा नेत्र खोल कामदेव को भस्म कर दिया रति की विशेष याचना पर भगवान शिव ने भस्म हुए कामदेव को अनंग का जीवन अछ्य अभय वरदान के रूप मे दिया। तभी से यह त्यौहार वैशाख शुक्ल की तीज को मनाया जाता है।



बरसात तथा सवित्री व्रत 
यह पर्व ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या के दिन् मनाया जाता है। सौभग्यवती महिलायें इस दिन सवित्री का व्रत रखती हैं। इस व्रत मे दिन भर उपवास किया जाता है। और बरगद की पूजा करतीं है। इसके पश्चात बिना नमक का भोजन ग्रहण करती है।

गंगादशहरा 
यह त्यौहार ज्येष्ठ शुक्ल पछ की दसवीं के दिन मनाया जाता है। दस प्रकार के पाप होते है जो इसी दिन गंगा मे स्नान करने से नष्ट होते हैं।

निर्जला एकादशी 
यह व्रत ज्येष्ठ शुक्ल पछ की एकाद्शी या ग्यारस के दिन मनाया जाता है। इस वृत मे स्त्रियां पूरे दिन बिना जल गृहण किये रहती हैं.इसमे वृत मे भगवान शिव कि पूजा होती है।


अषाढ मास वर्षा के प्रारम्भ होते ही वन देवी- वन देवताओं क पूजन होता है।

गुरू पूर्णिमा 

इस पर्व मे शिष्य अपने श्रद्धा सुमन चढा कर गुरु का पूजन करते हैं और भविष्य के लिये आशिर्वाद प्राप्त करते हैं।



श्रावण मास मे भगवान शिव कि आराधना होती है। भगवान शिव पर बेलपत्र चढा कर पूजा करयते हैं।

सावन-तीज 

श्रावण शुक्ला तीज को बडे उल्लास के साथ झूले का उत्सव मनाया जाता है.मन्दिरों के अतिरिक्त घरों मे बाग-बगीचों मे झूले पड जाते हैं। नव युवतियां झूले पर झूलती हुई श्रावण के मधुर गीत गुन-गुनाती है।(गीत)

नागपंचमी 

नागपंचमी श्रावण सुदी पंचमी को होती है। इस दिन नाग देवता की पूजा होती है। उन्हे दूध पिलाया जाता है। सर्प पूजन की प्रथा तब से चली आ रही है जब यहां महाराज हैहय का राज्य स्थापित था।

भुंजरियां अथवा कजलियां 
श्रावण शुक्ला नवमी को भुजरियां अथवा कजलियां बडे दोनो /टोकरी मे गेहूं बोकर उगाई जाती हैं और उसकी पूजा होती है। किसान और व्यापारी गेहूं के पौधों के इस स्वरूप से अपनी आर्थिक स्थिति ज्ञात करते हैं। भाद्र मास की प्रतिपदा को इनका नदी,तालाब या किसी जलाशय मे विसर्जन किया जाता है। स्त्रियां मंगल गान गाती हुई जलाशय जाती है।

रक्षा-बन्धन 
श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णमासी के दिन रक्षा-बन्धन का त्यौहार मनाया जाता है। इस त्यौहार मे बहने अपने भाईयों के हाथ मे राखी बांधकर उनके कल्याण की कामना करती है और अपनी रक्षा की जिम्मेदारी उन्हे सौंपती हैं। जब इन्द्र देवासुर संग्राम मे रक्षसों को पराजित करने के लिये प्रस्थान कर रहे थे तब गुरू बृहस्पति ने उनके हाथ मे रक्षा सूत्र बांधा था। आज भी यही परम्परा चली आ रही है। आज भी पुरोहित अपने यजमानों के हाथ मे रक्षा सूत्र बांधते हैं।


हर छट(हल छट) 
यह त्यौहार कृष्ण पक्ष की छ्ट को मनाया जाता है .इसमे स्त्रियां प्रातः काल से उपवास करती हैं और शाम को पलास के पत्ते पर चन्दन द्वारा एक पुतला (बलभद्र) बना कर और उसको जरिया(छोटे बेर का पेड) और कांस द्वारा बांध कर उसका पूजन करती हैं। और हल की जुती हुई वस्तु ग्रहण नही करती .इसमे झरियल समा के चावल ,सबूदाने की खीर,दूध,दही आदि खातीं है। पूजन मे भुना हुआ चना,ज्वार,बाजरा,मक्का,मटर ,जवा का भोग लगाया जाता है ।

