Bundeli Lok Sanskriti Aur Lok Sahitya बुन्देली लोक संस्कृति और लोक साहित्य पुस्तक के बारे में – संस्कृति एवं साहित्य किसी राष्ट्र व समाज की न केवल अमूल्य सम्पदा होते हैं वरन् वह एक ऐसा दर्पण होते हैं जिसमें उसका स्पष्ट रूप प्रतिबिम्बित होता है भारत एक विशाल देश है, यहाँ प्राचीनकाल से ही संस्कृति एवं साहित्य की दो समानान्तर धाराएँ अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ प्रवाहित होती रही हैं । एक परिष्कृत रूप में दूसरी अपरिष्कृत या प्रारम्भिक अवस्था में । परिष्कृत रूप में जो धारा प्रवाहित है उसे शिष्ट संस्कृति व शिष्ट साहित्य कहा जाता है ।
इसका सम्बन्ध उस अभिजात वर्ग से है, जो अपने उच्च स्तरीय ज्ञान-विज्ञान व अधुनातन बौद्धिक विकास के कारण समाज में अग्रणी है और सभी का पथ प्रदर्शक है जबकि अपरिष्कृत व प्रारम्भिक अवस्था में उपलब्ध संस्कृति व साहित्य को लोक संस्कृति व लोक साहित्य की संज्ञा दी जाती है।
इस संस्कृति एवं साहित्य का सम्बन्ध लोक से है। सामान्य जनता का ज्ञान व विद्या उसका आधार है, जनता जनार्दन ही उसकी उत्सभूमि है। उनसे प्रेरणा प्राप्त कर वह आगे बढ़ता है। जहाँ तक शिष्ट संस्कृति एवं लोक संस्कृति का सम्बन्ध है तो दोनों अन्योन्याश्रित हैं ।
लोक संस्कृति को जाने बिना शिष्ट संस्कृति को नहीं जाना जा सकता; कारण लोक संस्कृति ही अपने परिनिष्ठित रूप में शिष्ट संस्कृति का रूप धारण करती है जैसा कि लोकविद् डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त जी के इस कथन से ध्वनित है- “संस्कृति एक व्यापक शब्द है, जिसमें एक तरफ लोक संस्कृति के आदर्श और मूल्य समाहित रहते हैं और दूसरी तरफ उच्च स्तरीय परिनिष्ठित संस्कृति के ।
असल में संस्कृति एक जीवित प्रक्रिया है, जो लोक के स्तर पर अंकुरित होती है, पनपती और फैलती है तथा पूरे लोक को संस्कारित करती है एवं विशिष्ट स्तर पर अनेक लोगों के विविध पुष्पों द्वारा एक सुन्दर माला निर्मित करती है । इसी तरह लोक स्तर पर वह लोक संस्कृति है, जिसमें जनसामान्य के आदर्श, विश्वास, रीति-रिवाज आदि व्यक्त होते हैं जबकि विशिष्ट स्तर पर वह संस्कृति कही जाती है जिसमें परिनिष्ठित मूल्य आचार-विचार, रहन-सहन के ढंग आदि संघटित होते हैं । मतलब यह है कि लोक – संस्कृति और परिनिष्ठित संस्कृति दोनों एक-दूसरे से संग्रथित होती हुई भी भिन्न हैं ।”
संस्कृति का पूर्ण परिदर्शन साहित्य में होता है इस दृष्टि से लोक साहित्य के आइने में लोक संस्कृति का पूर्ण प्रतिबिम्ब परिलक्षित होता है। लोक संस्कृति तथा लोक साहित्य में अंग-अंगी भाव है। लोक संस्कृति यदि अंगी है तो लोक साहित्य अंग है । लोक साहित्य की समस्त विधाएँ लोकगीत, लोक कथाएँ, लोक गाथाएँ, लोक नाट्य, लोक सुभाषित, लोक चित्र, लोक संगीत आदि लोक संस्कृति के प्रामाणिक दस्तावेज हैं।
