इन्द्र अतिकाय और शक्तिशाली थे, लेकिन यक्ष भी विराट् काया और अपार शक्ति के स्वामी थे । इसलिए इस अंचल में Yaksh Kal Men Lok Devta यक्षदेव को ही प्रधान माना । यक्ष भौतिक समृद्धि प्रदान करने और अमरत्व का मंत्र देने में सबसे आगे थे । इन्द्र उनकी तुलना में नहीं ठहर सका । असल में, यक्ष धरतीपुत्रों से जुड़े थे, जबकि इन्द्र आकाशी देव थे।
बुंदेलखंड में निषाद जातियों का ही निवास था, अतएव यक्ष की लोकप्रियता स्वयंसिद्ध है । भरहुत के शुंगकालीन स्तूप और पवायाँ प्राप्त नागकालीन यक्षमूर्तियों से प्रमाणित है कि यहाँ ईसा की पाँचवी शती तक यक्ष-पूजा प्रचलित रही । पवायाँ का मणिभद्र यक्ष की मूर्ति के पाद पर अंकित अनेक नाम यक्षों की सामूहिक उपासना के साक्षी हैं । महाभारत की युधिष्ठिर और यक्ष की प्रश्नोत्तरी बुंदेली लोकगीतों में अवतरित हो गयी थी । चंदेलकाल में स्थापित मनियाँदेव का मन्दिर मणिभद्र यक्ष का ही मंदिर है, जिसका प्रमाण कवि हरिकेश के प्रबंध जगतराज की दिग्विजय में मिलता है।
तिहि समय ऐल विल पार्श्व मणि, दै चंदेल कहि हित सहित |
मणि देव यक्ष रक्षक सुपुनि, धन कलाप प्रति नित्य नित ।। ५०० ।।
जब-ससि चंद्रब्रह्म उपजाये, यज्ञ समय धनपति तहँ आये ।
पारस दै मणि देव यक्ष दै, अवनी पर दरसन प्रतक्ष दै ।। ६७३ ।।
दोनों उदाहरणों में मणिदेव यक्ष और पारस मणि का स्पष्ट उल्लेख है । पहले में प्रतिलिपिकार ने पारस या पार्स का पार्श्व कर दिया है, जो उचित नहीं है । पारस मणि की घटना लोकप्रचलित है, जिसका संबंध मणिदेव यक्ष से ही है, क्योंकि वे मणि के स्वामी हैं । मणिदेव का लोक प्रचलन में मनियाँदेव हो जाना सहज है ।
आल्हा’ गाथा में मनियाँदेव महोबे क्यार के द्वारा इसी लेकदेवता की वन्दना की गयी है । लेकिन इतिहासकार श्री वी. ए. स्मिथ के मत का अनुसरण करते हुए सभी इतिहासकारों ने उन्हें मनियाँदेवी (गोंड़ों की देवी) माना है और चंदेलों की कुलदेवी सिद्ध किया है । `दिग्विजय’ का रचना-काल 1722-23 ई. है, अतएव 18 वीं शती के प्रथम चरण तक यक्ष का देवत्व मान्य था।
महाकवि तुलसी दास ने विनयपत्रिका के 108 वें पद में ‘बीर’ (यक्ष) की आराधना को भक्ति का एक साधन माना है । इस जनपद में एक प्रचलित उक्ति है – गाँव-गाँव कौ ठाकुर गाँव-गाँव को बीर’, जिसका अर्थ है कि हर गाँव में पहले गोंड़ों के ठाकुर देव थे और फिर बीर (यक्ष) बाद में प्रतिष्ठित हुए । बीर के चबूतरे हर गाँव में बनते थे ।
आज भी लोकप्रसिद्ध है कि पीपल के वृक्ष में बरमदेव रहते हैं । उन्हें बिरबरम्ह भी कहा जाता है। बरम्ह या ब्रह्म शब्द के कारण लोग उन्हें ब्राह्मण मानने लगे, जबकि वह यक्ष के लिए प्रयुक्त होता था । ब्रह्ममह यक्षों के उत्सव के लिए प्रयुक्त होता था । यक्ष का पर्याय ब्रह्म ही था । मतलब यह है कि यक्ष का देवत्व 19वीं शती तक किसी-न-किसी रूप में बना रहा । यह बात अलग है कि यक्षों का उत्कर्ष 5वीं शती तक ही रहा है, उसके बाद उनका स्थान शिव ने सँभाला ।
यक्ष देव की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो उन्हें लोकप्रिय बनाने में सफल हुई हैं । पहली बात तो यह है कि यक्ष का रूप सुन्दर और अद्भुत होता है । यक्षिणी तो सौन्दर्य में अतुलनीय होती है । यक्ष की काया सुडौल और पुष्ट तथा शक्तिशाली होती है । यक्ष के विशेषणों के रूप में राजा, महत् और महाराज प्रयुक्त हुए हैं, जिनसे यक्षों की श्रेष्ठता प्रतिपादित होती है । यक्ष का पर्याय ब्रह्म उन्हें बहुत ऊँचाई पर खड़ा कर देता है । यक्षों का निवास ब्रह्मपुर कहा जाता है । लोक का विश्वास है कि यक्षों के पास अमृत है और धन का कोष भी ।
स्वास्थ्य और शक्ति की गवाह हैं महाकाय यक्ष प्रतिमाएँ । यही सब कुछ पाने के लिए यक्षपूजा प्रचलित हुई । गाँव-गाँव में यक्षों के चबूतरे बन गये । उन पर शंकुनुमा मिट्टी की यूही खड़ी कर दी जाती है, जिसका अवशेष आज भी अखाड़े की पट्टी में बच रहा है और जिसे पहलवान कुश्ती शुरू होने के पहले मिट्टी चढ़ाकर पूजते हैं । यक्ष – पूजा में पत्र – पुष्प, हल्दी – अक्षत्, दीप- गंध, प्रसाद और लोकगीत ही प्रमुख उपकरण हैं, जिनसे लोक की पूजा-पद्धति प्रारंभ हुई है और जो वैदिक पद्धति के प्रमुख सूत्रधार सिद्ध हुए हैं । प्रसाद के रूप में रोट का चूरना इस अंचल की अपनी विशेषता है ।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त