श्रीकृष्ण जन्माष्ट्मी 
यह त्यौहार भादों कृष्ण पक्ष की अष्ट्मी को होता है.आज के दिन भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था,मन्दिरों और घरों मे झांकियां सजाई जाती है। कृष्ण का जन्म रात 12 बजे रोहिणी नक्षत्र मे सम्पन्न होता है। इस अवसर पर हर घर को गाय के गोबर से लीप कर पवित्र किया जाता है। घर के बडे-बूडे लोग व्रत रखते है और अर्ध रात्रि मे रोहिणी नक्षत्र आने पर परिवार के सभी व्यक्ति एकत्र हो श्रद्वा पूर्वक भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्सव मनाते हैं।

पूजा मे पहले बाल कृष्ण की मूर्ति को जल मे स्नान कराकर खीरा काटा जाता है। इसे नारा छीनना कहते हैं। फिर नये वस्त्र – आभूषण पहना कर सिंहासन पर बैठाया जाता है। प्रसाद मे गुड के लड्डू जिसमे सोंठ,
पीपरमूर,मेवा आदि मिला रहता है। और पंजीरी पंचामृत खीरा तथा मिष्टान आदि होता है। साथ ही एक प्रथा और भी प्रचलित है “दही हांडी” मिट्टी के पात्र मे दही, दूध, पंचमेवा भर कर उसके दोनो ओर रस्सी बांध कर किसी उंची जगह पर लटका दिया जाता है। इसे युवकों का समूह एक दूसरे के उपर चढ कर उसे उतारता है। उसे पुरस्कार मिलता है।


हरितालिका व्रत 
भादों शुक्ल पक्ष की तीज को यह व्रत रखा जाता है। यह व्रत निराहार रखा जाता है। इस त्यौहार मे भगवान शिव और पार्वती की पूजा होती है। इस व्रत मे अन्न,जल कुछ भी नही खाया जाता है। इस व्रत मे भगवान शंकर को पाने के लिये माता पार्वती की तपस्या का वर्णन है। हर स्त्री पार्वती के पद चिन्हों पर चलने का संकल्प लेती हैं। रात्रि मे शंकर-पर्वती का पूजन किया जाता है।

गणेश चतुर्थी (गणेश उत्सव)
भादों शुक्ल पक्ष की चौथ को यह त्यौहार मनाया जाता है गणेश जी की विशाल मूर्तियों का निर्माण होता है। इस दिन गणेश जी का प्रत्येक घर मे आगमन होता है।लोग व्रत रखते है पूजन करते हैं। स्तुति और प्रार्थना के साथ गणेश जी का घर मे प्रवेश होता है.मूर्ति की स्थापना एवं प्राणप्रतिष्ठा होती है।

मोराई छठ 
भादों शुक्ल पक्ष की छठ को यह पर्व मनाया जाता है। इस त्यौहार की विशेषता यह है कि इस वर्ष जिनका विवाह हुआ होता है उनकी “मौर” जलाशय मे विसर्जित की जाती है।

संतान सप्तमी 
यह पर्व भादों शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाया जाता है। इस त्यौहार मे महिलायें संतान के कल्याण की कामना करती हैं। इसकी प्रथा द्वापर युग से प्रचलित है महिलायें अपने हाथ मे चांदी कि सात लकीर वाली चूडियां या सूत के सात धागे हाथ मे बांधती हैं। इस त्यौहार मे सोने या चांदी की चूडी और सात पुआ रखकर शिव का पूजन किया जाता है

कहा जाता है कि इस व्रत की प्रथा द्वापर काल से प्रचलित है। इस कथा मे श्री कृष्ण ने स्वयं अपने मुख से देवकी के गर्भ से जन्म लेने की बात कही है। जो लोमश मुनि की मथुरा यात्रा से प्रारम्भ होती है। लोमश मुनि देवकी को यही व्रत रखने को कहते हैंमुनि की आग्य़ा मान कर देवकी भादों शुक्ल सप्तमी का व्रत और शिव का पूजन करती हैंजिसके फलस्वरूप श्री कृष्ण का जन्म होता है।