प्रत्येक अंचल विशेष की अपनी संस्कृति होती है और उसको प्रतिबिम्बित करने वाला उसका साहित्य होता है । इस दृष्टि से बुन्देलखण्ड अंचल की भी अपनी समुन्नत लोक संस्कृति एवं समृद्ध साहित्य सम्पदा है जिसकी धूम पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी है। बुन्देलखण्ड मेरी जन्मभूमि एवं कर्मभूमि रहा है इस कारण बाल्यावस्था से ही यहाँ की लोक संस्कृति एवं लोक साहित्य को जानने की उत्कट ललक मेरे अन्तःकरण में रही है ।
परिवार की अनुभवी आदरणीया महिलाओं के बीच में उठते-बैठते जिन धार्मिक अनुष्ठानों, पर्वों, उत्सवों पर आयोजित विधिविधानों, मांगलिक अवसर पर होने वाले रीति रिवाजों को देखा-परखा एवं हृदय को आल्हादित कर देने वाले रसासिक्त गीतों को सुना, रात्रि में सोने से पूर्व दादी, नानी एवं माँ के किस्से कहानियाँ सुने और गुने उससे यह जिज्ञासा और बढ़ती चली गई।
अध्ययन काल में गुरुजनों के सानिध्य के फलस्वरूप शोधान्वेषण की प्रवृत्ति जाग्रत हुई । परिणामतः प्रत्येक कार्य पद्धति को पैनी दृष्टि से देखा तथा उस विषय पर सामग्री एकत्रित कर लिखने का प्रयास किया । इसी अनवरत श्रम साधना का सुफल यह ‘बुन्देली लोक संस्कृति एवं लोक साहित्य’ पुस्तक है, जो लोक को समर्पित करते हुए मैं आनन्दाभिभूत हो रही हूँ तथा सन्तोष का अनुभव भी कर रही हूँ कि अपनी जन्मभूमि के गुरुतर ऋण से कुछ अंश में उऋण हुई हूँ ।
आवश्यकता
लोक संस्कृति एवं लोक साहित्य का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । उसमें धर्म, दर्शन, अध्यात्म, नीति, विश्वास, संगीत एवं कला सभी का समावेश है । अतः लोक संस्कृति एवं लोक साहित्य के विस्तार व गाम्भीर्य को एक छोटी-सी पुस्तक के कुछ पृष्ठों में समाहित कर देना असम्भव है। इसके साथ ही इनके विविध विषयों पर लिखने के लिए जितना ज्ञान अपेक्षित है वह भी साधारण मनुष्य में होना असम्भव है।
अस्तु इस सम्बन्ध में अपनी सीमाओं का ज्ञान एवं भान मुझे भली-भाँति है लेकिन वर्तमान समय में निरन्तर आ रहे बदलाव, अपसंस्कृति का बढ़ता प्रभाव, अपनी जड़ों को उखाड़ फेंकने की आतुरता, धर्म, दर्शन, अध्यात्म को लेकर पैदा हुई भ्रान्ति, मानवीय मूल्यों का क्षरण, आचरण की शुचिता का संकट, निरन्तर बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण छल-कपट, झूठ व प्रपंच का बोलबाला, संचार साधनों की अधिकता, दूरदर्शन पर बढ़ते चैनल और उन पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रम को निरन्तर दिग्भ्रमित कर रहे हैं । ये सब ऐसे कारण हैं जिससे मनुष्य के समक्ष श्रेय एवं प्रेय के चयन का संकट पैदा होता जा रहा है ।
ऐसी दिग्भ्रान्त स्थिति में आवश्यकता है दिशा निर्देशन की, अपने श्रेयस्कर अंश से जन-जन को परिचित कराने की। यह कार्य तभी सम्भव हो सकेगा जब हम अपनी लोक संस्कृति से जुड़ें, उसे समझें और आत्मसात करें क्योंकि लोक संस्कृति की जड़ें अतीत से जुड़ी हैं व बड़ी गहरी हैं तथा यह कहना असमीचीन न होगा कि जो लोक में है वही वेद में है ‘लोकेच वेदेच’ की उक्ति सर्वमान्य है, दोनों वेद दो संस्कृतियों के परिचायक हैं शिष्ट संस्कृति यदि ऋग्वेद से परिचालित है तो लोक संस्कृति की आधारभूमि अथर्ववेद है। ऋग्वेद में जहाँ शिष्ट व सुसंस्कृत जन के विचारों का विवरण है तो अथर्ववेद में साधारण जन के जीवन का वर्णन है ।
