श्री सुभाष सिंघई बुन्देलखण्ड के ऐसे साहित्यकार है जिन्हे कलम का सिपाही भी कहते है । कलम का सिपाही यानि पत्रकारिता का प्रतिविम्ब जो बिना रुके- बिना झुके लिखता जाता है । आधुनिक काल मे Subhash Singhai एक छंदवद्ध कविताओं के कवि भी है । श्री सुभाष सिंघई का जन्म 12 जून 1955 जतारा , जिला टीकमगढ़ ( मध्य प्रदेश ) मे हुआ था ।
पिता का नाम – श्री कपूर चंद्र सिंघई
माता का नाम – श्रीमति शीला देवी सिंघई
शिक्षा – एम० ए० ( हिंदी साहित्य, दर्शन शास्त्र )
लेखन की विधा –
1 – दोहा, कुंडलिया, चौकड़िया , पदकाव्य , इत्यादि सभी सनातनी मात्रिक छंद तीन हजार के करीब दोहे , पाँच सौ के करीब कुंडलिया , चौकड़िया , बुंदेली और हिंदी में लिख चुके है।
2 – शताधिक व्यंग्य लेख, राजनैतिक समीक्षाएं विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित है।
वर्तमान में सनातनी मात्रिक छंद पर लेखन कर रहे है।
कृतिया –
1- सिंघई की सोंठ (हास्य व्यंग्य कविताएँ)
2- मुस्कराते मुक्तक
3- गर्भ से गमन तक
4- नगर जतारा ध्रुवतारा (ताटंक छंद में आचार्य विमर्शसागर जी की जीवनी
5- कलम से उद्गम (विभिन्न सनातनी मात्रिक छंदो का संकलन)
6- बुंदेली बराई
7- कुंडलिया कुंड
8 – दोहा कुंड
9 – गौरव गढ़ कुंडार
10- हिंदी छंद माला
सम्पादन –
वार्षिक पत्रिका – मानस मंजरी वर्ष 1987 , 88 , 89
प्रकाशक –
श्री रामचरित मानस समिति जतारा
वर्तमान में सम्पादन –
1- छंद महल (मासिक हिंदी ई पत्रिका) जिसके 20 विशेषांक अब तक विभिन्न छंदो पर हो चुके है।
2- निर्झर (अर्द्ध वार्षिक हिंदी ई पत्रिका) जिसके दो विशेषांक प्रकाशित हो चुके है।
यूट्यूब – सृजन चैनल का संचालन
कुछ समय आई टी आई में भाषानुदेशक पद पर शासकीय सेवा की है।
अन्य उपलब्धि-
तीस बर्ष प्रिंट मीडिया पत्रकारिता की है ,कई आलेख प्रकाशित है।
पता – सुभाष सिंघई
मेन मार्केट , जतारा , जिला टीकमगढ़ ( म०प्र० )
सुभाष सिंघई की रचनाएँ –
हिंदी दोहे –
कीड़े खाकर छिपकली , छिपी राम तस्वीर |
वहाँ बैठ वह सोचती , बदलेगी तकदीर ||
आज मनुष का हाल है , करे पाप दिन रात |
राम नाम ले सोचता , मुझको मिले प्रभात ||
कर्म जहाँ खोटे दिखें , राम रहें तब दूर |
करनी की भरनी मिलेे ,पाप जुड़े भरपूर ||
फेंके थे जो खेत पर , कभी छांटकर आम |
उगकर छाया दे रहे, और फलों से दाम ||
नहीं वचन कटु बोलिए, जब हो कुछ मतभेद |
नजर मिलें तब प्रेम से, प्रकट कर सकें खेद ||
वाणी कटुता से भरी , मन होता बेचैन |
मिलने पर शर्मिंदगी , नीचे झुकते नैन ||
विकार विषय पर दोहे –
मन में नहीं विकार हो , मीठे हों जब बोल |
संत हृदय वह आदमी , जग में है अनमोल ||
जो विकार को पालता ,रखता है अभिमान |
अंधकार उसके हृदय , रहता सीना तान ||
धन से बढ़ता मद जहाँ , मद से बढ़ें विकार |
जब विकार मन में बसें , तब जीवन है खार ||
काँटे रहे विकार है , नहीं बनें वह फूल |
सुख विकार में खोजना ,जीवन में है भूल ||
करता सदा विकार है , मन को बहुत अशांत |
जीवन में भी आपदा , आकर करती क्लांत ||
यात्रा विषय पर दोहे –
जीवन यात्रा में दिखें , राहें यहाँ अनंत |
जब सुभाष पथ खोजता , मिले न कोई अंत ||
यात्रा जाए कौन कब , कहाँ मिले आराम |
यात्री सब अंजान है , कहाँ ढ़लेगी शाम ||
कहाँ समापन की जगह , खोजो नहीं सुभाष |
यात्रा बस करते रहो , रखो राम से आश ||