जल विहार 
यह त्यौहार भादों शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। वर्षा काल मे नदियों क जल अपवित्र कहा गया है।उसको पवित्र करने के लिये भगवान पहले अपने चरण पखारते हैं।जिससे वह पवित्र हो जाता है।और फिर वही जल मानव समाज के कार्य मे आता है। इसमे भव्य झांकियां सजाई जाती है। इन झांकियों मे भगवान विराजमान होकर नदी ,तालाब तक जाते हैं। वहां भगवान के चरण उस जल से पखार कर फिर सबको चरणामृत दिया जाता है।




पितृ पक्ष 
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से ही पितृपक्ष प्रारम्भ होता है। पितृ पक्ष मे अपने स्वर्गीय पूर्वजों का अह्वान कर उन्हे भोजन अर्पित करते हैंजिसे कौआ उठा कर ले जाते हैं। लोग नदी,तालाब के किनारे जाकर अपने स्वर्गीय पूर्वज जिस तिथि को वे स्वर्गलोक पधारे,उसी तिथि के अनुसार उनके लिये श्राद्ध,तर्पण,हवन,ब्राह्रम्ण आदि भोजन कराते हैं।

महालक्ष्मी व्रत 
आश्विन कृष्ण अष्टमी को महा लक्ष्मी व्रत तथा एरावत हाथी की पूजा होती है। इस व्रत को केवल सुहागिन स्त्रियां ही रखती हैं। दिन मे उप्वास कर दोपहर बाद मिट्टी के हाथी का बिधिवत पूजन किया जाता है। महालक्ष्मी के हाथी पूजन के अवसर पर पंडित जी कहानियां सुनाते हैं…

अमोती दमोती रानी

पोलापल पाटनगांव, मगरसेन राजा
बम्मन बरुआ कयै कानियां
हमसों काते, तुमसों सुनते
सोरा बोल की एक कानियां
सनो आमोती दामोती रानी
हाथी पूजिओ…….

मामुलिया 
यह त्यौहार आश्विन कृष्ण पक्ष मे होता है।इस त्योहार मे अविवाहित लडकियां बेर बृक्ष की डाली मे तरह-तरह फूलों से सजा कर अपने पडोसियों के द्वार पर जाकर गीत गाती हैं।

मामुलिया के आये लिवौआ
झमक चली मेरी मामुलिया
ल्याऔ ल्याऔ,चम्पा,चमेली के फूल
सजाऔ मेरी मामुलिया

नव दुर्गा (नव रात्रि) 
यह त्यौहार वर्ष मे दो बार मनाया जाता है। पहला चैत्र शुक्ल पक्ष मे और दूसरा आश्विन शुक्ल पक्ष मे आश्विन शुक्ल पक्ष की नव रात्रि को शारदीय महा नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। नव रात्रि मे दुर्गा पाठ,रामायण पाठ,यज्ञ हवन आदि सम्पन्न होते हैं नवमी के दिन जवारे निकलते हैंइस दिन वृत रखते हैं।

सुआटा 
यह त्यौहार आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और नवमी को समाप्त होता है। खास तौर पर यह त्यौहार कुंआरी (अविवाहित ) लडकियों का है। लड्कियां सुआटा की प्रतिमा मिट्टी से किसी दीवार पर बनाती हैं उसे कौडियों से सजाती है। दीवार के नीचे एक चबूतरा बनाया जाता है। फिर उसके उपर छोटा चबूतरा बनाते है। इस प्रकार अनेक छोटे चबूतरे के बाद अंत मे एक चौकोर स्थान बन जाता है। इस प्रकार बहुत सी सीडियां बन जाती हैं। जिस पर लड्कियां अपनी अपनी गौरइयां रखती है।

रोजाना सुबह 4 बजे सभी लडकियां नियत स्थान पर आ जाती हैं। उस स्थान को लीपती है और उस पर चौक पूरती है। वे एक दिये मे दूध लाती है जिसे सुआटा पर छिडकती हैफिर वो दूध किसी बालक को पडा बना कर पिला देती है।
कहा जाता है कि राजा हेमांचल के यहां कन्यायें जन्म लेते ही विलुप्त हो जाती थीजब राजा को इस रहस्य का पता लगा कि सुआटा नाम का रक्षस उसकी कन्यायों का भक्षण करता है। तभी से सुआटा को प्रसन्न करने के लिये उसकी पूजा का विधान बनाया गयासभी लड्कियां सुआटा के लिये गीत गाती हैं।

