Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारVirendra Khare “Akela”  वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Virendra Khare “Akela”  वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

Virendra Khare “Akela” का (जन्म- 18 अगस्त, 1968, किशनगढ़, छतरपुर, मध्य प्रदेश) वर्तमान समय में ग़ज़ल विधा के लोकप्रिय और प्रसिद्ध कवि हैं, जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी ग़ज़लों तथा सरल, सहज गीतों द्वारा हिन्दी कविता की उल्लेखनीय सेवा की है और दुष्यन्त कुमार जी के बाद के ग़ज़लकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है और साहित्यप्रेमियों को बहुत प्रभावित किया है।

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ (Virendra khare akela) का जन्म 18 अगस्त सन् 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के ठेठ देहाती आदिवासी बहुल छोटे से गांव किशनगढ़ में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ, पांच भाइयों में सबसे बड़े वीरेन्द्र बचपन से ही गंभीर स्वभाव और साहित्यिक रुचि के हैं ।

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से इतिहास में एम. ए. एवं बी. एड. करने के बाद वे लम्बे समय तक छतरपुर शहर के अशासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य करते रहे साथ ही निःशक्तजनों की शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए समर्पित एन. जी. ओ. ‘प्रगतिशील विकलांग संसार, छतरपुर के संचालन एवं व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाते रहे ।

रोज़गार को लेकर वे लम्बे समय भ्रमित और संघर्षरत रहे तथा अभावों से जूझते रहे । वर्तमान में ‘अकेला’ जी एक अध्यापक के रूप में शासन को अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही निःशक्तजनों की सेवा एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं ।

कार्यक्षेत्र
‘अकेला’ जी को लेखन की प्रेरणा अपने पिता स्व. श्री पुरुषोत्तम दास जी से मिली । जो भजन-कीर्तन लिखने में काफ़ी रुचि रखते थे यद्यपि उनकी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई । माता श्रीमती कमला देवी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक रुचि की हैं।

‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है । ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’-1999 के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई । दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह सुब्ह की दस्तक’-2006 एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’-2012 ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है ।

‘अकेला’ जी की ग़ज़लों में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे देश और समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं, विसंगतियों और छल-छद्मों को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भर देते हैं।  
‘अकेला‘ जी की ग़ज़लों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध कवि डॉ. कुंअर बेचैन लिखते हैं-“ ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ साथ बहर आदि की दृष्टि से निष्कलंक हैं, उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी । ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परम्परा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज करती हैं । इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के दर्शन होते हैं ।”

इसी प्रकार ’अकेला’ जी की ग़ज़ल के प्रभाव का उद्घाटन करते हुए इस दौर के शहंशाहे ग़ज़ल डॉ. बशीर बद्र कहते हैं-“अकेला की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।” पद्मश्री डॉ. गोपालदास ‘नीरज’ कहते हैं कि-“ अकेला के शेरों में यह ख़ूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं । ” चर्चित व्यंग्यकार माणिक वर्मा एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. देवव्रत जोशी ने भी अपनी अपनी टिप्पणियों में ‘अकेला’ को दुष्यत कुमार के बाद का उल्लेखनीय शायर निरूपित किया है।

स्पष्ट है कि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने हिन्दी ग़ज़ल को नए विषय, नई सोच, नए प्रतीक और सम्यक शिल्पगत कसावट देकर इस विधा की उल्लेखनीय सेवा की है और इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम की है । लेखन के अलावा ‘अकेला’ जी एक रंगकर्मी के रूप में भी सक्रिय रहे हैं । वे भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की ज़िला इकाई-छतरपुर के लम्बे समय से पदाधिकारी हैं और क़िस्सा कल्पनापुर का, ख़ूबसूरत बहू तथा बाजीराव मस्तानी आदि नाटकों में महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ अभिनीत कर चुके हैं ।

रचनाएँ
शेष बची चौथाई रात-(ग़ज़ल संग्रह)1999
सुबह की दस्तक (ग़ज़ल-गीत संग्रह)2006
अंगारों पर शबनम (ग़ज़ल संग्रह)2012

इसके अतिरिक्त ‘अकेला’ जी ने कई कहानियां, बाल कवितायें, समीक्षा आलेख और व्यंग्य लेख भी लिखे हैं।

हिन्दी ग़ज़ल और ‘अकेला’
ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें शायर अपनी बात कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावशाली ढंग से कहता है । ग़ज़ल के सभी शेर एक दूसरे से मुक्त (स्वतंत्र) होते हैं । यानी एक ग़ज़ल में अगर सात शेर हैं तो ये मान कर चलिए कि उसमें सात अलग अलग बयान, सात अलग अलग भावनाएँ या सात अलग अलग कविताएँ हैं ।