कभी बिछड़कर हो मिलन , यह यात्रा का खेल |
पता नहीं इस बात का , कब हो किससे मेल ||
जीवन यात्रा में मिलें , कहीं कुटिल संताप |
कहीं धर्म की है शरण , कहीं लुभाते पाप ||
कहाँ समापन की जगह , खोजो नहीं सुभाष |
यात्रा बस करते रहो , रखो राम से आश ||
कुंडलिया हिंदी में
ॐ नम: शिवाय , {कुंडलिया} जय हरिद्वार
जानो शिव दरबार है , तीरथ श्री हरिद्वार |
नमन करे सब देखते , प्रकट गंग की धार ||
प्रकट गंग की धार , सभी जन हर्षित होते |
मिले मोक्ष का द्वार , लगाकर नद में गोते ||
कह सुभाष नादान , शिवालय सुखकर मानो |
मिलता परमानंद. , शिवा की पैड़ी जानो ||
कहने मेढ़क अब लगे , हम करते आराम |
टर्र -टर्र मत कीजिए , हमको हुआ जुखाम ||
हमको हुआ जुखाम ,दूर हो सबकी छाया |
हमको नहीं पसंद ,यहाँ पर कोई. काया ||
मेढक की तुक तान ,कान भी लगते सहने |
नादाँ बहुत सुभाष , लगे अब मेढ़क कहने ||
कविता – पनिहारिन नायिका
नील परिधान तन पर सुशोभित
घूँघट से चन्दा है झाँकता |
चलती है पनिहारिन पगडंडी पर
छलक कर अमृत-कलशों से भागता ||
रुप की राशी, सूरज भी देखता
किरणें भी ठहर स्तब्ध है |
स्फटक मणि भी लज्जित खड़ी
कवि की कल्पना नि:शब्द है ||
तीर-सी तीखी, नयनों की कोर है
बिंदु भी उसके सीप के है मोती |
गालो की लालिमा, गुलाव भी फीका
ललाट की आभा में, सृष्टि है सोती ||
नासिका केतकी की कली सुभाष
कर्ण है पुष्प चम्पा चमेली ||
दंत दाने अनार के है धवल
भौहे हैं श्याम वर्ण नई नवेली ||
विधा -कविता (नारी का सोलह श्रृंङ्गार )
नारी के सोलह. श्रृंङ्गार में वासना नहीं –
आराधना होती है ||
देखकर आँखों को सुखकर लगे –
यह साधना होती है ||
हमारी संस्कृति नीरस नहीं
वर्णन है सोलह. श्रृंङ्गार का |
अनुपम उदाहरण है –
राधा- कृष्ण के प्यार का ||
लेकिन. श्रृंङ्गार के नाम पर-
लज्जा त्याग -अंग प्रदर्शन |
हमारी धरोहर नहीं देती –
इसको कोई भी समर्थन ||
मैं भी इंसान पुरुष वर्ग से-
सुंदरता का पुजारी हूँ |
लिखता हूँ श्रृंङ्गार पर
श्रृंङ्गार पर बलिहारी हूँ ||
श्रृंङ्गार पर लिखना
लिखना नहीं अपराध |
दृष्टिकोण है अपना
हृदय की है नौशाद ||
सुंदरता हो अनुपम न्यारी-
चेहरे पर आए मुस्कान |
भरी भीड़ भी कर बैठे
जिसका अद्भुत गुणगान ||
ऐसी सुंदरता श्रृंङ्गार का
मैं शत-शत करता अभिनंदन |
स्वागत में अर्पण करता
भारत का अनुपम हल्दी चंदन ||
कविता में कवि भाव
प्रकट हो जाते है |
पर जो देते मोड़
नहीं हाथ कुछ पाते है ||
कुछ व्यंग्यआलपिने
कुत्ते भी -चमचों को देख-
शर्मिन्दा है |
कहते यह नजारा देखने-
हम क्यों जिंदा है ||
कह रहे हैं -इतने नीचे
हम नहीं भाव से भरे |
भले भूखे रह लिया
और जान से मरे ||
पूँछ हिलाई–
चल गया सिलसिला |
तलवे चाटने का
मौका नहीं मिला ||
गिद्द अव यहाँ
रहते नहीं हैं |
माँस खाते मानव का
दिखते नहीं हैं ||
पूछाँ बूड़े गिद्द से
बोला समेट लिया कारोवार |
मरकर के सवने
नेताओं में ले लिया अवतार ||
गिरगिट ने भी अपना –
मुँह छिपा लिया |
बुलाकर साथियों को-
सीधा सा कह दिया ||
चुल्लू भर पानी में
सभी डूव जाओं |
या इंसान से अधिक
रंग बदलकर दिखाओं ||
बूड़े साँप ने नए नवेलो
साँपो को समझाया है |
उन्हे मत काटना-जिनमें
हमसे जाय्दा समाया है ||
और नेताओं के पास तो
हरगिज जाना नहीं |
उल्टा जहर चढा आओगे-
बचने का तव ठिकाना नहीं ||