ग्वालियर के तोमर नरेशों के संस्कृति और कला के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण ग्वालियर सांस्कृतिक केन्द्र बना और उसने तत्कालीन युग – चेतना को अपने में आत्मसात् कर इस अंचल को जो समृद्धि प्रदान की, Tomar Kal Men Lok Devta -लोकदेवत्व की स्थापना हुई , वह उस संक्रांति के युग में सार्थक सिद्ध हुई ।
15वीं – 16वीं शती में तत्कालीन लोकधर्म और लोकदेवत्व भी आवश्यकतानुसार बदला । कविवर विष्णुदास ने अपने प्रबंधों- ‘रामायणी कथा’ और ‘महाभारत’ (1835 ई.) में राम और कृष्ण को सर्वप्रथम लोक के सामने प्रस्तुत किया और उन्हें लोकदेवत्व की कलम से चित्रित कर अपने कवि-कर्म का निर्वाह किया । छिताईचरित में गणपति, सरस्वती, गंगा, विष्णु राम आदि के साथ शंकर को अधिक महत्त्व दिया गया है । उस युग को भी संहारकर्ता शंकर और कल्याणकारी शिव की जरूरत थी, अतएव उन्हें देवों का देव कहकर सम्मानित किया गया।
राजपाट लछमी जे असेसू । होइ सकल जो फुरइ महेसू ।।
निहचइ जीउ लीजइ मानी । शंकर आहि परम पद जानी ।।
मंत्री कहइ न जानहि भेउ । यह शंकर देवन्ह कौ देउ ।।
यह निद्रा तँ छाँडि बहोरी | दीजइ कर्म आपने खोरी ।।
इस समय शिव के साथ ब्रह्मा, विष्णु, गणेश, सूर्य, इन्द्र आदि देवताओं कोर बिना किसी साम्प्रदायिक भावना के महत्त्व दिया गया । बैजू बावरा, तानसेन आदि के संगीतपरक पदों में अनेक देवों की समन्वयकारी अर्चना से एक ऐसा शक्तिपुंज खड़ा किया गया, जो आक्रमणकारी से टक्कर ले सके । इस प्रकार लोकदेवों में एकता और शक्ति के विधायन का कार्य कवियों और साहित्यकारों ने किया था ।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त