Vishvas विश्वास

Vishvas विश्वास क्या होता है ? रमाशंकर जी अपने दोनों पुत्रों सहित घूमने के लिए जंगली रास्ते से पहाड़ी के पास से जा रहे थे। बड़े पुत्र राम शरण ने पूछा पिताजी इस पहाड़ी को देखिये कितनी ऊंची है क्या यह उड़नू की टोरिया है। श्री रमाशंकर जी ने कहा हाँ बेटे ! उस पर एक साधु महात्मा जी रहते हैं। सीताशरण बोला पिताजी फिर आज तो वहीं चलिये । क्यों भाई साहब ? आपकी क्या राय है। यदि पिताजी की इच्छा हो तो हम सभी चलें।

पिताजी ने सोचा कि बच्चों की इच्छा है ही और मैं भी बहुत दिनों से महात्मा जी से नहीं मिला हूँ इसी बहाने दर्शन हो जायेंगे। रामशरण ने कहा कि दुर्गम पहाड़ी पर चढ़ना बड़ा मुश्किल है, सीताशरण ने पिताजी से पूछा इस पर जाने का रास्ता कहाँ से है । पिताजी ने कहा आगे सीढ़ियाँ हैं, वहीं से, चढ़ेगे । सीड़ियों के समीप ही एक छोटी सी कुइया थी। उसका सफेद शीतल पानी था। पीते ही थकावट भी दूर हो गई, वो अब टोरिया पर सीड़ियों द्वारा जा रहे थे। कुल सीड़ियाँ ३६५ थी।

उधर पहुचकर सीड़ियों के समीप ही एक बहुत ही सुन्दर कुण्ड बना था । जल में कुछ काई जैसी थी किंतु पानी बहुत ही मीठा स्वादिष्ठ था वे लोग हाथ धोकर चबूतरे पर से सीड़ियां चढ़कर एक दरवाजे से निकलकर चौक में पहुचे। चौक में चारों ओर दल्लाने थीं । वहाँ पर और भी दर्शनाथियों के रुकने और खाना बनाने की व्यवस्था थी। सामने वाली दल्लान के अन्दर एक कमरा था, उसमें महात्मा जी अपनी गद्दी और धूनी जमाये हुए थे कमरा के ऊपर एक बहुत ही सुन्दर शिवालय था।

शिवालय के सामने दल्लान थी इसी में से शिव जी की परिक्रमा थी। शिवालय के सामने तीन और खुली छत्तें थीं। छत के ऊपर से सड़क घूमती सी बड़ी सुन्दर दिख रही थी। उसी समय एक बैलगाड़ी वहाँ से गुजरी जिसे देख सभी खुश हुए जंगल का दृश्य भी बहुत अच्छा था । मोर, बंदर, लंगूर, हिरण बगैरह स्वच्छन्दता से दिखे। रामशरण एवं सीताशरण बहुत ही प्रसन्न चित्त थे। श्री रमाशंकर जी ने कहा कि चलो अब चलकर महात्मा जी के दर्शन करें ।

वे सभी महात्मा जी की ओर बढे ,श्री रमाशंकर जी ने महात्मा जी के पैर छुए और नमो नारायण कह कर बैठ गये। महात्मा जी ने कहा आपके बच्चे होनहार होंगे। आपको ये बच्चे सुख देंगे। श्री रमाशंकर जी ने सिर झुकाये ही उत्तर दिया मेरा तो कुछ भी नहीं है। यह सव आपका ही आशीर्वाद है। महात्मा जी ने बच्चों को आशीर्वाद दिया। तभी रमाशंकर जी बोले मेरे बच्चों ने कभी भी अपराध नहीं किया। जितना भी बना परोपकार किया।बच्चों ने महात्मा जी  से कहा आप स्वामी जी हम पर कृपा करें हम आपकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करेंगे।

महात्मा ने कहा आज से तुम दूसरों के अपराध छ्मा किया करो, बदले की भावना मत लाना । कभी किसी को मत सताना, न किसी से बुरा बोलना, सत्य बात करना। फिर वे लोग प्रायः गुरुजी के पास जाने लगे। एक दिन गुरुजी ने  सीताशरण  से कहा कि बाजार में सौदा ले आओ , वह सौदा लेने बाजार गया। एक पसरट की दुकान से सौदा लिया ओर आने को था इतने में एक नोजवान सन्यासी हाथ में लम्बा सा त्रिशूल लिये आया उसने  सामने दखते हुए बडी जोर से उस त्रिशूल को नीचे जमीन समझ गाड़ दिया वहां शिष्य का पैर था। शिष्य को अधिक पीड़ा हो रही थी वो सहता रहा। उसे सौदा लेने में देर लगी पर त्रिशूल में फसा था और उसक पैर से खून बह रहा था।

यह शिष्य असहाय पीड़ा को सह रहा था। जब वह सन्यासी चला गया, तब यह धीरे धीरे पैर घसीटता हुआ गुरुदेव के आश्रम में पहुचा । गुरुजी ने कहा ये पैर केसे कट गया, उसने सारा किस्सा सुनाया। तब गुरूजी ने कहा तुमने उससे कुछ नहीं कहा तो शिष्य बोला कि आप ही ने तो कहा था कि दूसरों के अपराध क्षमा करना और अपने  मुंह से किसी से कुछ न कहना। इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा । गुरुजी ने कहाकि तुम इतना तो कह देते कि देखकर काम नहीं करते, देखो तो मेरा कितना पैर कट गया है । अब तुम जल्दी से  घोड़े पर सवार होकर उसके घर पर जाकर उससे यह कहकर आओ कि तुमने उस दुकान पर हमारा पैर त्रिशूल से छेद दिया है तू शीघ्र जा और उससे कहके आ ।

शिष्य बस्ती में आया, एक घोड़ा किराये पर लिया । वह तेज घोड़े से सन्यासी के मकान पर गया किन्तु शिष्य के  पहुचने से पहले ही देखा सन्यासी नौजवान को घर पहुचकर एक खून की उल्टी हुई और उसने दम तोड़ दी। वह लौटा और गुरुजी के पास पहुचकर समाचार सुनाया । गुरूजी ने शिष्य से कहा कि अगर तुमने उससे कुछ भी कह दिया होता तो उसकी मृत्यु न होती। तुम्हारे अपराध का दण्ड प्रभु ने उस सन्यासी को बहुत ही कठोरतम दिया शिष्य न कहा गुरुजी यह  सब न होने वाला कार्य भी आपकी आज्ञा पालन से हुआ।

सच है “गुरु साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः” । आपके द्वारा ही मेरी पीड़ा ईश्वर तक पहुंची। कहा गया है कि गुरु के शब्दों में अपार शक्ति होती है। कोई वाणी पर अनुकरण करके तो देखे। जो गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं उन्हें कोई भय नहीं होता है वो निर्भय हो जाते हैं ऐसा कहकर उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

आलेख- डॉ.राज गोस्वामी

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