ग़ज़ल फारसी से उर्दू में आई और उर्दू से हिन्दी में । जब ग़ज़ल उर्दू से हिन्दी में आई तो हिन्दी में बहुत से कवि ग़ज़ल लेखन की ओर आकृष्ट हुये लेकिन ज़्यादातर ग़ज़लकार चूंकि उर्दू की ग़ज़ल परम्परा और ग़ज़ल के व्याकरण से अनभिज्ञ थे इसलिए उनकी ग़ज़लें ग़ज़ल की कसौटी पर खरी नहीं उतरीं और नकार दी गईं । लेकिन कुछ ऐसे हिन्दी ग़ज़लकार भी सामने आये जो ग़ालिबो-मीर की ज़बान से परिचित थे ।

ग़ज़ल जिनकी आत्मा में बसी हुई थी और जो अमीर खुसरो से लेकर बशीर बद्र तक के ग़ज़ल के सफ़र से परिचित थे । जब ऐसे ग़ज़लकारों ने ग़ज़ल कही तो उर्दू वाले भी आश्यर्च चकित रह गये और इस तरह हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा शुरू हुई । उर्दू से हिन्दी के इस ख़ूबसूरत मोड़ पर जो चंद लोग खड़े हैं जिनकी शायरी के आधार पर आने वाली साहित्यिक नस्लें हिन्दी ग़ज़ल का अपना पैमाना बनायेंगी उनमें दुष्यंत कुमार, गोपालदास ‘नीरज’, बालस्वरूप राही, कुंअर बेचैन, मुनव्वर राना, राजेश रेड्डी, सूर्यभानु गुप्त आदि के साथ एक नाम और आता है-वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ।

अना क़ासमी लिखते हैं ‘उर्दू से हिन्दी ग़ज़ल के जिस ख़ूबसूरत मोड़ पर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ खड़े हैं सिर्फ़ यही बात इनके नाम को सदियों तक ज़िन्दा रखने के लिए काफ़ी है मगर इनके इस बस्फ़ के साथ एक और जो सिफ़त मौजूद है कि वो अपने दौर के तमाम हालात को इतने क़रीब से देख रहे हैं जैसे आज का युग उन्हें घूर रहा हो और वो खड़े उसे आँख दिखा रहे हों । अकेला साहब शायरी के साथ तकल्लुफ़ात नहीं बरतते बल्कि हर वो सच्ची बात जे़रे क़लम ले आते हैं जो आज के समाज की सही मंज़रकशी कर सके ।

अकेला जी की शायरी में आज की कड़वी सच्चाईयों के साथ साथ बहुत से ऐसे पहलू भी हैं जो कभी आँखों को नम करते हैं, कभी होंठों पर मुस्कुराहट लाते हैं कभी दिलो-दिमाग़ को झकझोरते हैं और कभी कठिन परिस्थितियों के बीच हौसला बंधाते हैं । अर्द्धवाषिक उर्दू पत्रिका ‘अस्बाक़’ (पुणे) के एडीटर नज़ीर फतेहपुरी लिखते हैं-‘अकेला की ग़ज़ल मायूसी, नाकामी और अंधेरों की शिकायतों तक महदूद नहीं बल्कि उसमें हिम्मत और हौसले की एक दुनिया भी आबाद है ।

संस्तुतियाँ
‘अकेला’ की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है। छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किए हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं। उनके शेरों में यह ख़ूबी है कि वे ख़ुद-ब-ख़ुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना
पद्मश्री डॉ० गोपाल दास नीरज

‘अकेला’ की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नई हलचल पैदा करेगी।
डॉ. बशीर बद्र

हिन्दी ग़ज़ल और गीत के क्षेत्र में युवा कवि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बहुत जाना पहचाना है। बुन्देलखण्ड में दूसरे दुष्यन्त कुमार कहे जाने वाले ‘अकेला’ ने अपनी मूल छवि के अनुरूप आम लोगों के दुख-दर्दों को समर्थ वाणी देने वाली हिन्दी ग़ज़लें कह कर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल परम्परा को तो आगे बढ़ाया ही है साथ ही उन्होंने पारम्परिक हिन्दी गीत विधा को कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक नवीन सर्वग्राही रूप प्रदान करने का सराहनीय कार्य भी किया है।
डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ वह सशक्त कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है। वे भाषा के ऐसे योद्धा व क़लम-शस्त्रधारी हैं जो समाज में व्याप्त दुःख-दर्दों, अभावों, असफलताओं को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भरते हैं।

