विश्व वन्दनीय इस बुन्देलखण्ड के साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति के प्रति अध्ययनकाल से ही मेरी जिज्ञासा व अभिरुचि रही है। प्रारम्भ से अपने परिजनों एवं गुरुजनों से इस संबंध में जो कुछ सुना, समझा तथा जाना उससे मेरी इस अभिरूचि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। गुरुजनों की कृपा एवं सहयोग से अध्ययन अवधि में लघुशोध एवं शोध-प्रबंध के रूप में इस दिशा में शोधात्मक कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तदन्तर इस दिशा में सतत् प्रयत्नशील रहती हूँ। इसी श्रृंखला में बुन्देली लोकरागिनी सैर Bundeli Lokragini Sair के अध्ययन, विश्लेषण एवं संकलन का यह प्रयास है।
भाषा साहित्य एवं संस्कृति की दृष्टि से सर्वसमर्थ बुन्देलखण्ड अपने गौरवशाली अतीत के कारण सदैव वन्दनीय रहा है। भारत के मध्य 2345 से 2650 उत्तरी अक्षांशों एवं 7752 से 82° अक्षांशों के बीच में स्थित यह भूभाग विभिन्न कालों में विभिन्न नामों से जैसे जैजाकभुक्ति, जुझौती, जुझारखण्ड, चेदि, दशार्ण, विन्ध्य प्रदेश तथा विन्ध्येलखण्ड से जाना जाता रहा है।
14वीं शताब्दी में बुन्देला शासकों के शासन काल से इस भूभाग को बुन्देलखण्ड की संज्ञा प्राप्त हुई। वर्तमान बुन्देलखण्ड के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के ललितपुर, झॉसी, जालौन, हमीरपुर, महोबा, चित्रकूट तथा बांदा जिलों का सम्पूर्ण भाग और मध्य प्रदेश के दमोह, पन्ना, सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, दतिया व भिण्ड जिले की लहार तहसील, ग्वालियर जिले की भाण्डेर तहसील, शिवपुरी का पछौर क्षेत्र एवं गुना का चन्देरी भूभाग सम्मिलित है ।
बुन्देलखण्ड के उत्तर में कालिन्दी (यमुना ) उत्तर पश्चिम में माली सिन्ध, उत्तर पूर्व में तमसा ( टौंस ) और दक्षिण में रेवा (नर्मदा नदी व विन्ध्य पर्वत श्रृंखला स्थित है। महाराजा छत्रसात ने भी इस क्षेत्र की भौगोलिक एवं प्राकृतिक सीमाओं का निर्धारण नदी सीमाओं को लक्षित कर किया है।
इत जमुना उत नर्मदा, इत चंबल उत टौंस ।
छत्रसाल से लड़न की रही न काहू हाँस ॥
प्राकृतिक, ऐतिहासिक एवं साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न इस बुन्देल भूमि के प्रति आदर भाव प्रकट करते हुए पं. घासीराम व्यास ने लिखा है।
चित्रकूट, ओरछौ, कालिंजर, उन्नाव तीर्थ,
पन्ना, खजुराहो जहाँ कीर्ति झुक झूमी है।
जमुन, पहूज, सिंध, बेतवा, धसान, केन,
मंदाकिनी पयस्विनी प्रेम पाय घूमी है।
पंचम नृसहि राव, चपतरा, छत्रताल,
लात हरदौल भाव चाव चित चूमी है।
अमर अन्दनीय, असुर निकन्दनीय,
वन्दनीय विश्व में बुन्देलखण्ड भूमि है।
बुन्देलखण्ड अंचल की साहित्यिक गीतात्मक यह लोकरंजनी सम्पदा शनैः शनैः विलुप्ति की कगार पर पहुँच रही है, जो अत्यन्त चिन्तनीय है । इसलिए मैंने संकल्प किया कि इस उपेक्षित साहित्य को प्रकाश में लाया जाये ताकि सर्वसाधारण तक यह साहित्य पहुँच सके। इस पुस्तक में समायोजित सामग्री को मैंने दो खण्डों में बाँटा है। प्रथम खण्ड में परिचयात्मक विवरण हैं। जिसमें प्रथम शीर्षक के अन्तर्गत बुन्देली सैर साहित्य का परिचय है। द्वितीय शीर्षक में कवि परिचय एवं तृतीय शीर्षक में सैरों का संकलन है। पुस्तक के द्वितीय खण्ड में मेरे द्वारा सैर साहित्य पर लिखे गये वे शोधालेख सम्मिलित किये गये हैं, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये हैं।
बुन्देली लोकरागिनी सैर Bundeli Lokragini Sair के उन्नयन हेतु मेरा यह अल्प प्रयास है। आशा एवं विश्वास है कि इससे सैर साहित्य के अध्ययन, अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त होगा तथा साहित्यिक मानदण्डों पर खरा उतरने वाता यह साहित्य भारतीय समाज में एक नूतन सांस्कृतिक मार्ग का उन्मेष कर मनुष्य को अपनी संस्कृति के प्रति आकृष्ट करेगा, जो वर्तमान में पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण व इलैक्टोनिक मीडिया के प्रभाव के कारण अपने आस-पास बिखरी विपुल साहित्य सम्पदा को जानने, समझने एवं परखने की आवश्यकता ही महसूस नहीं करता।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मेरी इस कल्पना को साकारता प्रदान करने में मुझे सभी परिजनों एवं स्वजनों का कृपापूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ । लोक रचनाकारों एवं लोक गायकों के सहयोग से मुझे सैर साहित्य की जो प्रचुर सामग्री प्राप्त हुई इससे मेरा मनोबल बढ़ा तथा मेरा यह कार्य सम्पन्न हो सका। मुझे यह कहते हुये अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है इस दिशा में कार्य करते हुये मुझे लोक साहित्य मर्मज्ञों, आचार्यों, कलाकारों एवं गायकों का पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने व्यस्त जीवन में से समय निकाल कर मुझे पर्याप्त मार्ग दर्शन प्रदान कर सैर साहित्य के संबंध में सूक्ष्म जानकारी प्रदान की।