हेमांचल की कुंअरि लडायतीं
नारे सुआटा गौरी बाई मेरा तोर
झिलमिल हो झिलमिल तेरी आरती
महादेव तेरी पारती,को बाऔ नौनी
चंदा बाऔ नौनी सूरज बाऔ नौनी
नौने सलौने भौजी कंत तुमाये
बिरन हमाये झिलमिल हो…
सूरजमल के गुल्ला छूटे
चंद्रामल के गुल्ला छूटे
अपनी गौर की झांई देखो
झांई देखो,का पैरे देखो
माथे बैंदा देखो देखो
कानन तरका देखो
पराई गौर की झांई देखो
झांई देखो,का पैरे देखो
नाक नकटी देखो देखो
कानन बूची देखो

अष्ट्मी के दिन सुबह सुआटा की पूजा नही होती। शाम को ढिरिया मांगती है। एक घडे मे बहुत से छेद किये जाते हैऔर उसके अन्दर जलता हुआ दिया रखा जाता है जिसे सिर पर रख कर नृत्य करती हुई घर घर जाकर अनाज और पैसे मांगती हैं।

पूंछत पूंछत आये हैं नारे सुआटा कौन गली तेरी पौर
बडी अटारी बडे ढबा ,नारे सुआटा बडे तुमारे नाव
पौरन के भईया पौरिया नारे सुआटा खिरकिन मेले कुतवाल
औनन कौनन न फिरो नारे सुआटा डारो मडा मे हात
इतनी हर छट हमे दी नारे सुआटा इतने दुलैया तेरे पूत

नवमी के दिन सभी गौरा रानी का श्रंगार करती हैं। जिन लडकियों का विवाह हो जाता है उनका सुआटा उजया जाता है। और वे लडकियां गौर से भेंट करती है और अंतिम बिदा लेती है।
“नाय हिमांचल जू की कुंवर लडॉयती,
नारे सुअटा, गौरा देवी क्वांरे में नेहा तोरा।

बुन्देली में सुअटा का अर्थ बेढंगा है। शिवजी का स्वरुप बेढव है। यह लोकोत्सव बुन्देलखण्ड की मात्र कुआँरी कन्याओं के लिए आरक्षित है। इसमें देवी पार्वती की आराधना का स्वरुप कुंआरी अवस्था का ही है। सामान्य रुप से नौरता का अर्थ एक दैत्य था (सुअटा का भूत) जो कुंआरी कन्याओं को खा जाता था।

लड़कियों ने उससे प्राण बचाने के लिए माता पार्वती की आराधना नवरात्रि में की और वे सुरक्षित हो गयीं। यह कुंवारी कन्याओं का ही पर्व है। गौर का ही कुंवारा स्वरुप इसमें आया है। सामान्य गीतों में “”नारे सुअटा”” में वही भूतनाथ का विचित्र स्वरुप है जो गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में शिव विवाह के वर्णन में दूल्हारुपी शिव का लिखा है।
मूंगा मुसैला, चनन कैसी घैंटी, सजन ऐवी, बेटी।
दूर दिसंतर दई है गौरा बेटी, को तोय लियावन जैहे।
बुलावन जैहे, ले पियरी पहरावन जैहें।

दशहरा 
विजय दशमी अथवा दशहरा आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन यह त्यौहार मनाया जाता है। दशमी के दिन मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने रावण का वध किया था और विभीषण को लंका का राजा बनाया था। इस दिन मछ्ली और नीलकंठ के दर्शन अति शुभ माने जाते है.दशमी की रात अस्त्र-शस्त्र की पूजा होती है और इस दिन से शुभ कार्य सम्पन्न किये जाते है।

शरद पूर्णिमा 
यह त्यौहार क्वांर की शुक्ल पक्ष की पूर्णमासी के दिन मनाया जाता है। रात्रि को खुले स्थान पर कांस्य पात्र मे खीर या दूध भर कर रख दिया जाता है.उस पर चंद्र्मा की किरणे पडती है। प्रातः काल घर के सभी व्यक्ति उसे ग्रहण करते हैं। यह प्रथा चिर काल से प्रचलित है। धारणा है कि अश्विन शुक्ल पूर्णिमा से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक सुधाकर अपनी रजत रश्मियों द्वारा अमृत स्रावित करता है। जो संजीवनी शक्ति का संचारक है। यह बात अयुर्वेद भी सिद्व करता है।