उनकी ग़ज़लों में नंगा यथार्थ कलात्मक ढंग से अद्भुत सौन्दर्य पा गया है। उनका यह मानना है कि ‘हाथ का मैल ही सही पैसा, सारी दुनिया ग़ुलाम है कि नहीं’ सच बयानी का अद्वितीय उद्धरण है। पूँजीवादी समाज में ग़रीबों के आँसुओं को बवाल समझा जाना, भूखों को बातों से बहलाना शोषकों के शग़ल हैं जिन्हें ‘अकेला’ ने बेनकाब किया है। इनकी कविता आम आदमी के जीवन की कविता है।
डॉ. बहादुर सिंह परमार

अगर परिमाण की दृष्टि से देखा जाये तो आज की हिन्दी कविता की प्रमुख धारा ग़ज़ल ही है। हिन्दी कविता के क्षेत्र में इन दिनों जितने भी रेखांकित करने योग्य कवि हैं उनमें से अधिकतर कवियों ने ग़ज़लें कही हैं और जिन्होंने ग़ज़लें कही हैं उनमें जो प्रमुख ग़ज़लकार हैं उनमें श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बिना किसी हिचक के लिया जा सकता है। इसका बड़ा कारण यह है कि ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ-साथ बहर आदि की दृष्टि से भी निष्कलंक हैं।

श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की उन ग़ज़लों  में सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी। ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परंपरा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज भी करती दिखाई देती हैं। इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के ही दर्शन होते हैं। ग़ज़ल का शेर अगर एकदम दिल में न उतर जाये तो वह शेर ही क्या। ऐसे दिल में उतर जाने वाले अनेक शेर इस संग्रह में मिलेंगे। मिसाल के तौर पर एक ग़ज़ल के मतले का यह शेर ही देखें –
“अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
न जाने लोग भी क्या-क्या अदाकारी दिखाते हैं।”

और यह दिखावा ही आज के व्यक्ति की असली शख्सियत बन गई है। तभी तो सारी दुनिया में यह हो रहा है कि-अम्न की चाहत यहाँ है हर किसी को /हर कोई तलवार पाना चाहता है। सचमुच आज सारे संसार में हिंसा का ही बोलबाला है। लोगों की नस-नस में झूठ और मक्कारी भरी हुई है। यह गुण भी लोगों ने सियासतदारों से ही सीखा है इसी कारण ‘अकेला’ जी गुस्से में बोलते हुए कहते हैं-
“झूठ मक्कारी तजें नेता जी मुमकिन ही कहाँ
नाचना, गाना-बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे।”

इतनी कड़वी बात करते हुए कभी वे अपने आप को समझाते भी हैं- “ऐ अकेला दुनिया भर से मोल मत ले दुश्मनी/हक़बयानी छोड़ दे ये तीखे तेवर छोड़ दे।” और आगे चलकर यह भी कहते हैं कि-“सच्चाई की रखवाली को निकले हो/सीने पर गोली खाने का दम रखना।” कवि पूरी चेतना और हिम्मत के साथ फिर भी सच्चाई को कहते हुए नहीं घबराता क्योंकि उसका विश्वास है कि जब तक ईश्वर साथ है कोई किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता और डरा भी क्यों जाये क्योंकि हम तो इंसान हैं जबकि-“ करो मत फ़िक्र वो दो वक्त की रोटी जुटा लेगा/परिंदे भी ‘अकेला’ चार दाने ढूंढ़ लेते हैं।”

अकेला जी अकेले नहीं हैं जो आज के परिवेश की विडम्बनाओं और विदू्रपताओं से परेशान हैं वरन उनका दर्द सारे समाज का दर्द हैक्योंकि कवि सारे समाज का दर्द अपना दर्द बनाकर बयान करता है और अपने दर्द को इस तरह कहता है कि उसे समाज के अधिकतर लोग अपना दर्द महसूस करते हैं। ‘अकेला’ जी का पूरा नाम वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ है और इसीलिए अपने नाम के अनुकूल ही उनकी ग़ज़लों के अशआर एकदम खरे हैं। उनमें कहीं भी खोट नहीं है।
कुँअर बेचैन
2 एफ-51, नेहरू नगर
गाजियाबाद (उ.प्र.)