स्व. श्री निवास जी शुक्त, स्व. मदन गोपाल शुक्ल, पं. रामकृपाल मिश्र ‘ज्योतिषी’ जी ने इस दिशा में आगे बढ़ने एवं कार्य करने की सतत् प्रेरणा प्रदान की। मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये अति संकोच का अनुभव कर रही हूँ क्योंकि उनके सहयोग का उपकार शब्दों के द्वारा नहीं चुकाया जा सकता।
मैं आभारी हूँ उन गायक कलाकारों यथा स्व. रामदास लखेर, स्व. मुन्ना लाल ताम्रकार की जिन्होंने अपने निजी संग्रह से प्रचुर मात्रा में सैरें उपलब्ध कराई तथा सैरों के मूल में गुम्फित गूढ़तम रहस्यों से अवगत कराया। मैं ऋणी हूँ श्री जानकी प्रसाद खरया, श्री स्वामी प्रसाद, पं. परमलाल शुक्ल एवं ऋतु राज सरावगी की जिन्होंने न केवल सैर साहित्य की सामग्री मुझे उपलब्ध कराई अपितु इस दिशा में मुझे पर्याप्त मार्गदर्शन भी प्रदान किया ।
माता-पिता का शुभाशीष एवं गुरु कृपा हो किसी संकल्प को पूर्णतः प्रदान करने में सहायकभूत होती है अतः उनके ऋण से उऋण होना कठिन ही नहीं असम्भव है। हाँ उनके प्रति श्रद्धावनत हो उनके उपकारों के गुरुतर भार से हल्का अवश्य हुआ जा सकता है। अतः मैं सर्वप्रथम अपने साकेतवासी माता-पिता के प्रति श्रद्धांजलि समर्पित करती हूँ जिनके अजस्त्र आशीर्वाद से मैं अपने कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर हो रही हूँ।
तत्पश्चात् मैं श्रद्धाभिभूत हूँ अपने आध्यात्मिक गुरु पूजनीय आचार्य श्री भगवतानन्द सरस्वती 1008 जी के प्रति जिनकी सतत् कृपवृष्टि से मैं सदैव अपने को अभिसिंचित अनुभव करती हूँ। मैं आभारी हूँ अपने गुरुजन डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त बरसैंया सेवानिवृत्ति प्राचार्य शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, टीकमगढ़ (म.प्र.) डॉ. राधावल्लभ शर्मा सेवानिवृत्त संयुक्त संचालक उच्च शिक्षा मध्यप्रदेश शासन, भोपाल (म. प्र. ) एवं स्व. डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त सेवानिवृत्त प्राध्यापक शासकीय महाराजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, छतरपुर (म.प्र.) की जिनके कृपा प्रसाद से मैं अपने लक्ष्य तक पहुँच सकी हूँ।
मैं आभारी हूँ अपने परिजनों विशेषतः पितृतुल्य अग्रज श्री कृष्ण कुमार तिवारी सेवानिवृत खाद्य निरीक्षक, पति डॉ. अश्विनी कुमार वाजपेयी विभागाध्यक्ष अंग्रेजी विभाग महात्मा गांधी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, करेली जिला नरसिंहपुर (म.प्र.) देवर श्री मेदिनी कुमार वाजपेयी एडवोकेट, पुत्रवत् भतीजे शुभम तिवारी एवं पुत्र अनघ बाजपेयी, भतीजी शिप्रा, शिवांगी एवं उर्बीजा की जिनकी सतत् प्रेरणा तथा प्रेरक प्रोत्साहन मेरे साहित्यिक जीवन का बल एवं सम्बल है। नन्हें शिवार्थ एवं मनस्वी मुझे सदैव ऊर्जावान बनाये रखते हैं अतः उन्हें भी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
अन्त में मैं उन समस्त स्वजनों व परिजनों के प्रति आभारी हूँ, जिनके प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सहयोग से यह साहित्य सामग्री पुस्तकाकार रूप में साहित्य जगत के समक्ष आ सकी।
मैं ‘बुन्देली लोकरागिनी सैर पर लिखित इस पुस्तक के संबंध में ऐसा तो नहीं कह सकती कि यह अपने में पूर्ण है, पूर्ण हो भी नहीं सकती, क्योंकि यह साहित्य सम्पदा अकूत है इसका जितना अन्वेषण होगा उतनी प्राप्त होती जायेगी। इस साहित्यिक विधा पर मेरा कार्य तो मात्र दिशा निर्देश देने जैसा है आगे इस क्षेत्र में और अनुसंधान होगा और लोकरागिनी सैर की वह विपुल सामग्री प्रकाश में आयेगी जो लोकमुख में रची बसी है।
अन्त में ज्ञानिनामग्रगण्यम् अंजना नन्दन से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरी यह पुस्तक कृपालु विद्वानों, सहृदय पाठकों एवं लोक मनीषियों के हृदय में स्थान बना सके, ऐसी कृपा करें।
गायत्री वाजपेयी