करवा चौथ 
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चौथ (चतुर्थी) को यह त्यौहार मनाया जाता है इस दिन सुहागवती स्त्रियां बिना अन्न जल के ब्रत रहती हैं और रात मे चन्द्र्मा निकलने पर पूजा होती है उसके बाद ही कुछ ग्रहण करती है। पति की दीर्घायु की कामना से सम्पन्न होने वाले इस व्रत में भूमि पर अथवा दीवार पर आलेखन किया जाता है। इस आलेखन में समस्त प्रतीकों की उपस्थिति दिखायी देती है। रात्रि को महिलाओं द्वारा पूजन के समय प्रयुक्त पात्र (करवा) को विविध प्रतीकों, बेलों आदि से अलंकृत करती हैं।

धनतेरस 
कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस को ध्न तेरस मनाई जाती है। इस दिन बर्तन और आभूषण खरीदना शुभ माना जाता है। इस दिन आयुर्वेदिक प्रतिष्ठानो मे धनवंतरि जयंती मनाई जाती है।

दिवारी/दीपावली 
यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है।इस दिन मर्यादा पूरूषोत्तम राम बनवास की अवधि पूरी कर एवं रावण का वध कर ,लंका पर विजय प्राप्त कर अयोध्या आये थे। श्री राम के अयोध्या आगमन पर उनके स्वागत मे समस्त अयोध्या वासियों ने घी के दीपक जलाये थे। रात्रि मे लक्ष्मी पूजन होता है।

बुन्देलखण्ड की दिवारी
बुन्देलखण्ड की मिट्टी में अभी भी पुरातन परम्पराओं की महक रची बसी है। बुन्देलखण्ड की दिवारी समूचे देश में अनूठी है। इसमें गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण, संवद्धन, पालन के संकल्प का इस दिन कठिन ब्रत लिया जाता है। पौराणिक किवदंतियों से जुड़ी धार्मिक पवरम्पराओं के परिवेश में पूरे बुन्देलखण्ड में दीमालिका पर्व पर दीवारी गायन-नृत्य और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखती ही बनती है।

बुन्देलखण्ड मे दीवाली के मौके पर मौन चराने वाले “मौनिया” ही सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र होते हैं। मौन चराने वाले मौनियों के अनुसार द्वापर युग से प्रचलित इस परम्परा के अनुसार विपत्तियों को दूर करने के लिए ग्वाले मौन चराने का कठिन व्रत रखते हैं। यह मौन व्रत बारह वर्ष तक रखना पड़ता है। तेरहवें वर्ष में मथुरा व वृंदावन जाकर मौन चराना पड़ता है, वहां यमुना नदी के तट पर बसे विश्राम घाट में पूजन का व्रत तोड़ना पड़ता है।


शुरुआत में पांच मोर पंख लेने पड़ते हैं प्रतिवर्ष पांच-पांच पंख जुड़ते रहते हैं। इस प्रकार उनके मुट्ठे में बारह वर्ष में साठ मोर पंखों का जोड़ इकट्ठा हो जाता है। परम्परा के अनुसार मौन चराने वाले लोग दीपावली के दिन यमुना घाट में स्नान करते हैं। कुछ लोग यमुना-बेतबा के संगम स्थल में स्नान करने टेन से जाते हैं फिर विधि पूर्वक पूजन कर पूरे नगर में ढोल नगाड़ों की थाप पर दीवारी गाते, नृत्ये करते हुए उछलते-घूमते हुए अपने गंतव्य को जाते हैं।

इस दिन मौनिया श्वेत धोती ही पहनते हैं और मोर पंख के साथ-साथ बांसुरी भी लिए रहते हैं। मौनिया बारह वर्षों तक मांस व शराब आदि का सेवन नहीं करते हैं। मौनियों का एक गुरु होता है जो इन्हें अनुशासन में रखता है।

मौनिया व्रत की शुरुआत सुबह गौ (बछिया) पूजन से होती है। इसके बाद वे गौ-माता व श्रीकृष्ण भगवान का जयकारा लगाकर मौन धारण कर लेते हैं फिर गोधूलि बेला में गायों को चराते हुए वापस नगर-गांव पहुंचते हैं। यहाँ विपरीत दिशा से आ रहे गांव/नगर के ही मौनियों के दूसरे समूह से भेंट करते हैं और फिर सभी को लाई-दाना व गरी बतासा-गट्टा का प्रसाद सभी श्रद्धालुओं को वितरित करते हैं।

