Devta, Adevta Aur nridevta देवता, अदेवता और नृदेवता

बुंदेलखंड में Devta, Adevta Aur nridevta तीनों पूजयनीय हैं । देवता वे हैं जो अपने देवत्व के कारण पूजित होते हैं, और अदेवता वे हैं जो अदेवत्व के कारण पूजा करा लेते हैं तथा नृदेवता वे हैं, जो नर होते हुए भी देवत्व को अर्जित कर पूजित होने का अधिकार प्राप्त कर लेते हैं । लोक में तीनों विद्यमान हैं । उदाहरण के लिए गौरा, दुर्गा, सरसुती, हरसिद्धि आदि देवियाँ और शिव, राम, कृष्ण, हनुमान, बन, पर्वत, नाग, यक्ष आदि देव अपना विशिष्ट देवत्व रखते हैं ।

अदेवता के रूप में सुअटा, टेसू जातहारिणी या बहुपुत्रिका अथवा अहोई आदि हैं, जो कन्या-अपहरण और नवजात शिशुओं को अपना शिकार बना लेने के बाद पूजे गये हैं ।  नृ का अर्थ नर है और नृदेवता से आशय ऐसे नर या मनुष्य से है, जो देवत्व अर्जित कर चुके हों ।

इस अंचल में कारसदेव, अजैपाल, हरदौल, दूलादेव, मंगददेव अपने आदर्शों, त्याग और चमत्कार के कारण लोकदेवता के रूप में आज भी पूजे जाते हैं । इतना ही नहीं, सतीत्व की पूजा भी इस अंचल का लोकमूल्य रही है और उसके प्रतीक चबूतरे या मंदिर पूजित रहे हैं । इसी तरह अपने परिवार के मृतकों को पुरखा – परमेसुर के रूप में आज भी पूजा जाता है ।

उत्तरमध्य युग में सबसे महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना हरदौल का लोकदेवता बनना है । यद्यापि कारसदेव का लोकदेवत्त्व ऐतिहासिक दृष्टि से उससे पहले का ठहरता है, तथापि हरदौल की लोकप्रियता ने उसे आच्छादित कर लिया है। कारसदेव की गोट के अनुसार वे शिव के अवतार हैं। हरदौल ओरछा नरेश वीरसिंह देव के सुपुत्र थे और वे 17 वीं शती में भाभी – देवर के प्रेम का अनुपम उदाहरण रखते हुए अमर हो गये।

उनके पहले इस क्षेत्र में भौजी – देवर के संबंध हँसी और विनोद के थे, जिसे बदलने का श्रेय हरदौल के त्यागमय प्रेम को है । बहिन कुंजा की पुत्री के विवाह में पूरा-पूरा सहयोग देने के कारण लोक ने उन्हें देवता बना दिया । विवाह के पहले स्त्रियाँ उनकी पूजाकर उन्हें न्यौता देती हैं, ताकि विवाह निर्विध्न हो जाय और उसमें कोई अभाव न महसूस हो ।

पूरे उत्तर भारत में हरदौल के चबूतरे या मढ़ियाँ बने हैं । दूला देव की मढ़िया भी अनेक गाँवों में हैं । या तो हरदौल का भनैजदामाद (भांजी कार पति) हरदौल के प्रेत का हाथ पकड़ने से मृत्यु को प्राप्त हो गया या कोई युवा वर विवाह को जाते समय चीते द्वारा मारा गया या बिजली गिरने से पत्थर का हो गया और वही दूलादेव बन गया ।

यह प्रमाण प्रेत की पूजा का ही संकेत करता है । मंगद या मंगतदेव चंदेरी राज्य के एक बुंदेला ठाकुर थे, जिन्होंने तालाब पर पड़ाव डाले मुगल बादशाह की सेना को अकेले ही पराजित कर दिया था और कजरियाँ सिराने के लिए बहिनों का मार्ग प्रशस्त करते हुए अपना बलिदान भी किया था । इस साहसपूर्ण बलिदान के कारण ही वे लोकदेवता के रूप में पूजित हुए ।

मसान तेली का प्रेत कहा जाता है । वे किसी को तंग करने में कुशल होते हैं । भैंसासुर की पूजा कृषिकार्य प्रारंभ करते समय की जाती है, ताकि वे फसल को नष्ट होने से बचावें । भैंसा लड़ने में भी बड़ा हठी होता है और हनुमान तो वीरत्व के प्रतीक हैं ही । इस प्रकार किले के लिए तीनों की सार्थकता सिद्ध है। वैसे युद्ध की देवी चामुण्डा और चण्डिका हैं ।

महोबा के चारों द्वारों पर उनकी । मूर्तियाँ इसलिए स्थापित हैं कि शत्रुओं से नगर की रक्षा हो सके । हनुमान की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित करने का प्रचलन मध्ययुग का है । छतरपुर के उत्तरी द्वार के हनुमान फिरंगी – पछाड़ के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि उन्होंने फिरंगी (अंग्रेज) को पछाड़ दिया था ।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

राजा जगदेव की गाथा 

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1 COMMENT

  1. बुंदेलखंण्ड के देवता-अदेवता का जादू है! देवता चलते हैं, अदेवता चलते हैं, और नृदेवता भी चलते हैं बैठे हुए! कारसदेव शिव का अवतार, हरदौल का त्यागमय प्रेम (और बहन का सहयोग!) वाकई है। तो दूलादेव बनना कैसा मार्ग है, हाथ पकड़कर मृत्यु? सरकार जरूर उनकी बीमारी का कोई निरामक ढूंढ ले। चालू तीनों की बात करते हुए, ये संस्कृति बातचीत बहुत ही खड़ी है!baseball bros unblocked

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