बुन्देलखण्ड की लोक-चित्रकला में Traditional Tattoo गोदना Godna का वर्णन न हो तो बात अधूरी सी प्रतीत होती है। गोदना अंग-रेखांकन है, जो आदिवासी और जन जातियों में अधिक प्रचलित है । व्यक्ति की कलाप्रियता की चरम सीमा गोदना है। शारीरिक सौंदर्य को बढ़ाने के लिये सुई की चुभन सहन करना गोदना का महत्व दर्शाते हैं। स्त्रियों की आभूषण प्रियता ही गोदना गुदवाने की प्रेरणा है।
पौराणिक ऐतिहासिक तथा धार्मिक सम्बंधों से जुड़ी गोदना प्रक्रिया के साथ अनेक लोक-विश्वास जुड़े हैं। Traditional Tattoo गोदना गुदवाने की सुदीर्घ एवं अविच्छिन्न परम्परा रही है। प्रकृति के प्रारम्भ में मानव ने गुहा चित्रों एवं शैल चित्रों का निर्माण किया किन्तु कालान्तर में शरीर के किसी अंग पर खुरचने या चुभने से लगने वाले चिन्हों से शरीर चित्रण का विचार मन में आया।
गोदना परा शक्तियों के प्रभाव को क्षीण या समाप्त करने के उद्देश्य से बनाये गये। स्त्रियां ही अधिकतर गोदना गुदवाती हैं । पुरूष तो केवल अपना नाम, फूल या देवता की आकृति चित्रित करवाते हैं। स्त्रियाँ शरीर अलंकरण, जादू टोने की सुरक्षात्मक जादुई लिपि या प्रजनन शक्ति को जागृत कर मातृत्व के भाव को उत्पन्न करने हेतु गुदवाती है।
गोदना के चिन्ह, समय के साथ विकसित होते गये। प्राचीन काल में सूर्य, चन्द्रमा गोदे जाते थे । कृषि युग में पदार्पण के बाद कुंआ, चूल्हा, टोकरी, चावल, अन्न के दाने, आम, सुपारी, ताड़ आदि के वृक्ष चित्रित किये जाते थे। स्थापत्य कला के विकास के साथ गोदना का भी विकास हुआ उसमें मंदिर, कलश, गुम्बद आदि भी बनने लगे।
वर्तमान में एक्यूपंचर चिकित्सा पद्दति से इसका गहन सम्बन्ध है। ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इण्डिया में वेरियर एल्विन के अनुसार – गौंड़ जनजाति में प्रचलित एक
पौराणिक कथा से Traditional Tattoo गोदने की उत्पत्ति ज्ञात होती है। महादेव शंकर ने एक बार सभी देवताओं को भोज पर आमंत्रित किया। भोज में एक गोंड देवता भी अपनी पत्नी सहित गये। सभी देवियाँ एक स्थान पर बैठी थीं। जब गोंड देवता जाने लगे तब अपनी पत्नी समझ देवी पार्वती के कंधे पर हाथ रख कर चलने को कहा। उनकी इस भूल से देवी पार्वती क्रोधित हो गईं।
महादेव शंकर इस भूल को जान गये थे इस कारण हँसने लगे। किन्तु पार्वती जी का क्रोध शान्त नहीं हुआ अन्त में उन्होंने युक्ति सोची कि यह भूल दोबारा न हो। पार्वती जी ने प्रत्येक जाति के लिये पृथक-पृथक गोदना अभिप्राय निर्धारित किये। इन अभिप्रायों को स्त्रियाँ के अंगों पर गुदवाया जिससे उनकी पृथक पहचान हो सके । तभी से सभी जाति की स्त्रियाँ गोदना गुदवाने लगीं। इस प्रकार संसार में गोदने का प्रचलन हुआ।
जन जातियों में यह विश्वास है कि संसार नश्वर है । मृत्यु के पश्चात् समस्त भौतिक वस्तुयें यहीं रह जाती हैं। केवल गोदना अलंकरण ही उसके साथ परलोक जाता है।
गोदना लिखने के लिये जिन वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है उनमें से प्रथम संकेत दूधी पौधे के दूध का प्रयोग गोदना में किया जाता है। सरई के वृक्ष के काले गोंद से भी गोदना लिखने के प्रमाण मिलते हैं इस प्रकार प्रारम्भिक गुदने अस्थाई प्राकृतिक साधनों से शुरू हुये। बाद में दूधी, आकोय, तोरिया, बियां, भिलवां काजल आदि के रसायन को सुइयों के माध्यम से, त्वचा की प्रथम सतह के नीचे तक प्रवेश कराने की क्रिया का अविष्कार हुआ ।
गुदना शरीर के खुले भाग में गुदवाये जाते हैं। कपड़े से ढके भागों में गोदना गुदवाना निषेध है। गोदना गोदने वाली को ‘गुदनारी’ कहते हैं। कई गुदने ऐसे हैं जिन्हें सभी जाति और जन-जातियों में गोदवाया जाता है। गुदनों की प्रचालन सदैव से रहा है। इसके पीछे अनेक धारणायें रही हैं।
मनुष्य सदैव कोई न कोई इच्छा रखता है। उस इच्छा की पूर्ति के साधन वह दूंढता रहता है। गोदना भी उसी इच्छा का प्रतिरूप है। गोदना स्थायी अलंकरण है, सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने वाले, पराशक्तियों से सुरक्षित रखने वाले, सौंदर्यवर्द्धक, काया को निरोगी रखने वाले, प्रजनन व कामेच्छा वर्द्धित तथा प्रकृति और मानव के मिथकीय संबंधों को प्रदर्शित करने वाले होते हैं।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेलखंड की लोक चित्रकला – डॉ मधु श्रीवास्तव