कई क्षेत्रों में मौनिया व्रत की शुरुआत गौ-क्रीड़ा से करते हैं गौ-क्रीड़ा में गाय को रंग और वस्रों से सजाकर एक बड़े पैमाने के घर में सुअर से लड़ाया जाता है। इसके बाद दिन भर मौन चारने के बाद शाम को गायों को लेकर सभी मौनिया गांव पहुंचते हैं और सामूहिक रुप से व्रत तोड़ते हैं। प्रकाश-पर्व में ही दीवारी गाने और दीवारी नृत्य की अपनी अनूठी परंपरा है। दीवारी गाने व खेलने वालों में मुख्यतः अहीर, गड़रिया, आरख केवट आदि जातियों के युवक ज्यादा रुचि रखते हैं।

दूसरे दिन दीवारी गाने वाले सैकड़ों ग्वाले लोग गांव नगर के संभ्रांत लोगों के दरवाजे पर पहुंचकर कड़ु़वा तेल पियाई चमचमाती मजबूत लाठियों से दीवारी खेलते हैं। उस समय युद्ध का सा दृश्य न आता है। एक आदमी पर एक साथ 18-20 लोग एक साथ लाठी से प्रहार करते हैं, और वह अकेला पटेबाज खिलाड़ी इन सभी के वारों को अपनी एक लाठी से रोक लेता है।

इसके बाद फिर लोगों को उसके प्रहारों को झेलना होता है। चट-चटाचट चटकती लाठियों के बीच दीवारी गायक जोर-जोर से दीवारी गीत गाते हैं और ढ़ोल बजाकर वीर रस से युक्त ओजपूर्ण नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। पाई डण्डा नृत्य 8-10 व्यक्तियों के समूह में विभिन्न प्रकार के करतब्य मजीरा-नगड़ियां के साथ दिखाते हैं।

नृत्य में धोखा होने से कई बार लोग चुटहिल भी हो जाते हैं। ज्यादातर चुटहिल होने वालों में “नैसिखुवा’ होते हैं। लेकिन परम्पराओं से बंधे ये लोग इसका कतई बुरा नहीं मानते हैं और पूरे उन्माद के साथ दीवारी का प्रदर्शन करते हैं। इन्हीं अनूठी परम्पराओं के चलते बुन्देलखण्ड की दीवारी का पूरे देश में विशिष्ट स्थान व अनूठी पहचान है।

गोवर्धन पूजा 
कर्तिक की शुक्ल पक्ष की परमा (प्रतिपदा )को गोवर्धन की पूजा होती है। इस अवसर पर मकान के आँगन में गोबर से गोबर्धन पर्वत बना कर उसी पर अन्य प्रतीकों को बनाया जाता है। भूमि अलंकरण के इस रूप में सारा चित्रांकन गोबर से ही किया जाता है। पूजागृह से जोड़े रखने की दृष्टि से गोधन के चित्र से लेकर पूजागृह तक खड़िया अथवा गेरू से दो समानान्तर रेखाओं को खीचा जाता है।

गोबर की प्रतिमा के बीच गाय,ग्वाला,खेत आदि बनाये जाते है। फिर चारो ओर मिट्टी के पात्रों मे पकवान भर कर परिक्रमा कर पूजन किया जाता है। इस दिन श्री कृष्ण ने अपनी दायीं हाथ की छिंगरी पर गोवर्द्वन पर्वत को उठा कर इन्द्र के प्रकोप से ब्रज मण्डल को बचाया था। इस दिन लोग अपनी गायों की पूजा करते हैं।

देवोत्थानी एकादशी/डोलग्यारस 
कर्तिक की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन देव उठते है।और इस दिन के बाद विवाह आरम्भ हो जाते है.इस दिन गन्ने की छांव मे भगवान विष्णु की पूजा होती है।

बैकुंठी चतुर्दशी 

कर्तिक की शुक्ल पक्ष की चौदस को बैकुंठी चतुर्दशी होती है। इस दिन तुलसी कि 108 परिक्रमा कर पूजा होती है।

राहस की पूने 
कर्तिक की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को रहस की पूने कहते है।महिलायें कृष्ण और राधा कि पूजा करती है।

