सनातन धर्म में Vat Savitri Vrat बरा बरसात का बहुत महत्व माना गया है । इस दिन महिलाएं प्रकृति के सबसे पवित्र वृक्ष बरगद जिसमें ब्रह्मा विष्णु महेश जी का साक्षात वास माना जाता है की पूजा और परिक्रमा कर अपने पति की स्वास्थ्य एवं लंबी उम्र की कामना करती हैं । ज्येष्ठ मास के कृ्ष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को वट-सावित्री व्रत किया जाता है। इस दिन सत्यवान सावित्री की यमराज सहित पूजा की जाती है।
इस दिन महिलायें पूरे दिन व्रत कर सायंकाल में फल का सेवन करती हैं । इस व्रत को करने से स्त्री का सुहाग अचल रहता है। सावित्री ने इसी व्रत को कर अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से जीत लिया था। इस दिन उपवासक को सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री-सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज कि प्रतिमा बनाकर धूप-चन्दन, फल, रोली, केसर से पूजन करती हैं और सावित्री-सत्यवान कि कथा सुनती हैं ।
वट सावित्री व्रत कथा
भद्र देश के राजा अश्वपति की पुत्री रुप में गुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने द्धुमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें पतिरुप में वरण कर लिया। इधर यह बात जब ऋषिराज नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे- आपकी कन्या ने वर खोजने में भारी भूल कि है। सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है परन्तु उनकी अल्पायु है। और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृ्त्यु हो जाएगी।
नारद जी की यह बात सुनते ही राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया। “वृ्था न होहिं देव ऋषि बानी” ऎसा विचार करके उन्होने अपनी पुत्री को समझाया की ऎसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं है।इसलिये अन्य कोई वर चुन लो। इस पर सावित्री बोली पिताजी- आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है, राजा एक बार ही आज्ञा देता है, पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते है।
कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रुप में स्वीकार करूंगी।सावित्री ने नारद से सत्यवान की मृ्त्यु का समय मालूम कर लिया था। अन्ततोगत्वा उन दोनौं को पाणिग्रहण संस्कार में बांधा गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में रत हो गई। समय बदला, ससुर का बल क्षीण होता देख शत्रुओं ने उनका राज्य छिन लिया।
नारद का वचन सावित्री को दिन -प्रतिदिन अधीर करने लगा। उसने जब जाना की पति की मृ्त्यु का दिन नजदीक आ गया है। तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरु कर दिया। नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकडी काटने के लिये चला गया, तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से अपने पति के साथ जंगल में चलने के लिए तैयार हो गई ।
सत्यवान वन में पहुंचकर लकडी काटने के लिये बृक्ष पर चढ गया। बृक्ष पर चढते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीडा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और बृक्ष से नीचे उतर गया। सावित्री अपना भविष्य समझ गई। तथा अपनी गोद का सिरहाना बनाकर अपने पति को लिटा लिया। उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारुढ यमराज को आते देखा।
धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिए। तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पडी। पहले तो यमराज ने उसे देवी-विधान समझाया परन्तु उसकी निष्ठा और पतिपरायणता देख कर उसे वर मांगने के लिये कहा। सावित्री बोली -मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे है। उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा -ऎसा ही होगा। जाओ अब लौट जाओ। यमराज की बात सुनकर उसने कहा-भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे -पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है। पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है। यह सुनकर उन्होने फिर से उसे एक और वर मांगने के लिये कहा।
सावित्री बोली-हमारे ससुर का राज्य छिन गया है। उसे वे पुन: प्राप्त कर सकें, साथ ही धर्मपरायण बने रहें। यमराज ने यह वर देकर कहा की अच्छा अब तुम लौट जाओ। परन्तु उसने यमराज के पीछे चलना बन्द नहीं किया। अंत में यमराज को सत्यवान का प्राण छोडना पडा तथा सौभाग्यवती होने के साथ साथ उसे पुत्रवती होने का आशिर्वाद भी दिया।
सावित्री को यह वरदान देकर धर्मराज अंतर र्ध्यान हो गये। इस प्रकार सावित्री उसी वट के वृ्क्ष के नीचे आई जहां पर उसके पति का मृ्त शरीर पडा था। ईश्वर की अनुकम्पा से उसके शरीर में जीवन का संचार होने लगा तथा सत्यवान उठकर बैठ गये। दोनों हर्षित होकर राजधानी की ओर चल पड़े । वहाँ पहुँच कर उन्होने देखा की उनके माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है। इस प्रकार सावित्री-सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहें।
वट सावित्री व्रत करने और इस कथा को सुनने से उपवासक के वैवाहिक जीवन या जीवन साथी की आयु पर किसी प्रकार का कोई संकट आया भी हो तो वो टल जाता है।
वट सावित्री व्रत पूजा विधि
इस दिन प्रातःकाल घर की सफाई कर नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान करें। इसके बाद पवित्र जल का पूरे घर में छिड़काव करें। बांस की टोकरी में सप्त धान्य भरकर ब्रह्मा की मूर्ति की स्थापना करें। ब्रह्मा के वाम पार्श्व में सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी प्रकार दूसरी टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियों की स्थापना करें। इन टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे ले जाकर रखें। इसके बाद ब्रह्मा तथा सावित्री का पूजन करें।
अब सावित्री और सत्यवान की पूजा करते हुए बड़ की जड़ में पानी दें। पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें। जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार परिक्रमा करें। बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें। भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर अपनी सास के पैर छूकर उनका आशीष प्राप्त करें।
यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं। पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें। इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करना न भूलें। यह कथा पूजा करते समय दूसरों को भी सुनाएं