हिन्दी ग़ज़लों या हिन्दी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच “अकेले” हैं। मुझे हैरत इस बात में है कि श्री ‘अकेला’ जी सचमुच ग़ज़ल के मिज़ाज से न सिर्फ़ वाक़िफ़ हैं वरन् उनकी  मेयारी ग़ज़लें फ़न की सभी कसौटियों पर खरी उतरती हैं।

ग़ज़ल की पहली और अहम शर्त है शेरों का वज़न में होना, उसके बाद रदीफ़ क़ाफ़ियों का सही इस्तेमाल तथा अल्फ़ाज़ों की नशिस्तो-बरखास्त, जिसमें बड़े-बड़े उस्तादों तक से चूक हो जाती है, परन्तु भाई ‘अकेला’ की किसी भी ग़ज़ल में उपरोक्त ख़ामियाँ ढूँढ़े से भी नहीं मिलतीं। उन्होंने आज के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी ग़ज़लों में जिस खूबसूरती से ढाला है, वो देखते ही बनता है। उनकी विहंगम काव्य-दृष्टि कल, आज और कल का ऐसा चमकदार आईना है जिसमें जीवन का हर प्रतिबिंब बोलता है, न सिर्फ़ बोलता है वरन् परत-दर-परत आज ही नहीं कल की हक़ीक़तों का पर्दा भी खोलता है।
माणिक वर्मा
57 लाला लाजपतराय कॉलोनी,
पंजाबी बाग़, भोपाल (म.प्र.)

हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है। लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती –
“हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”

इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी मिलते हैं। गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।

आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं। यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है। वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं। अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है। आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है। ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।
प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी
24, वेदव्यास कॉलानी नं. 2,
रतलाम (म.प्र.) 457001

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का परिचय      
जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में
पिता : स्व० श्री पुरूषोत्तम दास खरे
माता : स्व०श्रीमती कमला देवी खरे
शिक्षा :एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख ।

प्रकाशित कृतियाँ
1 – शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह), [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
2 – सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता), [सार्थक एवं अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
3 – अंगारों पर शबनम 2012(ग़ज़ल संग्रह) [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]

 उपलब्धियाँ:
*वागर्थ, कथादेश, वसुधा, रसरंग-दैनिक भास्कर, साप्ताहिक शुक्रवार, राष्ट्रधर्म सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं रचनाओं का प्रकाशन ।

*भावना प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘ समकालीन हिंदी ग़ज़लकार ‘ एवं किताबगंज प्रकाशन, राजस्थान द्वारा प्रकाशित।

‘हिंदी ग़ज़ल परम्परा’ में वर्णित उल्लेखनीय ग़ज़लकारों में शामिल ग़ज़लकार ।

* चुनी हुई ‘हिन्दी ग़ज़लें (सूर्य भारती प्रकाशन दिल्ली), समकालीन ग़ज़लकारों की बेहतरीन ग़ज़लें (किताबगंज प्रकाशन-राजस्थान), सदी के मशहूर ग़ज़लकार (गुफ़्तगू पब्लिकेशन-प्रयागराज), इस दौर की ग़ज़लें (के.बी. एस. प्रकाशन- दिल्ली) ‘आधुनिक भारत के गज़लकार’ (गुफ़्तगू पब्लिकेशन-प्रयागराज) आदि प्रतिष्ठित/उल्लेखनीय ग़ज़ल संकलनों में सम्मिलित ग़ज़लकार।

*लगभग 30 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण ।
*आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु रचनाएँ अनुमोदित ।
*दूरदर्शन केंद्र- भोपाल से रचनाओं का प्रसारण ।
*ग़ज़ल-संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’ पर अभियान जबलपुर द्वारा ‘हिन्दी भूषण’ अलंकरण ।
*गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा ‘अकबर इलाहाबादी’ सम्मान।
*पुष्पगंधा प्रकाशन-कवर्धा (छत्तीसगढ़) द्वारा ‘चंद्रसेन विराट’ स्मृति सम्मान।
*गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’ सम्मान।
*मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म.प्र.] द्वारा कपूर चंद वैसाखिया ‘तहलका ‘ सम्मान
*अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत ‘काव्य-कौस्तुभ’ सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान ।
* इंटरनेट पर ‘कविता कोश’, भारत कोश, रेख़्ता, विकिपीडिया, साहित्यकुंज, अनुभूति आदि पर प्रकाशित ।

सम्प्रति :अध्यापन
सम्पर्क : छत्रसाल नगर के पीछे, पन्ना रोड, छतरपुर (म.प्र.)पिन-471001
E-mail- Virendraakelachh@gmail.com

पद्मश्री अवध किशोर जड़िया का जीवन परिचय 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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