शिव एक प्रभाव पूर्ण लोकदेव रहे हैं । Shiv Kal Men Lok Devta पहले वे लोकदेव थे, बाद में वैदिक देवता के रूप में प्रतिष्ठा पा गये और त्रिदेव में उनकी गणना होने लगी, लेकिन फिर लोक के देवता की तरह पूजित हुए ।इ स अंचल में पहली शती से तेरहवीं शती तक उनकी तूती बोलती रही । शिव का निर्माण और विकास शबर, किरात, निषाद, द्रविड़ तथा आर्य विश्वासों से हुआ है ।
इस अंचल में शबर, किरात और निषाद आदिम जातियाँ थीं, जिन्होंने शिव के भयंकर, संहारकारी और रौद्र रूप की कल्पना की थी । भैरों देव भी उन्हीं के पूरक थे । भूत-प्रेत, पिशाच – बैताल आदि उन्हीं से जुड़ गये थे । तंत्र-मंत्र भी उन्हीं जातियों की उपज थे । इस तरह यक्ष की तुलना में शिव का यह शक्तिशाली रूप अधिक मुखर हो गया था । किरातों ने उन्हें संगीत और नृत्य का देवता भी मान लिया था ।
वैदिक रुद्र देवता भी आकर अपने समकक्ष शिव से एक हो गये । इन्द्र और यक्ष पहले से ही उनके साथ समरस हो चुके थे । इस तरह शिव का एक बड़ा परिवार बन गया था । सबसे प्राचीन भूदेवी का विकास मातृदेवी और फिर अम्बिका में हुआ । आगे चलकर यही अम्बिका सती और पार्वती बनी ।
नाग-वाकाटक युग में शिव को राष्ट्रीय देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया । वस्तुतः लोकदेवता शिव की इस व्यापक प्रतिष्ठा ने एक महत्त्वपूर्ण जागृति ला दी थी, जिसके फलस्वरूप हर गाँव में शिव की पिंडी या बटैया पूजित होने लगी । शिव के साथ विष्णु सूर्य आदि की पूजा होने लगी । साथ ही वृषभ, चन्द्र, गाय, नाग आदि की महत्ता भी बढ़ी । गंगा को एक अलग स्थान मिला ।
गुप्तकाल में विष्णु का प्रभाव बढ़ा, पर शिव का घटा नहीं । त्रिदेव में ब्रह्मा और विष्णु के साथ शिव की जोड़ी बन गयी । वे वैदिक कोटि में मान्य हुए, पर उन्होंने लोक को नहीं छोड़ा । शैव सम्प्रदायों ने उन्हें जगत् का निर्माता- नियामक के ऊँचे आसन पर बैठा दिया, पर उन्होंने अपने लोक- रूप को हमेशा सुरक्षित रखा । वे निम्नकोटि की जातियों और अनार्यों को उतने ही प्रिय थे, जितने उच्च वर्गों को ।
पौराणिक युग में शिव पुराण जैसे ग्रंथ ने उतना ही सम्मान पाया था जितना कि विष्णु-पुराण ने । लोकधर्म तो सम्प्रदायमुक्त होता है, अतएव एक समन्वयकारी स्थिति का पूरा-पूरा सम्भार मौजूद था, जिसका प्रतिफल थीं हरिहर और त्रिदेव की मूर्तियाँ । विष्णु के साथ लक्ष्मी भी पूजित होने लगी थीं ।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
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