वैसे तो गुप्त-काल में ही पुराणों का लेखन प्रारम्भ हो गया था, लेकिन इस युग की सीमा 5 वीं शती से 10 वीं शती तक मानना उचित है । पुराणों में वैदिक देवताओं की ही प्रधानता है । कहीं-कहीं Pauranik kaal Men Lok Devta – लोकदेवों को भी महत्त्व मिला है । इन ग्रंथों की विशेषता यह है कि उन्होंने विभिन्न कथाओं के द्वारा एक देवता को लोकदव बनाने का महत्कार्य किया है ।
ये कथाएँ विभिन्न देवों के बीच समन्वय स्थापित करने की प्रमुख साधन हैं । तीसरे, उन कथाओं की मुद्रा और शैली लोककथाओं जैसी है, अतएव लोक ने उन्हें अपना लिया है । उनकी वजह से कई वैदिक देवता सहजतः लोकदेव हो गये हैं । उदयगिरि (विदिशा) और देवगढ़ (ललितपुर) के गुप्तकालीन मंदिरों में विष्णु और वासुदेव की पुराण समर्थित लीलाओं को उत्कीर्ण किया गया है । पुराणों में प्रमुख देवों से संबद्ध लोकदेवों का उल्लेख भी मिलता है ।
हर्ष-काल में शिव ही प्रमुख लोकदेव बने रहे । उनका विकास दो दिशाओं में हुआ । एक तो रौद्र-शक्ति के रूप में, जिसकी प्रतिनिधि दुर्गा, काली और चण्डिका थीं । बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ में शबरपूजित चण्डिका का वर्णन किया गया है । उन्हे रुधिर – बलि चढ़ायी जाती थी । दुर्गा की उपासना भी होती थी । कवि ने मातृभवनों में स्थापित मादृदेवियों और विशेष रूप में अम्बा देवी की पूजा का उल्लेख किया है । भैरों भी इसीलिए शिव के साथ लगे रहे ।
दूसरी दिशा थी योगसाधना की, जिसके फलस्वरूप शिव सबसे बड़े योगी बने और नाथपंथ के अनुयायियों ने योग को केन्द्रबिन्दु बनाकर एक अलग परम्परा खड़ी कर दी । महोबा का गुहा पर्वत गुखार या गोखागिरि गुरु गोरखनाथ की साधनाभूमि बना । चंदेल काल में युग वीर आल्हा ने युद्ध की वीभत्सता और हिंसा से प्रभावित होकर नाथपंथ की ही शरण ली थी । ‘आल्हा’ गाथा में वर्णित ‘कदली बन’ उसकी साधनाभूमि का प्रतीक है और अमर होना’ उसके गंतव्य का ।
कादम्बरी में सूतिका गृह के वर्णन में बहुपुत्रिका नामक देवी का अंकन द्वार पर, भगवती षष्ठी देवी और कार्तिकेय की मूर्तियाँ द्वार के दोनों ओर तथा साथ में दोनों पाश्र्व पर सूर्य और चन्द्र की आकृतियाँ बनाई गयी थीं । सूतिका गृह के भीतर पलंग के सिरहाने आर्यवृद्धा की मूर्ति स्थापित की गयी थी । इस अंचल में सूर्य, चन्द्र और स्वस्तिक की आकृतियाँ तो हमेशा बनती हैं ।
जच्चा के पलंग के सिरहाने ‘बेइया’ स्थापित की जाती है (सासो आबें बेइया धराबें ) । इधर छतरपुर के आस-पास तेल का `हाँतौ’ लगाया जाता है, जिसे ‘बेइया का हाँतौ’ कहते हैं । वृद्धा आया से ही बिहाई, बेइया अथवा बीमाता अथवा बैमाता बना है । वे शिशु का भाग्य लिखती हैं । उन्हीं से बच्चे के सुख-सौभाग्य की कामना फलवती होती है । बहुपुत्रिका लोकदेवी का प्रचलन अब अज्ञात सा है ।
चौक में भित्ति पर जिस देवी का आलेखन रहता है, उसे इस क्षेत्र में ‘जोति’ या ‘ज्योति’ लिखना कहते हैं । ज्योति का अर्थ है प्रकाश । वैसे बुंदेली में जोति’ न कहकर ‘जोत’ ही कहा जाता है और जोत या जोति, दोनों से बन सकता है । जोत का अर्थ ‘रस्सी’ या रस्सी जैसी लम्बाई है । भैयादूज के दिन ‘आसजोत’ जोरी जाती है, जिसका आशय यह है कि बहिन और भाई की आशा या सहारा की जोत (रस्सी या बंधन) जोड़ी जाती या लम्बी बनायी जाती है । अतएव जोत या जोति लिखना से तपत्पर्य या तो बच्चे की जीवन जोरिया (रस्सी) की रक्षक देवी से है या प्रकाशरूपी ज्ञान देने वाली से ।
इस प्रकार सूर्य, चन्द्र और दो लोकदेवियों की विद्यमानता स्पष्ट है । लक्ष्मी का प्रवेश यहाँ शुंगकाल (185 ई. पू. से 72 ई. पू.) में हुआ, गुप्त – काल में उनकी मान्यता बढ़ी और हर्षकाल में वे राजलक्ष्मी बन कगयीं । लक्ष्मी को भौतिक समृद्धि और धन का प्रतिक भी माना जाने लगा । इस तरह लक्ष्मी कई तरह के प्रतीकों से जुड़कर लोकदेवी की योग्यता रखने लगी थीं । पुराणों ने उन्हें लोक के और भी निकट ला दिया था ।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त