कार्तिक स्नान 
कार्तिक मास कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष मे एक मास प्रातः काल महिलायें लोकगीत गाती हुई स्थानीय नदी या तालाब मे स्नान करने जाती हैं। स्नान करने के पश्चात गीले ही वस्त्रों मे रेणुका के ठाकुर(शालिगराम) स्थापित कर पूजन करती है। कार्तिक स्नान से पुन्य की प्राप्ति होती है ऐसी आस्था है।  इस अवसर पर जो लोकगीत गाये जाते हैं वे श्री कृष्ण की लीला सम्बन्धी एवं भक्ति भावना पूर्ण होते हैं



संकटा चतुर्थी व्रत 
यह व्रत अगहन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को रखा जाता है। इस व्रत को केवल स्त्रियां ही रखती हैं।संकट निवारण के लिये यह व्रत रखा जाता है।

श्री काल भैरव जयंती 
अगहन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को यह पर्व मनाते है। इसमे भैरव का श्रंगार किया जाता है। और इमरतियों का भोग लगा कर आरती उतारी जाती है। इस जयंती को शाक्त लोग मनाते हैं।

श्री राम विवाह जयंती 
यह पर्व अगहन मास के शुक्ल पक्ष के पंचमी को मनाया जाता है.मन्दिरों मे राम जानकी की प्रतिमाओं को प्रस्थापित किया जाता है। तेल चढाया जाता है। मंडप भी गाडा जाता है और फेरे भी पडते हैं। साथ भी पौनछक () आदि का वितरण भी किया जाता है।

मार्ग स्नान 

अगहन की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मार्ग स्नान किया जाता है.ये स्नान केवल स्त्रियां ही करती हैं।




मकर संक्रांति 
मकर-संक्रांति अधिकांश्तः पौष मे ही पडती है यह पर्व सूर्य के मकर राशि मे आने पर मनाया जाता है। जो कि 14 जनवरी को ही होता है। इसे बुडकी भी कहते है.इसमे तिल से स्नान कर खिचडी दान मे दी जाती है।




बडे गणेश 
माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को बडे गणेश की पूजा होती है। इस दिन गणेश जी का व्रत किया जाता है। तिल के लड्डुओं का भोग लगाया जाता है। सभी अपने कष्टों से छुटकारा पाने के लिये विघ्न विनायक से प्रार्थना करते हैं। उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।

बसंत पंचमी 

माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन बसंत पंचमी मनाई जाती है। इस अवसर पर सभी सरस्वती की आराधना करते हैं। विभिन्न विद्यालयों मे सरस्वती पूजन के साथ प्रसाद वितरण होता है।




शिवरात्रि 
यह त्यौहार फल्गुन कृष्ण पक्ष की चौदस के दिन मनाया जाता है.शिव रात्रि के दिन भगवान शिव का विवाह हुआ था.इस लिये सभी शिव जी के मन्दिरों मे भगवान शिव का श्रंगार किया जाता है। और बडे धूम धाम से उनकी बारात निकाली जाती है। लोग व्रत करते हैं। और उनकी पूजा करते है।

होलिका उत्सव 

फल्गुन की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह त्यौहार मनाया जाता है। होली के आठ दिन पूर्व होली काष्टक आरम्भ हो जाता है। हर घर मे गोबर द्वारा बरूले बनाये जाते हैं जिनके बीच एक छेद रखा जाता है। होली के दिन इन बरूलों की माला बना कर होलिका दाह करते है। और इसी आग मे छोटी छोटी गकडिया सेंक कर सभी को प्रासाद के रूप मे दी जाती है।

बुन्देलखण्ड के एरच की कथा है, हिरणाकश्यप की बहन होलिका भक्त प्रहलाद को अग्नि से जलाने से जलाने की दुर्भावना रखती हुई स्वयं ही जल कर भस्म हो गई और प्रहलाद को कुच भी नही हुआइस लिये होली का त्यौहार मनाया जाता है। इसका एक रूप नवन्नेषिट भी है,नये पके हुये धान्य की खुशी मे किसान यज्ञ करते है और बालें भून कर प्रसाद के रूप मे वितरण करते है। और यज्ञ के पश्चात रंग गुलाल की फाग खेलते है।

भाई दोज 


रंग पंचमी 
चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन मन्दिरों मे रंग पंचमी का उत्सव मनाया जाता है।


संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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