जैसा सुप्रसिद्ध लोकाचार्य पं. बलदेव उपाध्याय ने स्वीकार करते हुए कहा है- “लोक संस्कृति शिष्ट संस्कृति की सहायक होती है। किसी देश के धार्मिक विश्वासों, अनुष्ठानों तथा क्रियाकलापों के पूर्ण परिचय के लिए दोनों संस्कृतियों का परस्पर सहयोग अपेक्षित रहता है। इस दृष्टि से अथर्ववेद ऋग्वेद का पूरक है। ये दोनों संहिताएँ दो विभिन्न संस्कृतियों के स्वरूप की परिचारिकाएँ हैं । यदि अथर्ववेद लोक संस्कृति का परिचायक है तो ऋग्वेद शिष्ट संस्कृति का दर्पण है । अथर्ववेद के विचारों का धरातल सामान्य जन जीवन है तो ऋग्वेद का विशिष्ट जनजीवन है।” इस तरह कहा जा सकता है कि लोक संस्कृति में वह सब कुछ है जो मनुष्य को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की ओर अग्रसर करता है। उसे न केवल अपनी जड़ों से जोड़ता है बल्कि नीर क्षीर का विवेक भी प्रदान करता है।
विषय सामग्री
लोक संस्कृति का सच्चा प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है- लोक साहित्य में लोक साहित्य लोकगीतों, लोककलाओं, लोक गाथाओं, लोक कथाओं, लोक नाट्यों, लोक वार्ताओं एवं लोक सुभाषितों आदि के रूप में प्राप्त होता है । मानव मन का हर्ष-उल्लास, आनन्द-अनुराग, सुख-दुख, राग-विराग आदि सब लोक साहित्य में आकार पाते हैं । लोक साहित्य लोक की सम्पत्ति है । यह लोक में रचा बसा होता है जिसे प्रकाश में लाने का दायित्व लोकान्वेषी साहित्य मर्मज्ञों का होता है । मैंने इस पुस्तक के माध्यम से लोक की उस सम्पदा के छोटे से अंश को जन-जन के समक्ष लाने का प्रयास किया है।
इस पुस्तक की विषय सामग्री को मैंने तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम भाग- धर्म, दर्शन, नीति एवं विश्वास पर केन्द्रित है । इसके अन्तर्गत उन लेखों को सम्मिलित किया गया है जिसमें बुन्देली लोकांचल में प्रचलित धार्मिक अनुष्ठानों, उत्सवों, पर्वों, परम्पराओं, लोक विश्वासों आदि को वाणी दी गई है। दूसरे भाग- लोक रागिनी के अन्तर्गत वह लेख शामिल हैं जिनका विश्लेषण विषय लोकमुख से निःसृत वे लोकगीत हैं, जो बुन्देलखण्ड में धार्मिक अनुष्ठानों, मांगलिक अवसरों, ऋतु विशेष एवं अन्यान्य अवसरों पर गाये जाते हैं।
इन रसासिक्त गीतों में कहीं हर्ष व उल्लास है, तो कहीं विषाद व करुणा का सागर हिलोरें लेता दिखलाई पड़ता है। तीसरे भाग – लोक नाट्य के अन्तर्गत बुन्देली लोकांचल में प्रचलित नृत्य, नाट्य व स्वाँग विषयक लेख रखे गये हैं। ये वे लोक नृत्य व लोक नाट्य हैं, जो मानव मन में हर्ष, उल्लास व स्फूर्ति का संचार करते हैं ।
इस प्रकार लोक संस्कृति के दिग्दर्शक इन विषयों को मैंने अत्यन्त रोचक एवं मोहक ढंग से अभिव्यंजित करने का प्रयास किया है। लोक साहित्य की विविध विधाओं को प्रकाशित करने वाले मेरे यह समस्त शोधालेख एवं निबन्ध अनवरत देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं तथा पाठकों एवं सहृदय साहित्य मर्मज्ञों द्वारा सराहे गये हैं । आज इन्हें पुस्तकाकार रूप में साहित्य जगत को सौंपते हुए यही कहूँगी कि-‘निज कवित्त केहि लाग न नीका, सरस होहि अथवा अति फीका ।’ अब इसके मूल्यांकन की बारी सुधी पाठकों की है।
आभार
सर्वप्रथम मैं अपने गोलोकवासी समस्त पूजनीय पितृजनों के प्रति सादर श्रद्धांजलि समर्पित करती हूँ जिनके शुभाशीष से ही मेरी परिकल्पना आकार ले सकी है। तत्पश्चात् मैं अपने अग्रज श्रीकृष्ण कुमार तिवारी (सेवानिवृत्त खाद्य निरीक्षक), पति डॉ. अश्विनी कुमार वाजपेयी (विभागाध्यक्ष, अंग्रेजी विभाग, महात्मा गाँधी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, करेली, नरसिंहपुर, (म.प्र.), देवर मेदिनी कुमार वाजपेयी (एडवोकेट) एवं चि. शुभम्, चि. अनघ, चि. विवुध के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ जिनका प्रेरक प्रोत्साहन ही मेरे साहित्यिक जीवन का बल एवं सम्बल है ।
मैं अपनी सासु माँ पूर्णिमा वाजपेयी, भाभी पुष्पकला, राजेश, निधी एवं देवरानी सीमा तथा भतीजी शिप्रा, शिवांगी व उर्वीजा को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकती क्योंकि इनका स्नेह और आत्मीय भाव सदा ही मुझे कुछ करने के लिए सतत उत्प्रेरित करता है। नन्हें शिवार्थ एवं मनस्वी को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। ये दोनों ही मेरे परम आत्मीय हैं ।
मैं अपने गुरुजनों डॉ. गंगा प्रसाद गुप्त ‘ बरसैंया’ (सेवानिवृत्त प्राचार्य, शासकीय महाविद्यालय टीकमगढ़, म.प्र.), डॉ. राधा वल्लभ शर्मा (सेवानिवृत्त संयुक्त संचालक, उच्च शिक्षा विभाग, मध्यप्रदेश शासन, भोपाल, म.प्र.) के अजस्र शुभाशीष की आकांक्षी हूँ, जो मेरे प्रगतिपथ पर अग्रसर होने में सहायक होगा। मैं डॉ. सी.एल. प्रजापति सहा. प्राध्यापक अर्थशास्त्र, शासकीय महाराजा महाविद्यालय, छतरपुर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिनका सद्भाव तथा सहयोग मुझे सतत् मिलता रहा है।
मैं इस पुस्तक को लोक साहित्य के मनीषियों के सम्मुख लाने में सहायक बने प्रकाशक श्री फतेहसिंह जी के प्रति भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने अथक परिश्रम से विचार प्रवाह को सुन्दर कलेवर प्रदान किया ।
अन्त में ‘लोकाः समस्तः सुखिनः भवन्तु’ की कामना करते हुए माँ भगवती से यही प्रार्थना है कि वे मुझे आरोग्य, बल, बुद्धि प्रदान करने की महती कृपा करें, अनिष्ट का नाश करें, श्रेष्ठ की ओर बढ़ने की प्रचुर शक्ति से समन्वित करें ताकि मैं साहित्य एवं संस्कृति की सेवा करते हुए जीवन के मूल्यवान क्षणों को पवित्रता के साथ जी सकूँ-
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि, यशो देहि द्विषो जहि ॥ विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ विधेहि देहि कल्याणं विधेहि परमांश्रियम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥
Bundeli Lok Sanskriti Aur Lok Sahitya
बुन्देली लोक संस्कृति और लोक साहित्य
डॉ गायत्री वाजपेयी
श्री अंबिका प्रसाद दिव्य के उपन्यासों का समीक्षात्मक अध्ययन